12.15.2009

विश्‍वरंजन और बाबा नागार्जुन की कविता

रविवार डॉट काम पर विश्‍वरंजन का साक्षात्‍कार पढ़ा....खुद को कवि कहलाने के शौकीन इन साहब ने हर सवाल के जवाब में स‍ाहित्यिक लफ्फाज़ी की है.! कवि हैं भई... हिंसा-हिंसा की चीख-पुकार तो मचाते हैं, लेकिन बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों पर कब्‍जे से उन्‍हें कोई दिक्‍कत नहीं और जनता से तमाम तरह के टैक्‍स काट कर उसी पैसे को जनता के खिलाफ पुलिस सेना भेजने के लिए इस्‍तेमाल करने को वह घुमा-फिर कर प्रतिहिंसा बताते हैं, हिंसा नहीं।
खैर मैंने पहले अपने ब्‍लॉग पर उनके बारे में छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के दो पर्चे प्रस्‍तुत किए थे....आज नागार्जुन की एक कविता यहां देने का मन कर रहा है....कविता पढ़ि‍ए आप खुद ही समझ जाएंगे मैं क्‍या कहना चाहता हूं, और बाबा नागार्जुन क्‍या कहना चाहते थे....
 
हिटलर के तम्‍बू में

अब तक छिपे हुए थे उनके दांत और नाखून
संस्‍कृति की भट्ठी में कच्‍चा गोश्‍त रहे थे भून।
छांट रहे थे अब तक बस वे बड़े-बड़े कानून।
नहीं किसी को दिखता था दूधिया वस्‍त्र पर खून।
अब तक छिपे हुए थे उनके दांत और नाखून।
संस्‍कृति की भट्ठी में कच्‍चा गोश्‍त रहे थे भून।
मायावी हैं, बड़े घाघ हैं,उन्‍हें न समझो मंद।
तक्षक ने सिखलाये उनको 'सर्प-ऩृत्‍य' के छंद।
अजी, समझ लो उनका अपना नेता था जयचंद।
हिटलर के तम्‍बू में अब वे लगा रहे पैबन्‍द।
मायावी हैं, बड़े घाघ हैं, उन्‍हें न समझो मंद।

यहां उदयप्रकाश की कविता 'तानाशाह' भी एक बार फिर पढ़ ली जाए...

तानाशाह 

वह अभी तक सोचता है
कि तानाशाह बिल्‍कुल वैसा ही या
फिर उससे मिलता-जुलता ही होगा

यानी मूंछ तितलीकट, नाक के नीचे
बिल्‍ले-तमगे और
भीड़ को सम्‍मोहित करने की वाकपटुता

जबकि अब होगा यह
कि वह पहले जैसा तो होगा नहीं
अगर उसने दुबारा पुरानी शक्‍ल और पुराने कपड़े में
आने की कोशिश की तो
वह मसखरा ही साबित होगा
भरी हो उसके दिल में कितनी ही घृणा
दिमाग में कितने ही खतरनाक इरादे
कोई भी तानाशाह ऐसा तो होता नहीं
कि वह तुरन्‍त पहचान लिया जाये
कि लोग फजीहत कर डालें उसकी 
चिढ़ाएं, छुछुआएं
यहां तक कि मौके-बेमौके बच्‍चे तक पीट डालें
अब तो वह आयेगा तो उसे पहचानना भी मुश्किल होगा
..........................

12.13.2009

फिलस्‍तीन की मुक्ति के नाम

आज 'शब्‍दों की दुनिया' पर फिलस्‍तीन की मुक्ति के नाम एक गीत....वीडियो के नीचे इसके बोल भी चिपका रहा हूं... और सबसे नीचे है युद्ध विरोधी गीतों के लिए एक लिंक......

 




Song for Gaza
by Michael Heart




A blinding flash of white light
Lit up the sky over Gaza tonight
People running for cover
Not knowing whether they’re dead or alive
They came with their tanks and their planes
With ravaging fiery flames
And nothing remains
Just a voice rising up in the smoky haze
We will not go down
In the night, without a fight
You can burn up our mosques and our homes and our schools
But our spirit will never die
We will not go down
In Gaza tonight
Women and children alike
Murdered and massacred night after night
While the so-called leaders of countries afar
Debated on who’s wrong or right
But their powerless words were in vain
And the bombs fell down like acid rain
But through the tears and the blood and the pain
You can still hear that voice through the smoky haze
We will not go down
In the night, without a fight
You can burn up our mosques and our homes and our schools
But our spirit will never die
We will not go down
In Gaza tonight




11.22.2009

प्रेत की वापसी





वामपंथी भटकावों और संघर्षों की वर्तमान स्थिति के बारे में अमर जी ने एक छोटा व्यंग्यात्मक आलेख भेजा है, इसे यहां हूबहू पोस्‍ट कर रहा हूं।

प्रेत फिर दिखने लगा है। उस सनकी दढ़ियल ने 150 साल पहले एक प्रेत के आंतक की घोषणा की थी।और तभी से सारे सयाने और ओझा मिर्च की धूनी और नीम के झाड़ू से लेकर बड़े-बड़े तोप-तलवार और बम तक ले कर उस प्रेत के विनाश  के प्रयास में जुटे हुए हैं। कामयाबी नहीं मिली तो मन्त्रों और झाड़-फूंक का सहारा लिया गया। और एक बार तो लगा कि जैसे प्रेत वापस गया बोतल में। दुनिया भर के अघोरी और प्रेत-पूजक दावे करते थे कि प्रेत तो सामाजिक इतिहास का हिस्सा है और उसे ऐतिहासिक प्रक्रिया से अलग नहीं किया जा सकता। सयानों ने उपाय निकाला। उन्होंने इतिहास के ही अन्त की घोषणा कर दी। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।
कुछ दिन अमन-चैन भी  रहा(यूं न था मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाये) प्रेतोपासकों में से कुछ तो बाकायदा राम-राम जपने भी लगे। जिन्होंने नहीं भी जपा उन्होंने भी आंगन में तुलसी का पौधा तो रोप ही लिया और सुबह शाम उस पर जल चढ़ाने लगे। सुग्रीव और विभीषण के राजतिलक हुए; उन्हें पुरस्कृत भी किया गया। कुछ अन्य भी थे जो देखने में तो लंकेश-मित्र बालि जैसे लगते थे पर जब भी अवसर आया उन्होंने सीना चीर कर दिखा दिया कि उनके हृदय में तो राम ही बसते हैं और उनकी गदा अगर उठेगी तो राक्षसों के विरुद्ध वरना तो वे रामजी के फ़लाहारी चाकर मात्र हैं। लगने लगा अब तो मोरचा फ़तह हो गया। लंका मे राम-राज आ गया।

 पर ये क्या? प्रेत-माया तो इस बीच और भी सशक्त हो गई। प्रेतोपासक राक्षस सिर्फ़ लंका में ही नहीं थे। वे तो हर तरफ़ बिखरे हुए थे। सारी दुनिया में ॠषि-मुनियों के यज्ञों में बाधा उत्पन्न करने लगे। विष्णु का अवतार कहलाता था राजा। बेचारे की वो दशा हुई कि घर का रहा न घाट का। आर्यावर्त्त में तो असुरों ने रामजी के विरुद्ध हल्ला ही बोल दिया। दीन-हीन अयोध्यावासियों के जत्थे के जत्थे राक्षसों की सेना में भरती होने लगे। दशा इतनी बिगड़ गई कि महाबली हनुमान को भी अपनी रक्षा के लिये राजसैनिकों से मदद मांगनी पड़ी।
 स्थिति जटिल होती जा रही है। रामजी भी क्या करें। ये त्रेता नहीं कलियुग है। प्रेतोपासक राक्षसों की सँख्या बढ़ती जा रही है। त्रेता में तो वानरों में सुग्रीव और राक्षसों मे विभीषण भी मिलते थे। अब मामला बहुत आगे बढ़ चुका है। ॠषि-मुनियों और राज सैनिकों में से भी कितने राक्षसों से मिले हुए हैं, कुछ पता नहीं चलता। वनवासी अहिल्या, केवट और शबरी दर्शन करके गदगद  नहीं होते बल्कि देखते ही हथियार लेकर मारने दौड़ते हैं। शम्बूकों ने भी वेद पढ़कर लोगों को भड़काना शुरू कर दिया है। उनका सर काटना भी अब सहज नहीं रहा। और काट भी दें तो एक शम्बूक की जगह हज़ार निकल आते हैं।
त्रेता में भय बिनु होय न प्रीत बोलने वाले राम जी आजकल अकेले में अब मैं काह करूं कित जाऊं गुनगुनाते पाये जाते हैं।

11.20.2009

रंगकर्मी शशिभूषण वर्मा की मौत की जाँच के लिए एकजुट हों

शशिभूषण वर्मा एक युवा रंगकर्मी थे। पिछले दो दशक से रंगमंच के क्षेत्र में सक्रिय थे। पटना (बिहार) की संस्था हिरावल से उनके सांस्कृतिक सफर की शुरुआत हुई थी। उन्होंने कई चर्चित रंग निर्देशकों के साथ देश के विभिन्न शहरों में रंगकर्म किया। हिंदी रंगमंच के वे एक ऐसे हरफनमौला कलाकार थे, जो अभावों की पृष्ठभूमि से निकलकर आए और लगातार सीखते हुए विकसित हुए थे। भविष्य में उनसे काफी उम्मीदें थीं। लेकिन विगत 4 नवम्बर को उन उम्मीदों का असामयिक अंत हो गया।

इन दिनों शशिभूषण एनएसडी के छात्र थे और 29 अक्टूबर को एनएसडी की ओर से उन्हें नोएडा मेडिकेयर सेंटर में इलाज के लिए भेजा गया था। वहां पहले उनके बुखार का इलाज चला, दो दिन बाद उन्हें प्राइमरी स्टेज का जॉन्डिस बताया गया और 3 नवम्बर को डिस्चार्ज कर दिया गया। लेकिन कुछ ही देर बाद वे बेहोश हो गए और फिर डॉक्टरों ने उनकी बीमारी को डेंगू बताया। अगले दिन उनका निधन हो गया।
हमें संदेह है कि शशिभूषण वर्मा की मौत इलाज में लापरवाही से हुई है। इस घटना की जाँच और मुआवजे की मांग को लेकर पटना और बिहार के कई शहरों के संस्कृतिकर्मी आन्दोलित हैं। दिल्ली में भी शशिभूषण के दोस्तों की ओर से एक शोकसभा में इस परिघटना की जाँच की मांग की गई है। लेकिन अभी तक एनएसडी की ओर से कोई आधिकारिक बयान तक नहीं आया है कि वह हॉस्पीटल के खिलाफ कुछ करने जा रही है या नहीं और न ही उसकी ओर से संस्कृतिकर्मियों की अन्य मांगों को पूरा करने के संदर्भ में कुछ कहा गया है। एनएसडी में पहले भी बिहार के एक प्रतिभावान रंगकर्मी विद्याभूषण की मौत हो चुकी है।
हम तमाम सांस्कृतिक संगठनों, साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों, रंगकर्मियों से अपील करते हैं कि 21 नवन्बर को अपराह्न 2 बजे पुष्किन की मूर्ति (साहित्य अकादमी) के पास पहुँचें और एनएसडी प्रशासन ने अब तक इस मामले में क्या किया है, इसका जवाब मांगें। आइए एक साझा संघर्ष चलाया जाए, ताकि शशिभूषण के मामले में न्याय मिल सके और भविष्य में उन जैसे किसी रंगकर्मी को हमें इस तरह खोना न पड़े।

11.13.2009

नेपाल के साहित्यिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य पर एक अनौपचारिक बातचीत

प्रिय साथी,

हम आपको श्री निनु चापागाईं के साथ नेपाल के साहित्यिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य पर एक अनौपचारिक बातचीत के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। श्री चापागाईं न सिर्फ़ नेपाल के राजनीतिक आन्दोलन में अहम ज़िम्मेदारियाँ सँभालते रहे हैं बल्कि वहाँ के साहित्यिक-सांस्कृतिक आन्दोलन की भी एक अहम शख़्सियत हैं।

नेपाल के वरिष्ठतम मार्क्‍सवादी साहित्यिक आलोचकों में से एक, निनु प्रगतिशील लेखक संघ, नेपाल के अध्यक्ष और प्रगतिशील बुद्धिजीवी संगठन, नेपाल के केन्द्रीय सदस्य हैं। उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं और वे प्रमुख नेपाली साहित्यिक पत्रिका ‘वेदना’ के सम्पादक भी हैं। निनु नेपाल के कम्युनिस्ट आन्दोलन में करीब चार दशक से सक्रिय हैं। वे संयुक्त जन मोर्चा (1991-93) के महासचिव रह चुके हैं। इस समय वे एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य हैं तथा पार्टी के संस्कृति विभाग के प्रमुख हैं।

एक नये समाज के निर्माण की जद्दोजहद से गुज़र रहे नेपाल में पिछले कुछ समय से जारी गम्भीर राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक उथल-पुथल पर हम सभी की नज़रें लगी हुई हैं। विडम्बना यह है कि हमारे इतनेे करीब होते हुए नेपाल के बारे में जानकारी के लिए हमें प्रायः दूसरे-तीसरे स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में नेपाल को लेकर हम सबके मन में चल रही बहुतेरी जिज्ञासाओं व प्रश्नों पर निनु के साथ एक दिलचस्प और उपयोगी बातचीत हो सकेगी, ऐसी हमें उम्मीद है। कृपया ज़रूर आयें।

18 नवंबर, 2009; हिंदी भवन विष्णु दिगंबर मार्ग, निकट आईटीओ, नई दिल्ली

सादर,

सत्यम

सचिव, राहुल फ़ाउण्डेशन

10.19.2009

यहाँ सत्य को झुलस रही है संविधान की आँच


एस.ए. हमजा



यह पुस्तक मर चुकी है
इसे न पढ़ें
इसके शब्दों में मौत की ठण्डक है
और एक-एक पृष्ठ
जिन्दगी के आखिरी पल जैसा भयानक है

पंजाब के क्रान्तिकारी कवि ''पाश'' की भारतीय संविधान पर लिखी ये पंक्तियाँ दुनिया का सबसे बड़ा व महान लोकतन्त्र अपनी राज्य मशीनरी द्वारा निर्विवाद रूप में लागू कर रहा है।
भारतीय संविधान चाहे जितने विद्ववतापूर्ण ढंग से लिखा गया हो, उसकी जमीनी हकीकत यह है कि जनता को राज्यसत्ता से अतिसीमित जनवादी अधिकार ही प्राप्त हो रहे हैं। इसके साथ व्यापक आम जनता के लिए संविधान प्रदत्त अधिकारों, कानूनी प्रावधानों और उच्चतम न्यायालय के मानवाधिकारों विषयक दिशा-निर्देशों का कोई खास मतलब नहीं है क्योंकि उनके सभी संविधान प्रदत्त अधिकार तो थाने के दीवानजी की जेब में आकर समा जाते हैं।
क्योंकि व्यवस्था के सामने चुनौती खड़ा करने या थोड़ा-सा खतरा पैदा होने पर भारतीय राज्यसत्ता का चरित्र हमेशा ही दमनकारी तथा स्वयं अपने द्वारा ही बनाए गए कायदे-कानूनों को ताक पर धर देने का होता रहा है। प्रथम आम चुनाव के पहले ही 'तेलंगाना किसान संषर्घ' का बर्बर दमन करके राज्यसत्ता ने अपने वास्तविक चरित्र को उजागर कर दिया था जिसने महान क्रान्तिकारी व विचारक भगतसिंह की इस उक्ति को सही साबित किया कि ''हमें जितनी भी सरकारों के बारे में जानकारी है, वे बल पूर्वक संचालित होती है।''
इसके बाद जनता जहाँ भी अपनी विधि सम्मत न्यायपूर्ण माँगों को लेकर सड़कों पर उतरी वहाँ उसका स्वागत लाठियों व गोलियों की बौछार से किया गया। चाहे वह आपातकाल का विरोध करने वाले लोगों का दमन हो, 1974 की रेल हड़ताल हो या फिर बेलद्दी, बेलाडीला, पन्तनगर, नारायणपुर, शेरपुर, अरवल, स्वदेशी कॉटन मिल कानपुर से लेकर मुजफ्फरनगर और बबराला काण्डों तक सत्ता प्रायोजित नरसंहारो का लम्बा सिलसिला है।
छंटनी-तालाबन्दी को लेकर सड़कों पर उतरने वाले मजदूरों पर बिजली, पानी आदि की दुर्व्‍यवस्था को लेकर आन्दोलित नागरिकों पर तथा रोजगार व सस्ती शिक्षा की माँग कर रहे युवाओं पर लाठियों गोलियों की बरसात आम बात होती है।
इसी कड़ी में एक ताजा उदाहरण है गोरखपुर का मजदूर आन्दोलन। गोरखपुर में चल रहे मजदूर आन्दोलन में उन्हीं विधि सम्मत माँगों को एजेंडे पर रखा गया है जिनको देने का भारतीय संविधान दम भरता है परन्तु सत्ता व पूँजी का गठजोड़ संवैधानिक अधिकारों को ताक पर रखकर मजदूरों व उनके नेताओं पर पुलिसिया कहर बरपाए हुए है।  विगत दो माह से चलने वाले आन्दोलन को कुचलने में पूरा जिला प्रशासन, स्थानीय सांसद व विधायक महोदय काफी दिलचस्पी दिखा रहे हैं तथा उसे (आन्दोलन को) चर्च द्वारा समर्थित व नक्सलवादियों द्वारा संचालित बताया जा रहा है।
पिछले 15 अक्टूबर से गिरफ्तार मजदूर नेताओं को जमानत देने से इंकार करते हुए पुलिस प्रशासन के उच्च अधिकारी उन नेताओं के साथ पुलिसिया शालीनता का परिचय देते हुए उनको बेतहाशा यातनाएँ देने में मशरूफ़ है।
पिछले 2 महीनों से गोरखपुर से लखनऊ तक हर स्तर पर मजदूरों ने अपनी बात पहुँचाई परन्तु सर्वजन हिताय की बात करने वाली सरकार कान में तेल डालकर सो रही है। मानवधिकारों की पैरवी करने वाला मानवाधिकार आयोग, तमाम एन.जी.ओ., कलम घसीट बुद्धिजीवी, असमानता-अन्याय व शोषण की बात करने वाले सामाजिक संगठन खामोश हैं (कुछ अपवादों को छोड़कर)। भारतीय लोकतन्त्र का चैथा स्तम्भ मीडिया जो ऐश्वर्या राय के छींक आने पर खबर को फ्रंट पेज पर छापता है परन्तु इस अन्यायपूर्ण आन्दोलन को छापने व प्रसारित करने की जहमत भी नहीं उठा रहा है तथा ये खबरें गोरखपुर के स्थानीय अखबारों में ही जगह पा रही है। इससे साफ पता चलता है कि सामाजिक शक्तियों की चुप्पी व मीडिया का जनान्दोलन के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया शासक वर्गों को अपनी स्थिति मजबूत करने का आधार प्रदान कर रहा है।
सन 2000 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने गणतन्त्र दिवस के अवसर पर राष्ट्र के नाम अपने सन्देश में कहा था कि लम्बे समय से कष्ट उठा रहे लोगों का धीरज चुक रहा है। उनके गुस्से के विस्फोट से सावधान हो जाएँ। इसीलिए राज्य मशीनरी भी आने वाले जनसंघर्षों से निपटने के लिए व्यापक तैयारी कर रही है। आखिर क्या कारण है कि पिछले एक दशक में यू.पी. पुलिस में ही सबसे ज्यादा भर्तियाँ हुई, अन्य विभागों में क्यों नहीं। अगर तर्क दिया जाए कि अपराधों को रोकने के लिए तो पिछले 10 वर्ष के आंकड़े राज्य में क्राइम की बढ़ोत्तरी का संकेत करते हैं न कि कम होने का।
गोरखपुर आन्दोलन भी उन्हीं जनसंघर्षों की सुगबुगाहट का सन्देश है और गोरखपुर जिला प्रशासन उस पर नक्सलवाद का ठप्पा लगाकर बदनाम करने की कोशिशों में लगा हुआ है क्योंकि आन्दोलन पर एक बार यदि माओवाद की मुहर लग गई तो बाकी सारी चीजों के सन्दर्भ व अर्थ अपने आप बदल जायेंगे। आन्दोलन को माओवादी आन्दोलन साबित करके या उसके नेताओं को माओवादी साबित करने के पीछे एक दृष्टिकोण यह भी है कि बाहरी समुदाय व आन्दोलन के बीच अलगाव की एक मानसिक खाई बन जाए तथा लोग उसे नैतिक समर्थन न दे।

10.17.2009

गरीबों-दलितों की ''मसीहा'' मायावती का आतंकराज, मज़दूर कार्यकर्ताओं पर फर्जी मुकदमे

नक्‍सलवाद के नाम पर पहले भी जनांदलनों को कुचलने और उनके नेताओं को फर्जी मुकदमों में फंसाने की खबरें आती रही हैं, लेकिन अक्‍सर ऐसी खबरें छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्‍ट्र  आदि से मिलती थीं। अब उत्तर प्रदेश का शासन-प्रशासन भी इसी हथकण्‍डे को अपनाने लगा है। परसों देर रात गोरखपुर में तीन मज़दूर कार्यकर्ताओं को फर्जी आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया। सूत्र बता रहे हैं कि जिस फैक्‍ट्री के मजदूर पिछले लगभग ढाई महीने से आन्‍दोलन कर रहे थे, उसके मालिक की शह पर प्रशासन उस आन्‍दोलन की अगुवाई करने वालों को नक्‍सलवादी घोषित करके उन पर राजद्रोह का मामला दायर करने की तैयारी कर रहा है। इस मामलें में बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और छात्रों-पत्रकारों ने एक अपील जारी की है। आप इस अपील को पढ़ें और  जल्‍द से जल्‍द संबंधित नेताओं-अधिकारियों से अपना विरोध दर्ज़ कराएं। फोन और फैक्‍स नंबर इस अपील के अंत में दिए गए हैं।
...................................................................


मज़दूर संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों के नाम अपील


मज़दूर आन्दोलन को कुचलने के लिए तीन नेतृत्वकारी युवा कार्यकर्ता झूठे 
आरोपों में गिरफ्तार, 9 मजदूरों पर फर्जी मुकदमे कायम



  • मामूली धाराओं में भी  22 अक्टूबर तक ज़मानत देने से इंकार, हिरासत में पिटाई
  • ''नक्सली'' ''आतंकवादी'' होने का आरोप लगाकर लंबे समय तक बंद रखने की तैयारी
  • मालिकों की शह पर पुलिसिया आतंकराज


पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में करीब ढाई महीने से चल रहे मज़दूर आन्दोलन को कुचलने के लिए प्रशासन ने फैक्ट्री मालिकों के इशारे पर एकदम नंगा आतंकराज कायम कर दिया है। गिरफ्तारियां, फर्जी मुकदमे, मीडिया के जरिए दुष्प्रचार व धमकियों के जरिए मालिक-प्रशासन-नेताशाही का गंठजोड़ किसी भी कीमत पर इस न्यायपूर्ण आंदोलन को कुचलने पर आमादा है। 15 अक्टूबर की रात संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा के तीन नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं - प्रशांत, प्रमोद कुमार और तपीश मैंदोला को गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस उन पर शांति भंग जैसी मामूली धाराएं ही लगा पाई लेकिन फिर भी 16 अक्टूबर को सिटी मजिस्ट्रेट ने उन्हें ज़मानत देने से इंकार करके 22 अक्टूबर तक जेल भेज दिया। इससे पहले 15 अक्टूबर की रात ज़िला प्रशासन ने तीनों नेताओं को बातचीत के लिए एडीएम सिटी के कार्यालय में बुलाया जहां काफी देर तक उन्हें जबरन बैठाये रखा गया और उनके मोबाइल फोन बंद कर दिये गये। उन्हें आन्दोलन से अलग हो जाने के लिए धमकियां दी गईं। इसके बाद उन्हें कैंट थाने ले जाया गया जहां उनके साथ मारपीट की गई। इसके अगले दिन मालिकों की ओर से इन तीन नेताओं के अलावा 9 मजदूरों पर जबरन मिल बंद कराने, धमकियां देने जैसे आरोपों में एकदम झूठा मुकदमा दर्ज कर लिया गया। गिरफ्तारी वाले दिन से ही जिला प्र्रशासन के अफसर ऐसे बयान दे रहे हैं कि इन मजदूर नेताओं को ”माओवादी“ होने की आशंका में गिरफ्तार किया गया है और उनके पास से ”आपत्तिजनक“ साहित्य आदि बरामद किया गया है। उल्लेखनीय है कि गोरखपुर के सांसद की अगुवाई में स्थानीय उद्योगपतियों और प्रशासन की ओर से शुरू से ही आन्दोलन को बदनाम करने के लिए इन नेताओं पर ‘‘नक्सली’’ और ‘‘बाहरी’’ होने का आरोप लगाया जा रहा है। कुछ अफसरों ने स्थानीय पत्रकारों को बताया है कि पुलिस इन नेताओं को लंबे समय तक अंदर रखने के लिए मामला तैयार कर रही है।
इससे पहले 15 अक्टूबर को जिलाधिकारी कार्यालय में अनशन और धरने पर बैठे मजदूरों पर हमला बोलकर उन्हें वहां से हटा दिया गया। महिला मजदूरों को घसीट-घसीटकर वहां से हटाया गया। प्रशांत, प्रमोद एवं तपीश को ले जाने का विरोध कर रही महिलाओं के साथ मारपीट की गई। ये मजदूर स्वयं प्रशासन द्वारा पिछले 24 सितम्बर को कराये गये समझौते को लागू कराने की मांग पिछले कई दिनों से प्रशासन से कर रहे थे। 3 अगस्त से जारी आन्दोलन के पक्ष में जबर्दस्त जनदबाव के चलते प्रशासन ने समझौता कराया था लेकिन मिलमालिकों ने उसे लागू ही नहीं किया। समझौते के बाद दो सप्ताह से अधिक समय बीत जाने के बावजूद आधे से अधिक मजदूरों को काम पर नहीं लिया गया है। थक हारकर 14 अक्टूबर से जब वे डीएम कार्यालय पर अनशन पर बैठे तो प्रशासन पूरी ताकत से उन पर टूट पड़ा। मॉडर्न लेमिनेटर्स लि. और मॉडर्न पैकेजिंग लि. के इन मजदूरों की मांगें बेहद मामूली हैं। वे न्यूनतम मजदूरी, जॉब कार्ड, ईएसआई कार्ड देने जैसे बेहद बुनियादी हक मांग रहे हैं, श्रम कानूनों के महज़ कुछ हिस्सों को लागू करने की मांग कर रहे हैं। बिना किसी सुविधा के 12-12 घंटे, बेहद कम मजदूरी पर, अत्यंत असुरक्षित और असहनीय परिस्थितियों में ये मजदूर आधुनिक गुलामों की तरह से काम करते रहे हैं। गोरखपुर के सभी कारखानों में ऐसे ही हालात हैं। किसी कारखाने में यूनियन नहीं है, संगठित होने की किसी भी कोशिश को फौरन कुचल दिया जाता है। पहली बार करीब पांच महीने पहले तीन कारखानों के मजूदरों ने संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा बनाकर न्यूनतम मजदूरी देने और काम के घंटे कम करने की लड़ाई लड़ी और आंशिक कामयाबी पायी। इससे बरसों से नारकीय हालात में खट रहे हजारों अन्य मजदूरों को भी हौसला मिला। इसीलिए यह मजदूर आन्दोलन इन दो कारखानों के ही नहीं बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के तमाम उद्योगपतियों को बुरी तरह खटक रहा है और वे हर कीमत पर इसे कुचलकर मजदूरों को ”सबक सिखा देना“ चाहते हैं। कारखाना मालिक पवन बथवाल दबंग कांगे्रसी नेता है और भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ का उसे खुला समर्थन प्राप्त है। प्रशासन और श्रम विभाग के अफसर बिके हुए हैं। शहर में आम चर्चा है कि मालिकों ने अफसरों को खरीदने के लिए दोनों हाथों से पैसा लुटाया है। मजदूरों ने पिछले दो महीनों के दौरान गोरखपुर से लेकर लखनऊ तक, हर स्तर पर बार-बार अपनी बात पहुंचायी है लेकिन ”सर्वजन हिताय“ की बात करने वाली सरकार कान में तेल डालकर सो रही है। मजदूरों और नेतृत्व के लोगों को डराने-धमकाने, फोड़ने की हर कोशिश नाकाम हो जाने के बाद पिछले महीने से यह सुनियोजित मुहिम छेड़ दी गई कि इस आन्दोलन को ‘‘माओवादी आंतकवादी’’ और ‘‘बाहरी तत्व’’ चला रहे हैं और यह ”पूर्वी उत्तर प्रदेश को अस्थिर करने की साज़िश“ है। इससे बड़ा झूठ कोई नहीं हो सकता।
संघर्ष मोर्चा में सक्रिय ये तीनों ही कार्यकर्ता जनसंगठनों से लंबे समय से जुड़कर काम करते रहे हैं। प्रशांत और प्रमोद विगत कई वर्षों से गोरखपुर के छात्रों और नौजवानों के बीच सामाजिक काम करते रहे हैं। पिछले वर्ष ‘गीडा’ के एक कारखाने के मज़दूरों तथा नगर महापालिका और विश्वविद्यालय के सफाई कर्मचारियों के आन्दोलनों में भी उनकी सक्रियता थी। शहर के अधिकांश प्रबुद्ध नागरिक और मज़दूर उन्हें जानते हैं। तपीश मैंदोला मज़दूर अखबार ‘बिगुल’ से जुड़े हैं और श्रम मामलों के विशेषज्ञ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। कई वर्षों से वे नोएडा, गाज़ियाबाद के सफाई मज़दूरों और फैक्ट्री मज़दूरों के बीच काम करते रहे हैं। इन दिनों उनके नेतृत्व में मऊ, मैनपुरी और इलाहाबाद में नरेगा के मज़दूर अपनी माँगों को लेकर संगठित हो रहे हैं। तपीश के नेतृत्व में दिल्ली और आसपास से मज़दूरों के खोये हुए बच्चों के बारे में प्रस्तुत बहुचर्चित रिपोर्ट पर इन दिनों दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई चल रही है। ये तीनों साथी जन-आधारित राजनीति के पक्षधर हैं और आतंकवाद की राजनीति के विरोधी हैं। किसी भी जनान्दोलन को ‘‘माओवाद’’ का ठप्पा लगाकर कुचलने के नये सरकारी हथकंडे का यह एक नंगा उदाहरण है। इसका पुरज़ोर विरोध किया जाना बेहद ज़रूरी है। यह तमाम इंसाफ़पसंद नागरिकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, छात्र-युवा कार्यकर्ताओं को सत्ता की सीधी चुनौती है! हमारी आपसे अपील है कि हर संभव तरीके से अपना विरोध दर्ज कराए। 
आप क्या कर सकते हैं - मज़दूर आन्दोलन के दमन और मजदूर नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री, प्रमुख सचिव, श्रम और श्रम मंत्री को, तथा गोरखुपर के जिलाधिकारी को फैक्स, ईमेल या स्पीडपोस्ट से विरोधपत्र भेजें। ईमेल की एक प्रति कृपया हमें भी फारवर्ड कर दें। - इस मुद्दे पर बैठकें तथा धरना-विरोध प्रदर्शन आयोजित करें। - अपने संगठनों की ओर से अपनी ओर से इसके विरोध में बयान जारी करें और हस्ताक्षर अभियान चलाकर उपरोक्त पतों पर भेजें। - दिल्ली में 21 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश भवन पर आयोजित विरोध प्रदर्शन में शामिल हों।

गोरखपुर के मजदूर आन्दोलन के समर्थक बुद्धिजीवियों, आम नागरिकों, छात्रों-युवाओं की ओर से,
कात्यायनी, सत्यम, मीनाक्षी, रामबाबू, कमला पाण्डेय, संदीप, संजीव माथुर, जयपुष्प, कपिल स्वामी, अभिनव, सुखविन्दर, डा. दूधनाथ, शिवार्थ पाण्डेय, अजय स्वामी, शिवानी कौल, लता, श्वेता, नेहा, लखविन्दर, राजविन्दर, आशीष, योगेश स्वामी, नमिता, विमला सक्करवाल, चारुचन्द्र पाठक, रूपेश राय, जनार्दन, समीक्षा, राजेन्द्र पासवान...




पतों एवं फ़ोन-फ़ैक्‍स नंबरों की सूची:




Commissioner 0551 - 2338817 (Fax)
Office of the Commissioner
Collectrate
Gorakhpur - 273001

Commissioner: PK Mahanty - 9936581000


District Magistrate 0551 - 2334569 (Fax)
Office of the District Magistrate
Collectrate
Gorakhpur - 273001

DM: AK Shukla - 9454417544

City Magistrate: Akhilesh Tiwari - 9454416211


Dy Inspector General of Police 0551 - 2201187 / 2333442
Cantt.
Gorakhpur:

Dy. Labour Commissioner,
Labour Office
Civil Lines
Gorakhpur-273001

DLC, ML Choudhuri - 9838123667


Governor, BL Joshi
Raj Bhavan, Lucknow, 226001
0522-2220331, 2236992, 2220494
Fax: 0522-2223892
Special Secretary to Governor: 0522-2236113

Km. Mayawati,
Chief Minister
Fifth Floor, Secretariat Annexe
Lucknow-226001
0522 - 2235733, 2239234 (Fax)

2236181  2239296
2215501 (Phone: (Office) 2236838 2236985
Phone: (Res)


Shri Badshah Singh : 0522 - 2238925 (Fax)
Labour Minister,
Department of Labour
Secretariat
Lucknow

Principal Secretary, Labour 0522 - 2237831 (Fax)
Department of Labour
Secretariat
Lucknow - 226001

10.07.2009

फ्रांसिस की नृशंस हत्‍या: यह क्रांति नहीं आतंकवाद है

''माओवादियों'' ने अगवा किए इंस्‍पेक्‍टर फ्रांसिस की गला काट कर नृशंस हत्‍या कर दी, और वे इसे संभवत: रेड टेरर का नाम दे रहे होंगे। लेकिन उनकी इस हरकत की जितनी निंदा की जाए वह कम है। क्रांति का मतलब थाने, चौकियां, रेल प‍टरियां, पुल उड़ाना नहीं होता, न ही एक दो पुलिसवालों की इस तरह हत्‍या करने को क्रांति कहा जा सकता है। सत्ता दमन करती है तो जनता को जागरूक, गोलबंद और संगठित कीजिए, राजसत्ता के दमन का प्रतिरोध कीजिए, यह नहीं कर सकते तो इस तरह एक दो पुलिसवालों की पाशविक हत्‍या को क्रांति का नाम मत दीजिए...
एक तरफ यह बिल्‍कुल सही है कि राज्‍यसत्ता द्वारा जनता के अधिकारों का हनन किए जाने का मुखर विरोध किया जाना चाहिए, नक्‍सलवाद के नाम पर या यह लेबल लगाकर होने वाले नागरिक अधिकारों के हनन का प्रतिरोध होना ही चाहिए। जल-जंगल-जमीन से आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा है, ये कॉरपोरेट घरानों को दोहन के लिए सौंपे जा रहे हैं, तो बेशक उसका विरोध होना चाहिए। लेकिन दूसरी तरफ इसके विरोध के नाम पर किसी की गर्दन काटने को कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता। वैसे तो माओवाद के नाम पर जिस चीज को अमल में लाया जा रहा है, वह माओवाद भी नहीं है, उसे सिर्फ और सिर्फ वामपंथी आतंकवाद ही कहा जा सकता है। दरअसल यह मध्‍यवर्गीय दुस्‍साहसवाद से पैदा हुई निराशा का नतीजा है। संभवत: इनके लिए जंगल और आदिवासी ही पूरा भारत हैं, और आतंकवादी कार्रवाइयां इनका तरीका है। जनता को जागरूक और गोलबंद करने के दीर्घकालिक और मुश्किल कार्य की जगह क्रान्ति का शोर्टकट केवल आतंकवाद को ही पैदा कर सकता है।
शोर्टकट का रास्‍ता पकड़ने वाली सोच के ऐसे कामों की वजह से ही जनसंघर्षों के साथ खड़े मानवाधिकार, नागरिक-अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोगों पर हमला करने का मौका सत्ताधारियों और उसके हिमायतियों को मिल जाता है। लोगों के अधिकारों पर मुंह न खोलने वाले ये झींगुर भी ऐसी घटनाओं पर आम जन के साथ खड़ी राजनीति और सभी लोगों पर हमला बोल देते हैं। इसलिए जरूरी है कि जनसंघर्षों की वास्‍तविक राजनीति को इस आतंकवादी राजनीति से अलग करके हर मुद्दे पर (जैसे कि यह घटना) इसकी सोच के साथ सामने लाया जाए ताकि लोग भी सही और गलत राजनीति को पहचान सकें।

10.03.2009

बर्बरता की ढाल ठाकरे

मुंबई के दंगे हों या उत्तर भारत के लोगों के खिलाफ़ जहर उगलने का मामला हो या शिवाजी के नाम पर बवाल; ठाकरे परिवार हमेशा चर्चा में रहा है, जय महाराष्‍ट्रा के नाम पर शिव सेना और मनसे की गुंडागर्दी भी जगजाहिर है। कल करण जौहर को राज ठाकरे से माफी मांगनी पड़ गयी। दरअसल, उन्‍होंने अपनी नयी फिल्‍म में मुंबई की जगह बाम्‍बे शब्‍द का इस्‍तेमाल किया है, उसी पर राज ठाकरे बिगड़ गये। वैसे, हाल ही में शिव सेना के मुखपत्र सामना में आरोप लगाया गया कि राज ठाकरे विधानसभा चुनाव में जिन्‍ना की भूमिका निभा रहे हैं क्‍योंकि वह मराठी मतों का विभाजन कर रहे हैं। खैर, ठाकरे परिवार की लीला अपरंपरा है, यही वजह थी कि बाबा नागार्जुन ने बाल ठाकरे पर एक कविता ही लिख डाली। फिलहाल आप वह कविता पढ़ि‍ए।


बर्बरता की ढाल ठाकरे


बाल ठाकरे! बाल ठाकरे!
कैसे फासिस्‍टी प्रभुओं की --
गला रहा है दाल ठाकरे!
अबे संभल जा, वो आ पहुंचा बाल ठाकरे !
सबने हां की, कौन ना करे !
छिप जान, मत तू उधर ताक रे!
शिव-सेना की वर्दी डाटे जमा रहा लय-ताल ठाकरे!
सभी डर गए, बजा रहा है गाल ठाकरे !
गूंज रही सह्यद्रि घाटियां, मचा रहा भूचाल ठाकरे!
मन ही मन कहते राजा जी; जिये भला सौ साल ठाकरे!
चुप है कवि, डरता है शायद, खींच नहीं ले खाल ठाकरे !
कौन नहीं फंसता है, देखें, बिछा चुका है जाल ठाकरे !
बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे!
बर्बरता की ढाल ठाकरे !
प्रजातंत्र के काल ठाकरे!
धन-पिशाच के इंगित पाकर ऊंचा करता भाल ठाकरे!
चला पूछने मुसोलिनी से अपने दिल का हाल ठाकरे !
बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे!
नागार्जुन
(जनयुग, 7 जून 1970)





दोनों कार्टून यहां और यहां से साभार लिए गए हैं।


8.16.2009

क्‍या तुम्‍हें देश के आज़ाद होने की खुशी नहीं है?

स्‍वतंत्रता दिवस के मौके पर एक मित्र को उनके परिचित ने बधाई दी। इस पर उन्‍होंने कुछ जवाब दिया तो उनके परिचित का कहना था कि क्‍या तुम्‍हें देश के आज़ाद होने की खुशी नहीं है...इस सवाल पर मित्र ने जो जवाब भेजा उसकी एक प्रति मुझे भी मिली, उसे हूबहू यहां पेश कर रहा हूं, अब आप इसे पढ़ कर खुद राय बनाइए:

प्रिय मित्रो,

मैं आपको यह मेल इसलिए कर रहा हूं क्‍योंकि इससे पहले वाला मेल पढ़ने के बाद, मेरे एक मित्र ने मुझसे सवाल किया कि क्‍या तुम्‍हें देश के आज़ाद होने की खुशी नहीं है। उसने मुझसे सिर्फ हां या ना में जवाब मांगा।

मैंने सिर्फ हां या ना में जवाब देने से इंकार करते हुए कहा, ''जैसे तुम्‍हें अपना सवाल स्‍पष्‍ट तरीके से पूछने का हक है, वैसे ही मुझे भी अपना जवाब स्‍पष्‍ट ढंग से विस्‍तारपूर्वक देने का हक है। और मेरा जवाब है कि हमें आज़ादी तो मिली है, लेकिन अधूरी। मुझे इस बात की खुशी है कि हमने विदेशी गुलामी के जुए को संघर्षों और शहादतों की बदौलत अपने सिर से उतार फेंका। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम इससे संतुष्‍ट हो जाएं। हमारे शहीदों ने ऐसी आज़ादी का सपना देखा था जहां इंसान द्वारा इंसान का शोषण ख़त्‍म हो जाए, उन्‍होंने व्‍यापक आवाम की आज़ादी का सपना देखा था। तो जब तक हमें सच्‍चे मायनों में आज़ादी नहीं मिल जाती तब तक हम किस बात की खुशियां मनाएं। पिछले 63 सालों से खुशियां ही मनाते आ रहे हैं। क्‍या साल-दर-साल मनाई जाने वाली खुशियों के बाद देश की लगातार बद से बदतर होती हालत को देखकर तुम्‍हारा दिल बगावत नहीं कर उठता कि बस अब और खुशियां नहीं मनाएंगे। भारत में बेरोजगारी, कुपोषण, अशिक्षा, दहेज-हत्‍या, बालिका-भ्रूण हत्‍या, अंधविश्‍वास, जात-पांत की कुरीतियां, सांप्रदायिकता, स्‍वास्‍थ्‍य की दयनीय स्थिति, बिजली, पानी, आवास सहित बुनियादी सुविधाओं तक के घोर अभाव, बलात्‍कारों, मानवीय गरिमा और आत्‍मसम्‍मान पर रोज-ब-रोज लगने वाली चोटों के आंकड़ों के बारे में क्‍या आप मुझसे कम जानते हैं? ये तो चंद बानगियां हैं, समस्‍याएं आप मुझसे ज्‍यादा गिनवा सकते हैं। क्‍या इनमें से हरेक समस्‍या अपने आप में काफी नहीं कि हम बगावत कर दें। गरीबी, भूख, अशिक्षा, इंसानियत, ईमानदारी जैसे शब्‍द घिस चुके हैं। हम इन्‍हें बिना कुछ महसूस किए हुए बोलते हैं। जनता की संपत्ति की बदौलत शिक्षा अर्जित करते हैं, और फिर सामाजिक जिम्‍मेदारियों से कन्‍नी काटने के लिए तर्क गढ़ते हैं। मेरे दोस्‍त, मैं भाषण नहीं झाड़ना चाहता। क्‍योंकि तुम्‍हारे पास शायद ये सब सुनने का वक़्त न हो। तुमने तो दरअसल इसलिए पूछ लिया था कि अगर तुम इस आज़ादी के झूठा होने, अधूरा होने को स्‍वीकार कर लेते तो तुम्‍हारी आत्‍मा तुम्‍हारे सामने यह सवाल खड़ा कर देती कि तो फिर इस आज़ादी को मुकम्‍मल बनाने के लिए तुम क्‍या कर रहे हो। और दरअसल, तुम न तो मेरा जवाब सुनना चाहते हो, और न ही खुद जवाब तलाशना चाहते हो। क्‍योंकि तुम सुख-चैन के साथ, बिना किसी पछतावे के जिंदगी बिताना चाहते हो। लेकिन तुम ऐसा कर नहीं पाओगे, क्‍योंकि आए दिन अखबारों की सुर्खियां और हजारों घटनाओं में से छनकर आती चंद एक घटनाएं तुम्‍हें इस बात का अहसास दिलाती रहेंगी कि 'कैसी ख़ुशियां, आजादी का कैसा शोर, राज कर रहे कफ़नखसोट-मुर्दाखोर'।''

मेरे दिल में ढेरों बातें उमड़-घुमड़ रही थी। मैं संक्षेप में कहना चाहता था, लेकिन खु़द को रोक भी नहीं पा रहा था। पर मेरे दोस्‍त ने मुझसे कहा कि ऐसा करते हैं कि कभी आमने-सामने बैठकर इस पर बात करेंगे, क्‍योंकि ये लंबी चर्चा का विषय है। उसकी बात जरा भी ग़लत नहीं थी, सिवाय इसके कि दरअसल यह एक बात कहकर हम चर्चा से बच जाते हैं और वो आगे वो शुभ घड़ी कभी भी नहीं आती जबकि हम इस पर चर्चा कर सकें।

वह शुभ घड़ी जल्‍दी ही आए, इसी उम्‍मीद के साथ,

आपका,

चारु चन्‍द्र

आजाद हिन्‍दुस्‍तान के बारे में कुछ कवियों-शायरों के अल्‍फ़ाज़

आजाद हिन्‍दुस्‍तान के बारे में कुछ कवियों-शायरों की नज़्मों-कविताओं के अंश यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं। शुरुआत करते हैं फ़ैज़ से। अगस्‍त 1947 में आज़ादी मिलने के कुछ ही समय बाद मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ ने इस आज़ादी को 'दाग-दाग उज़ाला' कहा। उन्‍होंने कहा:
ये दाग़-दाग़ उज़ाला, ये शबगुज़ीदा सहर

वो इन्‍तज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं, जिसकी आरजू लेकर

चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं

फ़लक के दश्‍त में तारों की आख़री मंज़ि‍ल

कहीं तो होगा शबे सुस्‍त मौज का साहिल

कहीं तो जा के रुकेगा, सफ़ीन-ए-ग़मे-दिल..........

अली सरदार जाफ़री ने इस आजादी के बारे में लिखा :


कौन आज़ाद हुआ

किसके माथे से ग़ुलामी की सियाही छूटी

मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का

मादरे-हिन्‍द के चेहरे पे उदासी वही

कौन आज़ाद हुआ...


खंजर आज़ाद है सीनों में उतरने के लिए

मौत आज़ाद है लाशों पे गुज़रने के लिए

कौन आज़ाद हुआ...



जब आज़ाद भारत की सरकार ने हकों-अधिकारों की बात करने वालों और जनांदोलनों को कुचलने में अंग्रेजों को भी मात देनी शुरु कर दी, तो शंकर शैलेन्‍द्र ने लिखा :

भगतसिंह इस बार न लेना

काया भारतवासी की

देशभक्ति के लिए आज भी

सज़ा मिलेगी फांसी की



आजादी को सिरे से नकारते हुए इप्‍टा ने आम लोगों की आवाज को अल्‍फाज़ दिए :

तोड़ो बंधन तोड़ो

ये अन्‍याय के बंधन

तोड़ो बंधन तोड़ो बंधन तोड़ो बंधन तोड़ो...

हम क्‍या जानें भारत भी में भी आया है स्‍वराज

ओ भइया आया है स्‍वराज

आज भी हम भूखे-नंगे हैं आज भी हम मोहताज

ओ भइया आज भी हम मोहताज


रोटी मांगे तो खायें हम लाठी-गोली आज

थैलीशाहों की ठोकर में सारे देश की लाज


ऐ मज़दूर और किसानो, ऐ दुखियारे इन्‍सानों

ऐ छात्रो और जवानो, ऐ दुखियारे इन्‍सानों

झूठी आशा छोड़ो...

तोड़ो बंधन तोड़ा...



ख़लीलुर्रहमान आज़मी ने आज़ादी मिलने के दावे को सिरे से नकार दिया:

अभी वही है निज़ामे कोहना अभी तो जुल्‍मो सितम वही है

अभी मैं किस तरह मुस्‍कराऊं अभी रंजो अलम वही है


नये ग़ुलामो अभी तो हाथों में है वही कास-ए-गदाई

अभी तो ग़ैरों का आसरा है अभी तो रस्‍मो करम वही है


अभी कहां खुल सका है पर्दा अभी कहां तुम हुए हो उरियां

अभी तो रहबर बने हुए हो अभी तुम्‍हारा भरम वही है


अभी तो जम्‍हूरियत के साये में आमरीयत पनप रही है

हवस के हाथों में अब भी कानून का पुराना कलम वही है


मैं कैसे मानूं कि इन खुदाओं की बंदगी का तिलिस्‍म टूटा

अभी वही पीरे-मैकदा है अभी तो शेखो-हरम वही है


अभी वही है उदास राहें वही हैं तरसी हुई निगाहें

सहर के पैगम्‍बरों से कह दो यहां अभी शामे-ग़म वही है




व्‍यंग्‍य कई बार भावनाओं-भावावेशों का अतिरेक तथा सांद्रतम गंभीरता की अभिव्‍यक्ति भी होती है। रघुवीर सहाय ने जन-गण-मन के 'अधिनायक' के बारे में कहा :

राष्‍ट्रगीत में भला कौन वह

भारत भाग्‍य विधाता है

फटा सुथन्‍ना पहने जिसका

गुन हरचरना गाता है।

मखमल टमटम बल्‍लम तुरही

पगड़ी छत्र चंवर के साथ

तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर

जय-जय कौन कराता है।

पूरब पच्छिम से आते हैं

नंगे-बूचे नरकंकाल

सिंहासन पर बैठा, उने

तमगे कौन लगाता है।

कौन-कौन है वह जन-गण-मन

अधिनायक वह महाबली

डरा हुआ मन बेमन जिसका

बाजा रोज बजाता है।


विष्‍णु नागर ने तो राष्‍ट्रगीत की वैधता पर ही सवाल खड़ा कर दिया :

जन-गण-मन अधिनायक जय हे

जय हे, जय हे, जय जय हे

जय-जय, जय-जय, जय-जय-जय

जय-जय, जय-जय, जय-जय-जय

हे-हे, हे-हे, हे-हे, हे-हे, हे

हें-हें, हें-हें, हें-हें, हें

हा-हा, ही-ही, हू-हू है

हे-है, हो-हौ, ह-ह, है

हो-हो, हो-हो, हो-हौ है

याहू-याहू, याहू-याहू, याहू है

चाहे कोई मुझे जंगली कहे।



तो क्‍या लाखों शहीदों की शहादतें बेकार गईं। नहीं, शहादतों ने हमें एक मुकाम तक पहुंचाया, और अब ये शहादतें आगामी संघर्ष-पथ पर हमारे लिए प्रेरणा-स्रोत है। शलभ श्रीराम सिंह ने लिखा :

तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर

निगाह डाल, सोच और सोचकर सवाल कर

किधर गये वो वायदे? सुखों के ख्‍वाब क्‍या हुए?

तुझे था जिनका इंतज़ार वो जवाब क्‍या हुए?


तू इनकी झूठी बात पर, न और ऐतबार कर

कि तुझको सांस-सांस का सही हिसाब चाहिए!


घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!

जवाब दर सवाल है कि इंक़लाब चाहिए!


अंत में, शहीदों की ओर से

शहादत थी हमारी इसलिए

कि आज़ादियों का बढ़ता हुआ सफीना

रुके न पल भर को!

पर ये क्‍या?

ये अंधेरा!

ये कारवां रुका क्‍यों है?

बढ़े चलो, अभी तो

काफिला-ए-इंक़लाब को

आगे, बहुत आगे जाना है!



दोस्‍तो, 1947 का 'दाग़-दाग़ उज़ाला' अब गहरे अंधेरे में तब्‍दील हो चुका है। हम सभी इस बात को जानते तो हैं, पर पता नहीं महसूस कितना करते हैं। खैर, अब भी अगर कोई आजादी की शुभकामनाएं दे, तो उसके लिए पेश है नागार्जुन की कविता :


किसकी है जनवरी, किसका अगस्‍त है?

कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्‍त है?


सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है

गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है

चोर है, डाकू है, झूठा-मक्‍कार है

कातिल है, छलिया है, लुच्‍चा-लबार है

जैसे भी टिकट मिला

जहां भी टिकट मिला

शासन के घोड़े पर वह भी सवार है

उसी की जनवरी छब्‍बीस

उसीका पन्‍द्रह अगस्‍त है

बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्‍त है...


कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है

कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्‍त है?

खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा

मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्‍त है

सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्‍त है

उसकी है जनवरी, उसी का अगस्‍त है


पटना है, दिल्‍ली है, वहीं सब जुगाड़ है

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है

फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है

फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

मास्‍टर की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

बच्‍चे की छाती में कै ठो हाड़ है!

देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!


मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है

पटना है, दिल्‍ली है, वहीं सब जुगाड़ है

फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है

फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है

महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है

ग़रीबों की बस्‍ती में उखाड़ है, पछाड़ है

धत् तेरी, धत् तेरी, कुच्‍छों नहीं! कुच्‍छों नहीं

ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है

ताड़ के पत्‍ते हैं, पत्‍तों के पंखे हैं

पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है

कुच्‍छों नहीं, कुच्‍छों नहीं...

ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!


किसकी है जनवरी, किसका अगस्‍त है!

कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्‍त है!

सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्‍त है

मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्‍त है

उसी की है जनवरी, उसी का अगस्‍त है...

8.11.2009

डीजीपी विश्‍वरंजन द्वारा इतिहास-दहन और सत्‍य भंजन

विश्‍वरंजन को छत्‍तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा का जवाब

छत्तीसगढ़ पुलिस के डीजीपी विश्‍वरंजन यह पद संभालने के बाद से ही मीडिया के कुछ चंपू-चाकर कलमघसीटों की मदद से सलवा जुडूम की दरिंदा मुहिम के पक्ष में और ''माओवादियों'' के बहाने विभिन्‍न जनांदोलनों और जनपक्षधर बुद्धिजीवियों के खिलाफ कुत्‍साप्रचार और झूठ का अभियान छेड़े हुए हैं। अब उन्‍होंने एक नया पैंतरा आज़माते हुए लेखकों-साहित्‍यकारों की गोलबंदी भी शुरू कर दी है। हिंदी के अनेक वरिष्‍ठ साहित्‍यकार पिछले दिनों इनके बुलावे पर प्रमोद वर्मा स्‍मृति समारोह में शिरकत भी कर आए। सबसे पहले युवा आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने एक खुला पत्र लिखकर इसका विरोध किया था, फिर आशुतोष कुमार ने जनसत्ता (3 अगस्‍त) की टिप्‍प्‍णी 'यह सांस्‍कृतिक सलवा जुडूम है' में विश्‍वरंजन के पाखंड और झूठ को नंगा किया था, जिसे धीरेश ने अपने ब्‍लॉग पर पोस्‍ट किया था।

इसी सिलसिले में याद आया कि पिछले साल छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा द्वारा विश्‍वरंजन को दिए गए ज़बर्दस्‍त जवाब की प्रति रायपुर के एक पत्रकार मित्र के माध्‍यम से मिली थी। अगस्‍त 2007 में 'छत्तीसगढ़' अखबार में सात किश्‍तों में विश्‍वरंजन का साक्षात्‍कार छपा था जिसमें उन्‍होंने सलवा जुडूम के पक्ष में ढेरों तर्क देने के साथ ही छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा और अन्‍य जनसंगठनों तथा मानवाधिकार व नागरिक अधिकार कर्मियों तक के खिलाफ जमकर झूठ उगला था। छत्तीसगढ़ के कुछ बुद्धिजीवियों ने इसके खिलाफ अखबारों में लेख भी लिखे लेकिन ज़्यादातर इतने पिलपिले थे कि विश्‍वरंजन ने उन्‍हें पटरा कर दिया। 17 मार्च 2008 को नई दुनिया में एक बयान में विश्वरंजन ने फिर से शहीद शंकर गुहा नियोगी के खिलाफ अनर्गल आरोप लगाए। इसके बाद छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने एक लंबा लेख लिखकर न केवल विश्‍वरंजन के एक-एक झूठ का पर्दाफ़ाश किया बल्कि बौद्धिकता के आवरण में लिपटे उनके तमाम ख़तरनाक तर्कों का ऐसा करारा जवाब दिया कि उनकी बोलती ही बंद हो गई। बताते हैं कि छ.मु.मो. ने इस लेख की 25-30 हज़ार प्रतियां बंटवाई। कुछ दिन बाद छ.मु.मो. ने विश्‍वरंजन की पोल खोलते हुए एक और पर्चा जारी किया। पत्रकार मित्र के अनुसार ऐसा करारा जवाब पाने की डीजीपी महोदय को उम्‍मीद नहीं थी। उन्‍हें ऐसा सदमा लगा कि कुछ दिन की छुट्टी लेकर दिल्‍ली चले गए।

उन दोनों पर्चों की पीडीएफ फाइलों के लिंक देने के साथ ही दोनों पर्चे इसी पोस्‍ट में नीचे भी दे रहा हूं। पहला पत्र थोड़ा लंबा है लेकिन अपने बॉस की तरफ़ से जयप्रकाश मानस (प्रमोद वर्मा संस्‍थान के सचिव और डीजीपी के भोंपू) ने जो लंबा खर्रा पंकज चतुर्वेदी के जवाब में लिख मारा, और आशुतोष कुमार के जनसत्ता में छपे लेख के जवाब में राम पटवा विश्‍वरंजन और सलवा-जुडूम का बचाव करते हुए जिस टिप्‍पणी में इस हद तक गुजर गए हैं कि पुलिसवालों द्वारा आदिवासी युवतियों के बलात्‍कार को मामूली बताया है, उससे तो छोटा ही है।



CMM 12


CMM

------------------------------------------------------------------------------------------


7.30.2009

मजदूरी मांगने पर पिटवाया मेट्रो कामगार संघर्ष समिति के उपाध्‍यक्ष को

मजदूरी मांगी तो नंगा कर पिटवाया, पुलिस ने रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की

नई दिल्ली। बुधवार दिल्‍ली मेट्रो के एक ठेकेदार ने मजदूरी मांगने पर मेट्रो कामगार संघर्ष समिति के उपाध्‍यक्ष को न केवल बंधक बना लिया बल्कि बंद कमरे में नंगा कर गुण्डो से पिटवाया। हैवानियत की हद तो तब हो गई जब उसे निर्वस्त्र कर उसके कूल्हों पर डंडे से प्रहार किए गए और फिर वही डंडा उसकी टांगो में फंसाकर उसे मुर्गा बनाकर दौड़ाया गया। बाद में उसे फंदे पर लटका कर जान से मारने की कोशिश भी की गई। मजदूर नेता का कसूर केवल इतना था कि उसने न्यूनतम मजदूरी व छुट्टी की मांग की थी। विडंबना यह है कि घटना के 24 घंटे बाद भी पुलिस ने मामला नहीं दर्ज किया है।
यह घटना कल शाम मेट्रो के नजफगढ़ डिपो के पीछे हुई जहां एक पुराने गैराज में मेट्रो के सफाई कर्मचारी विपिन शाह को लगभग छह घंटे तक बंधक बना कर पीटा गया। पीड़ित विपिन शाह द्वारका मेट्रो स्टेशन पर वर्ष 2005 से सफाई कर्मचारी के रूप में ठेकेदार के अधीन कार्य कर रहा था। पिछले वर्ष नवंबर में सफाई का ठेका एराईस कारपोरेट सर्विस प्राइवेट लिमिटेड ने ले लिया। विपिन के अनुसार नवंबर से मार्च माह तक वह इसी कंपनी के अधीन कार्य कर रहा था, मार्च में जब उसने कंपनी से न्यूनतम मजदूरी व साप्ताहिक अवकाश की मांग की तो उसे नौकरी से निकाल दिया गया। न्याय के लिए विपिन ने श्रम विभाग का दरवाजा खटखटाया लेकिन वहां भी उसे न्याय नहीं मिला।
ठेकेदार कंपनी को जब विपिन के श्रम विभाग में जाने की सूचना मिली तो कल शाम लगभग 4 बजे ठेकेदार कंपनी के प्रोजेक्ट मैनेजर सुनील कुमार ने उसे उसकी मजदूरी देने के लिए फोन कर नजफगढ़ मेट्रो डिपो बुलाया। लगभग साढ़े चार बजे वह सुनील से मिलने जब डिपो पहुंचा तो वह उसे डिपो के पीछे एक सुनसान स्थल पर स्थित पुराने गैराज में ले जाया गया जहां तीन बदमाशों ने उसे जमकर पीटा। पहले तो उसके गले में रस्सी बांधकर उसे फंदा लगाने व उसके टुकड़े करके नजफगढ़ नाले में फेंकने की धमकी दी गई बाद में उसके सारे कपड़े उतरवा लिए गए। विपिन ने बताया कि रात्रि 10.30 बजे तक उसके साथ मारपीट होती रही। इसके बाद बदमाश उसे कमरे से बाहर लाए जहां से वह किसी तरह भाग निकला। बुधवार सुबह वह मेट्रो कामगार यूनियन के पदाधिकारियों के साथ राजौरी गार्डन मेट्रो थाने गया लेकिन इसे मेट्रो से बाहर का मामला बताकर वापस कर दिया। बाद में वह नजफगढ़ थाने पहुंचा जहां उसे दूसरे थाने का मामला बताकर लौटा दिया। इसके बाद वह थाना छांवला पहुंचा जहां पुलिस ने उसकी सिर्फ तहरीर लेकर उसकी चिकित्सीय जांच कराई।

7.19.2009

भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप

(हमारे प्रिय साथी अरविंद सिंह के निधन के एक वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। इस मौके पर प्रथम अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी का आयोजन किया जा रहा है। अरविंद के जीवन के मकसद से जुड़े विषय भूमण्‍डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप पर यह संगोष्‍ठी हो रही है। सभी इच्‍छुक लोग सादर आमंत्रित हैं। विस्‍तृत आमंत्रण नीचे दे रहा हूं।)
प्रथम अरविन्द स्मृति संगोष्‍ठी
(24 जुलाई, 2009)
विषय: भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप

यह संगोष्ठी हम अपने प्रिय दिवंगत साथी अरविन्द सिंह की स्मृति में आयोजित कर रहे हैं। 24 जुलाई, 2009 साथी अरविन्द की पहली पुण्यतिथि है। गत वर्ष इसी दिन, उनका असामयिक निध्न हो गया था। तब उनकी आयु मात्र 44 वर्ष थी। वाम प्रगतिशील धारा के अधिकांश बुद्धिजीवी, क्रान्तिकारी वामधारा के राजनीतिक कार्यकर्ता और मज़दूर संगठनकर्ता साथी अरविन्द से परिचित हैं। वे मज़दूर अख़बार `बिगुल´ और वाम बौद्धिक पत्रिका `दायित्वबोध´ से जुड़े थे। छात्र-युवा आन्दोलन में लगभग डेढ़ दशक की सक्रियता के बाद वे मज़दूरों को संगठित करने के काम में लगभग एक दशक से लगे हुए थे। दिल्ली और नोएडा से लेकर पूर्वी उत्तरप्रदेश तक कई मज़दूर संघर्षों में वे अग्रणी भूमिका निभा चुके थे। अपने अन्तिम समय में भी वे गोरखपुर में सफाईकर्मियों के आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उनका छोटा किन्तु सघन जीवन राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा का अक्षय स्रोत है। `भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप´ जैसे ज्वलन्त और जीवन्त विषय पर संगोष्ठी का आयोजन ऐसे साथी को याद करने का शायद सबसे सही-सटीक तरीका होगा। हम सभी मज़दूर कार्यकर्ताओं, मज़दूर आन्दोलन से जुड़ाव एवं हमदर्दी रखने वाले बुद्धिजीवियों और नागरिकों को इस संगोष्ठी में भाग लेने के लिए गर्मजोशी एवं हार्दिक आग्रह के साथ आमंत्रित करते हैं। हमें विश्वास है कि आन्दोलन की मौजूदा चुनौतियों पर हम जीवन्त और उपयोगी चर्चा करेंगे।

स्‍थान: गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान सभागार, नई दिल्ली
सुबह 11 बजे से शाम 7.30 बजे तक
आयोजक: राहुल फ़ाउण्‍डेशन


7.13.2009

दिल्‍ली मेट्रो- एक और हादसा, पांच घायल

दिल्‍ली मेट्रो के निर्माण के दौरान कल एक हादसा हुए चौबीस घंटे ही गुज़रे होंगे की आज उसी स्‍थान पर एक और हादसा हो गया।
कल हुए हादसे में पांच लोगों की मौत के बाद दिल्‍लीवासियों में मेट्रो को लेकर जो डर था, वह कम नहीं हुआ था कि कल के हादसे के बाद का मलबा हटाते हुए आज एक और लांचर क्रेन पर गिर गया। इस दुर्घटना में पांच लोगों के घायल होने का समाचार है। राहत की बात है कि इसमें किसी की जान नहीं गयी। इधर केंद्रीय मंत्री रेड्डी ने गैमन इंडिया पर बैन लगाने की संभावना का बयान दिया है। लेकिन फिर मेट्रो प्रशासन को कटघरे में खड़ा नहीं किया गया। श्रम कानूनों के मुताबिक और खुद मेट्रो प्रशासन के अनुसार कानूनों के पालन और सुरक्षा की मुख्‍य जिम्‍मेदारी प्रथम नियोक्‍ता और मेट्रो की है। पता नहीं यह श्रीधरन साहब की छवि या रसूख है या कुछ और...जो बार-बार मेट्रो प्रशासन को किसी भी कटघरे में खड़ा नहीं होने दे रहा है।
मेट्रो के कर्मचारियों, निर्माण मजदूरों को बुनियारी अधिकार तक नहीं मिल रहे हैं, लेकिन इस पर कोई सवाल नहीं उठा रहा है। यह चिंता की बात है।

7.12.2009

उपलब्धियां हो तो श्रीधरन साहब की, वरना ठेकेदार कंपनी जिम्मेदार

अच्छा-अच्छा हमारा, और बुरा हो तो...। श्रीधरन साहब! गड़बड़ भी होगी तो मेट्रो प्रशासन और आप ही मुख्य तौर पर जिम्मे्दार होंगे।
जी हां, दिल्ली् मेट्रो में हादसे के बाद बयानबाजियां और श्रीधरन जी के इस्तीफे की नौटंकी (जिसे उम्मीद के अनुसार शीला दीक्षित ने नामंजूर कर दिया है) के बीच असली मुद्दा दब-सा गया। अभी तक दिल्ली मेट्रो के निर्माण या मेट्रो प्रचालन और परिसर में जितनी दुर्घटनाएं हुई हैं, उनके लिए निर्माण कंपनी, घायल व्‍यक्ति आदि को ही जिम्मे्दार ठहराया गया। आज भी श्रीधरन साहब ने ''नैतिक'' जिम्मेदारी तो ली, लेकिन साफ शब्दों में यह नहीं कहा कि अब तक हुई सभी दुर्घटनाओं की मुख्य जिम्मेदारी मेट्रो प्रशासन की है। यहां तक कि मेट्रो के प्रवक्ता और दिल्ली की मुख्यमंत्री तक ने सारी जिम्मेदारी गैमन इंडिया नाम की कंपनी पर डाल दी। लेकिन इस दुर्घटना सहित अब तक मेट्रो संबधी सभी दुर्घटनाओं और मौतों का मुख्य जिम्मेदार मेट्रो प्रशासन है।
श्रम कानूनों के अनुसार मज़दूरों, कर्मचारियों की सुरक्षा के साथ ही श्रम कानूनों के अमल की जिम्मेदारी भी प्रथम नियोक्ता की होती है, जो इस स्थिति में मेट्रो प्रशासन है। मेट्रों के कर्मचारियों के एक संगठन 'दिल्लीं मेट्रो कामगार संघर्ष समिति' ने आरटीआई दाखिल करके इस बारे में जानकारी मांगी तो मेट्रो प्रशासन ने स्वीकार किया कि मुख्य जिम्मेदारी मेट्रो प्रशासन की ही बनेगी। भले ही कर्मचारियों, मजदूरों की भर्ती ठेका कंपनी के जरिए हुई हो। ऐसे में इस घटना की जिम्मेदारी का पता लगाने के लिए जांच कमेटी बिठाने से पहले श्रीधरन साहब को स्पष्ट शब्दों में कहना चाहिए था कि इस घटना का जिम्मेदार मेट्रो प्रशासन है, जो उन्होंने नहीं कहा।
यही नहीं, इस घटना में भी जो मौत हुई हैं, उनकी मुख्य वजह सिर में लगी चोट रही। यदि मजदूरों को इंडस्ट्रियल हैलमेट दिए जाते तो मौत की संभावना कम होती। फिलहाल उन्हें जो टोपीनुमा चीज दी गई उस पर एक ईंट भी गिर जाये तो टूट जाएगी तो वह पिलर का वजन कैसे सह सकती थीं।
घटना के बाद श्रीधरन साहब ने जो प्रेसवार्ता बुलायी और उसमें अपने अनुभव का पूरा फायदा उठाते हुए 'इस्तीफा' नाम का तुरुप का पत्ता फेंक दिया। चिंता की बात यह है कि जो मीडिया उन्हें घेरने के लिए तैयार दिख रहा था, वह द्रवित हो उठा और कई पत्रकारों ने यहां तक कह डाला कि श्रीधरन साहब पूरा देश आपकी ओर उम्मीद से देख रहा है, कॉमनवेल्थ गेम होने वाले हैं, आप इस्तीफा क्यों दे रहे हैं।... और इस सब में दुर्घटना की जिम्मेदारी और उसके कारणों पर सवाल ही नहीं उठा, एक आध सवाल आए भी तो दबे से स्वर में। यानी मीडिया को भी श्रीधरन साहब ने बना ही दिया और असल मुद्दा गुम हो गया इस्तीफे के शोर में।

5.09.2009

दिल्‍ली मेट्रो : आन्‍दोलनरत मेट्रो कर्मियों को काम से निकाला

बुनियादी मांगों को लेकर आन्‍दोलन कर रहे 30 मेट्रोकर्मियों को काम से निकाल दिया गया है। दिल्‍ली मेट्रो रेल प्रबंधकों और ठेकेदारों के इस तानाशाहीपूर्ण रवैये से नाराज कर्मचारियों ने आन्‍दोलन को तेज करने की चेतावनी दी है। कर्मचारियों ने शुक्रवार को डीएमआरसी को ज्ञापन भी सौंपा। इसके अतिरिक्‍त कर्मचारियों ने श्रम कार्यालय में भी शिकायत दर्ज कराई है।
दिल्‍ली मेट्रो के ठेके पर काम कर रहे कर्मचारियों की बुनियादी मांगों को लेकर चल रहे आन्‍दोलन को हर तरह से कुचलने की कोशिश हो रही है। पांच मई को अपनी बुनियादी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे करीब 43 कर्मचारियों को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया था।
इनमें मेट्रो फीडर सेवा के चालक-परिचालक और मेट्रो के सफाईकर्मी शामिल थे। तमाम प्रयासों से छह मई रात को जेल से रिहा होने के बाद इनकी कानूनी मांगों की सुनवाई के बजाय इनका उत्‍पीड़न शुरू हो गया। मेट्रो कामगार संघर्ष समिति के संयोजक अजय स्‍वामी ने बताया कि
प्रदर्शन में शामिल मजदूर जमानत पर छूटने के बाद शुक्रवार को जब काम पर पहुंचे तो मेट्रोफीडर सेवा के इन 30 कर्मचारियों के नाम की सूची डिपो के बाहर लगी मिली। इस पर लिखा था ' नो ड्यूटी'

उन्‍होंने कहा कि इन कर्मचारियों को काम से निकाल दिया गया है साथ ही जो कर्मचारी पांच मई को छुट्टी पर थे, उन पर पांच सौ रुपये का जुर्माना लगाया गया है। अजन ने डीएमआरसी के और ठेकेदार कंपनी के इस तानाशाही रवैये की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि हमारी जायज मांगों को न मान कर डीएमआरसी और ठेकेदार कंपनियां अपने मजदूर विरोधी रवैये का परिचय दे रही हैं।
उधर डीएमआरसी सारी जिम्‍मेदारी ठेकेदार कंपनियों पर डाल रही है, जबकि कानूनन प्रथम नियोक्‍ता वही है। और श्रम कानूनों को लागू कराने की जिम्‍मेदारी भी डीएमआरसी है।
खैर, डीएमआरसी की इन हरकतों से जो भी मेट्रो की चमक दमक और गति को बरकरार रखने वाले कर्मचारियों के साथ उसके तानाशाही रवैये का खुलासा हो रहा है। अब जरूरत यह है हर जागरूक नागरिक मेट्रो कर्मचारियों के इस जायज आन्‍दोलन का समर्थन करे।

5.07.2009

दिल्‍ली मेट्रो : छात्र, पत्रकार, वकील और आम नागरिकों ने कर्मचारियों को रिहा कराया

मेरी पिछली पोस्‍ट से आपको पता चला होगा कि 5 तारीख को दिल्‍ली मेट्रो प्रशासन के इशारे पर अपनी बुनियादी मांगों के लिए प्रदर्शन कर रहे 45 कर्मचारियों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। कल यानी 6 तारीख को छात्रों, वकील, पत्रकारों, और आम नागरिकों ने जमानत देकर उन्‍हें रिहा करा लिया।
गिरफ्तार कर्मचारियों में मेट्रो के सफाईकर्मी, और फीडर सर्विस के चालक-परिचालक शामिल थे। जेल से रिहा होने के बाद मेट्रो कामगार संघर्ष समिति के संयोजक अजय ने कहा कि ठेका मजदूरों का आन्‍दोलन व्‍यापक रूप लेता जा रहा है। उनका कहना है कि यूं तो डीएमआरसी ने हर स्‍टेशन डिपो के बाहर बोर्ड टांग रखा है कि यहां सभी श्रम कानूनों का पालन किया जाता है, लेकिन सच्‍चाई यह है कि डीएमआरसी अपने मजदूरों को न्‍यूनतम मजदूरी, ई.एस.आई., पी.एफ. जैसी सुविधाएं तक नहीं देती और साप्‍ताहिक अवकाश तो दूर की बात है। यहां तक कि सभी श्रम कानूनों को ताक पर रख कर मजदूरों से 16 16 घंटे तक काम कराया जाता है। उन्‍होंने कहा कि मेट्रो के कर्मचारी इस संघर्ष को जीतने तक इसे आन्‍दोलन और कानूनी तरीके से जारी रखेंगे।

5.05.2009

दिल्‍ली मेट्रो: बुनियादी मांगों के लिए संघर्षरत 100 मजदूरों को गिरफ्तार किया

दिल्‍ली मेट्रो की मनमानी जारी है। पिछले तीन महीनों से दिल्‍ली मेट्रो के कर्मचारी अपनी बुनियादी मांगों के लिए लगातार संघर्षरत थे, लेकिन मेट्रो प्रशासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। आज लगभग 11:30 बजे जब मेट्रो के कर्मचारी मेट्रो भवन के सामने प्रदर्शन कर रहे थे, तो मेट्रो के इशारे पर दिल्‍ली पुलिस ने लगभग 100 कर्मचारियों को गिरफ्तार कर लिया। इन्‍हें फिलहाल दिल्‍ली के कनॉट प्‍लेस थाने ले जाया गया है।
मेट्रो कामगार संघर्ष समिति के बैनर तले ये कर्मचारी तीन महीने से मेट्रो प्रशासन के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। और कर्मचारियों के अनुसार इस पूरे मामले में मेट्रो प्रशासन तानाशाह रवैया अपनाता रहा है। पिछली 25 मार्च को भी कर्मचारियों ने मेट्रो भवन के सामने प्रदर्शन करके अपनी मांगों का ज्ञापन सौंपा था, जिसे मेट्रो प्रशासन ने काफी हील-हुज्‍जत के बाद लिया था।
मेट्रो कामगार संघर्ष समिति के अनुसार, ठेके पर काम करने वाले मेट्रो के 3000 सफाईकर्मी और फीडर सेवा कर्मचारियों को न्‍यूनतम मजदूरी, साप्‍ताहिक अवकाश, ईएसआई, पीएफ आदि जैसे बुनियादी अधिकार नहीं दिए जा रहे हैं। और अपने कानूनी अधिकारों की मांग करने पर उन्‍हें डराया, धमकाया जा रहा है और यहां तक कि नौकरी से भी निकाला जा रहा है।

4.21.2009

भाकपा, माकपा, भाकपा-माले --- मार्क्‍सवादी नहीं, संशोधनवादी पार्टियां हैं - 2

पिछली पोस्‍ट में भारत के नकली कम्‍युनिस्‍टों के बारे में लिखा था, अपनी टिप्‍पणी को यथावत रखते हुए उसी क्रम में यह दूसरी पोस्‍ट:

मार्क्‍सवाद, मजदूर, जनता, क्रांति आदि का तोतारटंत करते हुए पश्चिम बंगाल, केरल की संशोधनवादी पार्टियां, पूंजीपतियों के स्‍वागत में गलीचे बिछाती हैं और औद्योगिक तथा खेत मजदूरों को निचोड़ने में उनकी मदद करती हैं और जिस संसद को एक समय ये सूअरबाड़ा कहती थीं, उसी संसद में लोट लगाती हैं; उन्‍हें अब वहां मंदिर में जलती अगरबत्ती की खुशबू आती है। लेकिन देश के सांप्रदायिक फासीवादी संगठन और उनके लग्‍गू-भग्‍गू तथा तमाम चुनावबाज पार्टियां भाकपा, माकपा, भाकपा-माले जैसी संशोधनवादी पार्टियों को ही कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के रूप में प्रचारित करते हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि मार्क्‍सवाद और संशोधनवाद में फर्क किया जाए और ज्‍यादा से ज्‍यादा लोगों के सामने संशोधनवादियों का दोगला चरित्र उजागर किया जाए। इसी को ध्‍यान में रखते हुए मैं समाजवाद नाम के ब्‍लॉग से भारत के कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन में संशोधनवाद के बारे में दी गई पोस्‍ट के कुछ अंश यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं। हालांकि, अतिवामपंथी भटकाव और उसके खतरों के बारे में भी बात की जानी चाहिए, लेकिन फिलहाल संशोधनवाद पर बात की जाए:

...सोवियत संघ में –ख्रुर्श्चेवी संशोधनवाद के हावी होने और 1956 की बीसवीं कांग्रेस के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संशोधनवाद को अन्तरराष्ट्रीय प्रमाण पत्र भी मिल गया। 1958 में अमृतसर की विशेष कांग्रेस में पार्टी संविधान की प्रस्तावना से, सर्वसम्मति से, क्रान्तिकारी हिंसा की अवधारणा को निकाल बाहर करने के बाद पार्टी का संशोधनवादी दीक्षा-संस्कार पूरा हो गया। लेकिन अब पार्टी के संशोधनवादी ही दो धड़ों में बँट गए। डांगे-अधिकारी- राजेश्वर राव आदि के नेतृत्व वाले धड़े का कहना था कि कांग्रेस के भीतर और बाहर के रूढ़िवादी बुर्जुआ वर्ग का विरोध करते हुए नेहरू के नेतृत्व में प्रगतिशील राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा कर रहे हैं अत: कम्युनिस्ट पार्टी को उनका समर्थन करना चाहिए, और इस काम के पूरा होने के बाद उसका दायित्व होगा संसद के रास्ते सत्ता में आकर समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देना। ये लोग राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की बात कर रहे थे, जबकि लोक जनवादी क्रान्ति की बात करने वाला सुन्दरैया-गोपालन-नम्बूदिरिपाद आदि के नेतृत्व वाला दूसरा धड़ा कह रहा था कि सत्तारूढ़ कांग्रेस साम्राज्यवाद से समझौते कर रही है और भूमि सुधार के वायदे से मुकर रही है, अत: जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा करने के लिए हमें बुर्जुआ वर्ग के रैडिकल हिस्सों को साथ लेकर संघर्ष करना होगा। दोनों ही धड़े जनवादी क्रान्ति की बात करते हुए, सत्तासीन बुर्जुआ वर्ग के चरित्र का अलग-अलग आकलन करते हुए अलग-अलग कार्यकारी नतीजे निकाल रहे थे लेकिन दोनों के वर्ग-चरित्र में कोई फ़र्क नहीं था। दोनों ही धड़े संसदीय मार्ग को मुख्य मार्ग के रूप में चुन चुके थे। दोनों बोल्शेविक सांगठनिक उसूलों व ढाँचे का परित्याग कर चुके थे और काउत्स्की, मार्तोव और खुर्श्चेव की राह अपना चुके थे। फ़र्क सिर्फ यह था कि एक धड़ा सीधे उछलकर बुर्जुआ वर्ग की गोद में बैठ जाना चाहता था, जबकि दूसरा विपक्षी संसदीय पार्टी की भूमिका निभाना चाहता था ताकि रैडिकल विरोध का तेवर दिखलाकर जनता को ज्यादा दिनों तक ठगा जा सके। एक धड़ा अर्थवाद का पैरोकार था तो दूसरा उसके बरक्स ज्यादा जुझारू अर्थवाद की बानगी पेश कर रहा था। देश की परिस्थितियों के विश्लेषण और कार्यक्रम से सम्बिन्धत मतभेदों-विवादों का तो वैसे भी कोई मतलब नहीं था, क्योंकि यदि क्रान्ति करनी ही नहीं थी तो कार्यक्रम को तो `कोल्ड स्टोरेज´ में ही रखे रहना था। 1964 में दोनों धड़े औपचारिक रूप से अलग हो गये। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) से अलग होने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्व ने भाकपा को संशोधनवादी बताया और कतारों की नज़रों में खुद को क्रान्तिकारी सिद्ध करने के लिए खूब गरमागरम बातें कीं।

लेकिन असलियत यह थी कि माकपा भी एक संशोधनवादी पार्टी ही थी और ज्यादा धूर्त और कुटिल संशोधनवादी पार्टी थी। इस नयी संशोधनवादी पार्टी की असलियत को उजागर करने के लिए केवल कुछ तथ्य ही काफी होंगे। 1964 में गठित इस नयी पार्टी ने अमृतसर कांग्रेस द्वारा पार्टी संविधान में किये गये परिवर्तन को दुरुस्त करने की कोई कोशिश नहीं की। शान्तिपूर्ण संक्रमण की जगह क्रान्ति के मार्ग की खुली घोषणा और संसदीय चुनावों में भागीदारी को मात्र रणकौशल बताने की जगह इसने सन्सदीय और संसदेतर मार्ग जैसी गोल-मोल भाषा का अपने कार्यक्रम में इस्तेमाल किया जिसकी आवश्यकतानुसार मनमानी व्याख्या की जा सकती थी। आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों के अन्तर्सम्बन्धों के बारे में इसकी सोच मूलत: लेनिनवादी न होकर संघाधिपत्यवादियों एवं अर्थवादियों जैसी ही थी। फ़र्क यह था कि इसके अर्थवाद का तेवर भाकपा के अर्थवाद के मुकाबले अधिक जुझारू था। इसके असली चरित्र का सबसे स्पष्ट संकेतक यह था कि भाकपा की ही तरह यह भी पूरी तरह से खुली पार्टी थी और सदस्यता के मानक भाकपा से कुछ अधिक सख्त लगने के बावजूद (अब तो वह भी नहीं है) यह भी चवन्निया मेम्बरी वाली `मास पार्टी´ ही थी।

ख्रुर्श्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का संघर्ष 1957 से ही जारी था, जो 1963 में `महान बहस´ नाम से प्रसिद्ध खुली बहस के रूप में फूट पड़ा और अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन औपचारिक रूप से विभाजित हो गया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) के नेतृत्व ने पहले तो इस बहस की कतारों को जानकारी ही नहीं दी। इस मायने में भाकपा नेतृत्व की पोज़ीशन साफ थी। वह डंके की चोट पर ख्रुर्श्चेवी संशोधनवाद के साथ खड़ा था। महान बहस की जानकारी और दस्तावेज़ जब कतारों तक पहुँचने लगे तो माकपा-नेतृत्व पोज़ीशन लेने को बाध्य हुआ। पोज़ीशन भी उसने अजीबोगरीब ली। उसका कहना था कि सोवियत पार्टी का चरित्र संशोधनवादी है लेकिन राज्य और समाज का चरित्र समाजवादी है। साथ ही उसका यह भी कहना था कि ख्रुर्श्चेवी संशोधनवाद का विरोध करने वाली चीनी पार्टी “वाम” संकीर्णतावाद व दुस्साहसवाद की शिकार है।

अब यदि मान लें कि साठ के दशक में सोवियत समाज अभी समाजवादी बना हुआ था, तो भी, यदि सत्ता संशोधनवादी पार्टी (यानी सारत: पूँजीवादी पार्टी) के हाथ में थी तो राज्य और समाज का समाजवादी चरित्र कुछेक वर्षों से अधिक बना ही नहीं रह सकता था। लेकिन माकपा अगले बीस-पच्चीस वर्षों तक (यानी सोवियत संघ के विघटन के समय तक) न केवल सोवियत संघ को समाजवादी देश मानती रही, बल्कि दूसरी ओर, धीरे-धीरे सोवियत पार्टी को संशोधनवादी कहना भी बन्द कर दिया। इसके विपरीत, माओ और चीन की पार्टी के प्रति उसका रुख प्राय: चुप्पी का रहा।

सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की उसने या तो दबी जुबान से आलोचना की, या फ़िर उसके प्रति चुप्पी का रुख अपनाया। चीन में माओ की मृत्यु के बाद तो मानो इस पार्टी की बाँछें खिल उठीं। वहाँ पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बाद देंग सियाओ-पिंग और उसके चेले-चाटियों ने समाजवादी संक्रमण विषयक माओ की नीतियों को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी और ‘चार आधुनिकीकरणों’ तथा उत्पादक शक्तियों के विकास के सिद्धांत के नाम पर वर्ग सहयोग की नीतियों पर अमल की शुरुआत की। दुनिया के सर्वहारा वर्ग को ठगने के लिए उन्होंने पूँजीवादी पुनस्थापना की अपनी नीतियों को “बाज़ार समाजवाद” का नाम दिया।

लेकिन इस नकली समाजवाद का चरित्र आज पूरी तरह बेनकाब हो चुका है। चीन में समाजवाद की सारी उपलब्धियाँ समाप्त हो चुकी है। कम्यूनों का विघटन हो चुका है। खेती और उद्योग में समाजवाद के राजकीय पूँजीवाद में रूपान्तरण के बाद अब निजीकरण और उदारीकरण की मुहिम बेलगाम जारी है। अब यह केवल समय की बात है कि समाजवाद का चोंगा और नकली लाल झण्डा वहाँ कब धूल में फेंक दिया जायेगा।

माकपा और भाकपा अपने असली चरित्र को ढँकने के लिए आज चीन के इसी “बाज़ार समाजवाद” के गुण गाती हैं। उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के विरोध का जुबानी जमाख़र्च करते हुए ये पार्टियाँ वास्तव में इन्हीं की पैरोकार बनी हुई हैं। बंगाल, केरल और त्रिपुरा में सत्तासीन रहते हुए वे इन्हीं नीतियों को लागू करती हैं, लेकिन केन्द्र में वे इन नीतियों के विरोध की नौटंकी करती हैं और भूमण्डलीकरण की बर्बरता को ढँकने के लिए उसे मानवीय चेहरा देने की, उसकी अन्धाधुन्ध रफ्ऱतार को कम करने की और नेहरूकालीन पब्लिक सेक्टर के ढाँचे को बनाये रखने की वकालत करती हैं। बस यही इनका “समाजवाद” है!
ये पार्टियाँ कम्युनिज्म के नाम पर मज़दूर वर्ग की आँखों में धूल झोंककर उन्हें वर्ग-संघर्ष के रास्ते से विमुख करती हैं, उन्हें मात्र कुछ रियायतों की माँग करने और आर्थिक संघर्षों तक सीमित रखती हैं, संसदीय राजनीति के प्रति उनके विभ्रमों को बनाये रखते हुए उनकी चेतना के क्रान्तिकारीकरण को रोकने का काम करती हैं, तथा उनके आक्रोश के दबाव को कम करने वाले `सेफ्टीवॉल्व´ का तथा पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति का काम करती हैं।

आज साम्प्रदायिक फासीवाद का विरोध करने का बहाना बनाकर ये संशोधनवादी रंगे सियार कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबन्धन सरकार के खम्भे बने हुए हैं। ये संसदीय बातबहादुर भला और कर भी क्या सकते हैं? फासीवाद का मुकाबला करने के लिए मेहनतकश जनता की जुझारू लामबन्दी ही एकमात्र रास्ता हो सकती है, लेकिन वह तो इनके बूते की बात है ही नहीं। ये तो बस संसद में गत्ते की तलवारें भाँज सकते हैं, कभी कांग्रेस की पूँछ में कंघी कर सकते हैं तो कभी तीसरे मोर्चे का घिसा रिकार्ड बजा सकते हैं।

शेर की खाल ओढ़े इन छद्म वामपन्थी गीदड़ों की जमात में भाकपा और माकपा अकेले नहीं हैं। और भी कई नकली वामपन्थी छुटभैये हैं और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों के बीच से निकलकर भाकपा (मा-ले) लिबरेशन को भी इस जमात में शामिल हुए पच्चीस वर्षों से भी कुछ अधिक समय बीत चुका है।
1967 में नक्सलबाड़ी किसान उभार ने माकपा के भीतर मौजूद क्रान्तिकारी कतारों में ज़बरदस्त आशा का संचार किया था। संशोधनवाद से निर्णायक विच्छेद के बाद एक शानदार नयी शुरुआत हुई ही थी कि उसे “वामपन्थी” दुस्साहसवाद के राहु ने ग्रस लिया। भाकपा (मा-ले) इसी भटकाव के रास्ते पर आगे बढ़ी और खण्ड- खण्ड विभाजन की त्रासदी का शिकार हुई।

कुछ क्रान्तिकारी संगठनों ने क्रान्तिकारी जनदिशा की पोज़ीशन पर खड़े होकर “वामपन्थी”दुस्साहसवाद का विरोध किया था, वे भी भारतीय समाज की प्रकृति और क्रान्ति की मंज़िल के बारे में अपनी ग़लत समझ के कारण जनता के विभिन्न वर्गों की सही क्रान्तिकारी लामबन्दी कर पाने और वर्ग-संघर्ष को आगे बढ़ा पाने में विफल रहे। नतीजतन ठहराव का शिकार होकर कालान्तर में वे भी बिखराव और संशोधनवादी विचलन का शिकार हो गये।

...भाकपा (मा-ले (लिबरेशन)) पच्चीस वर्षों पहले तक “वामपन्थी” दुस्साहसवादी लाइन का शिकार था। पर उसके पिट जाने के बाद धीरे-धीरे रेंगते-घिसटते आज दक्षिणपन्थी भटकाव के दूसरे छोर तक जा पहुंचा है और आज खाँटी संसदवाद की बानगी पेश कर रहा है।...बेशक हमें अतिवामपन्थी भटकाव के विरुद्ध भी सतत संघर्ष करना होगा, लेकिन आज भी हमारी मुख्य लड़ाई संशोधनवाद से ही है। • •देखें : संशोधनवाद के बारे में (PDF File)

भाकपा, माकपा, भाकपा-माले --- मार्क्‍सवादी नहीं, संशोधनवादी पार्टियां हैं

मार्क्‍सवाद, मजदूर, जनता, क्रांति आदि का तोतारटंत करते हुए पश्चिम बंगाल, केरल की संशोधनवादी पार्टियां, पूंजीपतियों के स्‍वागत में गलीचे बिछाती हैं और औद्योगिक तथा खेत मजदूरों को निचोड़ने में उनकी मदद करती हैं और जिस संसद को एक समय ये सूअरबाड़ा कहती थीं, उसी संसद में लोट लगाती हैं; उन्‍हें अब वहां मंदिर में जलती अगरबत्ती की खुशबू आती है। लेकिन देश के सांप्रदायिक फासीवादी संगठन और उनके लग्‍गू-भग्‍गू तथा तमाम चुनावबाज पार्टियां भाकपा, माकपा, भाकपा-माले जैसी संशोधनवादी पार्टियों को ही कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के रूप में प्रचारित करते हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि मार्क्‍सवाद और संशोधनवाद में फर्क किया जाए और ज्‍यादा से ज्‍यादा लोगों के सामने संशोधनवादियों का दोगला चरित्र उजागर किया जाए। इसी को ध्‍यान में रखते हुए मैं समाजवाद नाम के ब्‍लॉग से भारत के कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन में संशोधनवाद के बारे में दी गई पोस्‍ट के कुछ अंश यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं। हालांकि, अतिवामपंथी भटकाव और उसके खतरों के बारे में भी बात की जानी चाहिए, लेकिन फिलहाल संशोधनवाद पर बात की जाए:

भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद


इतिहास के कुछ ज़रूरी और दिलचस्प तथ्य

ऐसा नहीं है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का चरित्र शुरू से ही संशोधनवादी रहा हो। पार्टी की गम्भीर विचारधारात्मक कमज़ोरियों, और उनके चलते बारम्बार होने वाली राजनीतिक गलतियों, और उनके चलते राष्ट्रीय आन्दोलन पर अपना राजनीतिक वर्चस्व न कायम कर पाने के बावजूद, कम्युनिस्ट कतारों ने साम्राज्यवाद-सामन्तवाद विरोधी संघर्ष के दौरान बेमिसाल और अकूत कुर्बानियाँ दीं। कम्युनिस्ट पार्टी पर मज़दूरों और किसानों का पूरा भरोसा था। 1951 में तेलंगाना किसान संघर्ष की पराजय के बाद का समय वह ऐतिहासिक मुकाम था, जब, कहा जा सकता है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का वर्ग-चरित्र गुणात्मक रूप से बदल गया और सर्वहारा वर्ग की पार्टी होने के बजाय वह बुर्जुआ व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति बन गयी। वह कम्युनिस्ट नामधारी बुर्जुआ सुधारवादी पार्टी बन गयी।

लेकिन ऐसा रातोरात और अनायास नहीं हुआ। पार्टी अपने जन्मकाल से ही विचारधारात्मक रूप से कमज़ोर थी और कभी दक्षिणपन्थी तो कभी वामपंथी (ज्यादातर दक्षिणपन्थी) भटकावों का शिकार होती रही। 1920 में ताशकन्द में एम.एन. राय व विदेश स्थित कुछ अन्य भारतीय कम्युनिस्टों की पहल पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। लेकिन देश के अलग-अलग हिस्सों में काम करने वाले कम्युनिस्ट ग्रुप मूलत: अलग-अलग और स्वायत्त ढंग से काम करते रहे। पुन: 1925 में सत्यभक्त की पहल पर कानपुर में अखिल भारतीय कम्युनिस्ट कान्फ़्रेन्स में पार्टी की घोषणा हुई, लेकिन उसके बाद भी एक एकीकृत केन्द्रीय नेतृत्व के मातहत पार्टी का सुगठित क्रान्तिकारी ढाँचा नहीं बन सका। कानपुर कान्फ़्रेन्स तो लेनिनवादी अर्थों में एक पार्टी कांग्रेस थी भी नहीं।

बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में, मज़दूरों और किसानों के प्रचण्ड आन्दोलनों, उनके बीच कम्युनिस्ट पार्टी की व्यापक स्वीकार्यता एवं आधार, भगतसिंह जैसे मेधावी युवा क्रान्तिकारियों के कम्युनिज्म की तरफ झुकाव और कांग्रेस की स्थिति (असहयोग आन्दोलन की वापसी के बाद का और स्वराज पार्टी का दौर) ख़राब होने के बावजूद कम्युनिस्ट पार्टी इस स्थिति का लाभ नहीं उठा सकी। यह अलग से विस्तृत चर्चा का विषय है। मूल बात यह है कि विचारधारात्मक रूप से कमज़ोर एक ढीली-ढाली पार्टी से यह अपेक्षा की ही नहीं जा सकती थी।

1933 में पहली बार, कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल, ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के आग्रहपूर्ण सुझावों-अपीलों के बाद, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का एक स्वीकृत सुगठित ढाँचा बनाने की कोशिशों की शुरुआत हुई और एक केन्द्रीय कमेटी का गठन हुआ। लेकिन वास्तव में उसके बाद भी पार्टी का ढाँचा ढीला-ढाला ही बना रहा। पी.सी. जोशी के सेक्रेटरी होने के दौरान पार्टी प्राय: दक्षिणपन्थी भटकाव का शिकार रही तो रणदिवे के नेतृत्व की छोटी-सी अविध अतिवामपन्थी भटकाव से ग्रस्त रही। पार्टी की विचारधारात्मक कमज़ोरी का आलम यह था कि 1951 तक पार्टी के पास क्रान्ति का एक व्यवस्थित कार्यक्रम तक नहीं था।

1951 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा इस विडम्बना की ओर इंगित करने और आवश्यक सुझाव देने के बाद, भारतीय पार्टी के प्रतिनिधिमण्डल ने एक नीति-निर्धारक वक्तव्य जारी किया और फ़िर उसी आधार पर एक कार्यक्रम तैयार कर लिया गया। यानी तीस वर्षों तक पार्टी अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा प्रस्तुत आम दिशा के आधार पर राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की एक मोटी समझदारी के आधार पर ही काम करती रही। रूस और चीन की पार्टियों की तरह भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने देश की ठोस परिस्थितियों का - उत्पादन-सम्बन्धों और अधिरचना का ठोस अध्ययन-मूल्यांकन करके क्रान्ति का कार्यक्रम तय करने की कभी कोशिश नहीं की। इसके पीछे पार्टी की विचारधारात्मक कमज़ोरी ही मूल कारण थी और कार्यक्रम की सुसंगत समझ के अभाव के चलते पैदा हुए गतिरोध ने, फ़िर अपनी पारी में, इस विचारधारात्मक कमज़ोरी को बढ़ाने का ही काम किया।

तेलंगाना किसान संघर्ष की पराजय के बाद पार्टी नेतृत्व ने पूरी तरह से बुर्जुआ वर्ग की सत्ता के प्रति आत्मसमर्पणवादी रुख अपनाया। 1952 के पहले आम चुनाव में भागीदारी तक पार्टी पूरी तरह से संशोधनवादी हो चुकी थी। संसदीय चुनावों में भागीदारी और अर्थवादी ढंग से मज़दूरों-किसानों की माँगों को लेकर आन्दोलन -यही दो उसके रुटीनी काम रह गये थे। पार्टी के रहे-सहे लेनिनवादी ढाँचे को भी विसर्जित कर दिया गया और इसे पूरी तरह से खुले ढाँचे वाली और ट्रेडयूनियनों जैसी चवन्निया मेम्बरी वाली पार्टी बना दिया गया।

अगली पोस्‍ट में जारी...

3.26.2009

दिल्‍ली मेट्रो का सच: मेट्रो के कर्मचारियों ने किया मेट्रो भवन के सामने प्रदर्शन

दिल्‍ली मेट्रो केवल दिल्‍ली ही नहीं बल्कि पूरे देश की शान है। उसकी चमकती ट्रेन, दमकते प्‍लेटफॉर्म और टिकट वितरण आदि की व्‍यवस्‍था सभी को पसंद है। लेकिन इस चमक-दमक के तले काम करने वालों की स्थिति के अंधेरे पक्ष के बारे में शायद बहुत कम लोगों को पता है, क्‍योंकि मेट्रो का प्रबंधन मीडिया को इस तरह मैनेज करता है कि केवल उसका उजला पक्ष ही लोगों के सामने आता है। अब, मेट्रो के कर्मचारी अपने साथ हो रहे अन्‍याय के खिलाफ आवाज़ उठाने लगे हैं, जिसका समर्थन लोकतांत्रिक मूल्‍यों में यकीन करने वाले हर व्‍यक्ति को चाहिए।
कल, यानी 25 मार्च को मेट्रो के कर्मचारियों ने अपनी मांगों को लेकर मेट्रो भवन के सामने विरोध-प्रदर्शन किया और नारे लगाए। जनसत्‍ता में छपी खबर के अनुसार मेट्रो कामगार संघर्ष समिति के बैनर तले मेट्रो के कामगार और मजदूरों ने न्‍यूनतम वेतन, साप्‍ताहिक छुट्टी और चिकित्‍सा सुविधा आदि की मांग को लेकर मेट्रो भवन के सामने प्रदर्शन किया। मजदूरों का कहना है कि उनसे 12-12 घंटे तक काम लिया जाता है और न्‍यूनतम मजदूरी 186 रुपये की जगह 90-100 रुपये ही दिये जाते हैं। द ट्रिब्‍यून की खबर के अनुसार मजदूरों का कहना है कि उन्‍हें न तो पहचान पत्र दिए गए हैं और न ही प्रॉविडेंट फंड का अकाउंट खोला गया है। उनका आरोप है कि ठेकेदार मजदूरों के साथ बुरा बर्ताव करते हैं और उन्‍हें कभी-कभी सप्‍ताह में बिना छुट्टी के सातों दिन काम करना पड़ता है।
इंडोपिया डॉट इन के अनुसार अपनी मांगे उठाने पर मजदूरों के साथ गाली-गलौज की जाती है और उन्‍हें धमकी दी जाती और यहां तक नौकरी से भी निकाल दिया जाता है।

1.21.2009

बुश ''नायक'' होता, तो भी आर्थिक मंदी और युद्ध नहीं रोक पाता

आज के एक अखबार में बुश के बारे में 'अधूरे युद्ध और मंदी से बने खलनायक' शीर्षक से एक खबर छपी है, जिसमें बताया गया है कि दुनियाभर के मीडिया के अनुसार बुश का कार्यकाल अमेरिकी का सबसे खराब वक्‍त रहा। इस खबर के अनुसार मीडिया ने बुश को एक कमजोर और अड़ि‍यल शासक घोषित-सा किया है। इसमें लिखा है कि दो अधूरे युद्ध और देश को आर्थिक मंदी में डुबोने के कारण बुश खलनायक बन गये।
इसके बाद अब मूल बात पर आया जाए, इस खबर से दुनियाभर के मीडिया के बौद्धिक दीवालियेपन, या नायकवाद को प्रो‍त्‍साहित करने और जनता का ध्‍यान असली मुद्दों से हटाने की झलक मिलती है। मीडिया ने अमेरिकी नीतियों और युद्धों का ठीकरा बुश के सिर पर फोड़ कर यह जताने की कोशिश की है कि कमी दरअसल बुश की थी किसी सिस्‍टम की नहीं। यह उसी तरह है, जैसे अक्‍सर इतिहास का निर्माता या दोषी किसी महापुरुष, राजा महाराजा, नेता आदि का बताया जाता है, जबकि उस समय उस समाज की वास्‍तविक समस्‍याओं और वर्ग संघर्ष को अनदेखा कर दिया जाता है और समस्‍याओं के उत्‍स को ओझल कर दिया जाता है। मीडिया यह नहीं बताता कि बुश हो या ओबामा, वे केवल उस व्‍यवस्‍था के चेहरे हैं जिसकी मजबूरी हैं ये युद्ध और आर्थिक मंदी। बुश नहीं होता तो भी आर्थिक मंदी आनी ही थी, और बुश नहीं होता तो भी अमेरिकी हुक्‍मरान इराक, अफगानिस्‍तान पर हमले करते ही। अब ओबामा के कुछ समय बाद यदि आर्थिक मंदी में मामूली सुधार होता भी है तो वह ओबामा की वजह से नहीं होगा, बल्कि दुनिया भर की अर्थव्‍यवस्‍थाओं को बचाने के लिए दिए जा रहे बेल आउट पैकेज या ऐसे ही उपायों से होगा..
दरअसल, हकीकत यह है कि मेनस्‍ट्रीम मीडिया कभी नहीं चाहता की वास्‍तव में जनता का ध्‍यान असली मुद्दों पर जाए, क्‍योंकि मीडिया का हित भी मुनाफे पर टिकी इस व्‍यवस्‍था में ही है, और मौजूदा समाज की अन्‍य सभी चीज़ों की तरह मीडिया भी मुनाफे के लिए चल रहा है किसी सामाजिक परिवर्तन या उन्‍नति के उद्देश्‍य से नहीं..।

1.10.2009

गौरव सोलंकी की कविता, ''मैं बिक गया हूँ''

अंतरजाल पर कुछ खोजते हुए आज मुझे हिंदीयुग्‍म पर डेढ़ वर्ष पहले पोस्‍ट की गई गौरव सोलंकी की कविता पढ़ने को मिली, कविता काफी अच्‍छी लगी, इसलिए हूबहू पेश कर रहा हूं...कुछ लोगों ने इसे गौरव की निराशा बताया तो, किसी ने इस पर कविता के मानदंडो पर खरा नहीं उतरने का आरोप लगाया। लेकिन मेरा मानना है कि कभी-कभी विचार कविता की सारी सीमाओं को तोड़ कर आपके सामने आते हैं और हो सकता है वे शिल्‍प की दृष्टि से थोड़ा कम -ज्‍यादा हों लेकिन उनका महत्‍व कत्‍तई कम नहीं होता...।


मैं बिक गया हूँ

नहीं मान्यवर,
मैं जब भी व्यवस्था से विद्रोह करता हूँ,
ग़लत होता हूँ,
मैं जब भी
आपके महान देश और संस्कृति पर
आरोप मढ़ता हूँ,
ग़लत होता हूँ,
नहीं....
इस पवित्र देश में
कभी फ़साद नहीं होते,
यहाँ अपराध हैं ही नहीं
तो किसी जेल में ज़ल्लाद नहीं होते,
जो लड़की रोती है टी.वी. पर
कि उसकी चार बहनों पर
बलात्कार हुआ दंगे में,
वो मेरी तरह झूठी है,
उसकी बहनें बदचलन रही होंगी
या टी.वी. वालों ने पैसे दिए हैं उसे,
और जो रिटायर्ड मास्टर
पेंशन के लिए
सालों तक दफ़्तरों के चक्कर काटने के बाद
भरे बाज़ार में जल जाता है,
उसकी मौत के लिए
कोई पुरानी प्रेम-कहानी उत्तरदायी होगी,
आपका ‘चुस्त’ सिस्टम नहीं,
नहीं मान्यवर,
यह झूठ है
कि एक पवित्र किताब में लिखा है-
विधर्मी को मारना ही धर्म है
और उस धर्म के कुछ ‘विद्यालयों’ से
आपके महान देश में बम फोड़े जा रहे हैं,
नहीं मान्यवर,
यह मेरा नितांत गैरज़िम्मेदाराना बयान है
कि दर्जनों मन्दिरों-मठों की आड़ में
वेश्याएँ पलती हैं
और पचासों बाबाओं के यहाँ
हथियारों की तस्करी के धन्धे किए जा रहे हैं,
यह वह देश नहीं है,
जहाँ बार-बार
धर्म-पंथ के नाम पर
कृपाण उठाकर अलग देश माँगा जाता है,
यह वह देश नहीं है,
जहाँ समाजसेवा के वर्क में लिपटी हुई
चार रुपए की बरफी खिलाकर
आदिवासी बच्चों से
’राम’ की जगह ‘गॉड’ बुलवाया जाता है,
नहीं मान्यवर,
उस बेकरी वाली की बहनों का नहीं,
बलात्कार तो मेरे दिमाग का हुआ है,
जो मैं कुछ भी बके जाता हूँ,
मुझे जाने किसने खरीद लिया है
कि मैं इस महान धरती के
आप महान उद्धारकों को
नपुंसक कहे जाता हूँ,
आप विश्वगुरु हैं,
ग़लत कैसे हो सकते हैं?
जहाँ सोने सा जगमगाता अतीत है,
वहाँ ये पाप कैसे हो सकते हैं?
मान्यवर,
मैं नादान हूँ,
पागल हूँ,
मुँहफट हूँ,
गैरज़िम्मेदार हूँ,
मेरी बातें मत सुनिए,
आप महान हैं, समर्थ हैं,
मेरा मुँह बन्द करवाइए
या जीभ पर कोयले धरवाइए,
ज़ल्लाद ढूंढ़ लाइए मेरे लिए
या मेरे विरुद्ध फतवे जारी करवाइए
क्योंकि
मैं कम्बख़्त
जन्म से ही बिक चुका हूँ,
कड़वे सच और उसकी पीड़ा के बदले में।