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10.19.2009

यहाँ सत्य को झुलस रही है संविधान की आँच


एस.ए. हमजा



यह पुस्तक मर चुकी है
इसे न पढ़ें
इसके शब्दों में मौत की ठण्डक है
और एक-एक पृष्ठ
जिन्दगी के आखिरी पल जैसा भयानक है

पंजाब के क्रान्तिकारी कवि ''पाश'' की भारतीय संविधान पर लिखी ये पंक्तियाँ दुनिया का सबसे बड़ा व महान लोकतन्त्र अपनी राज्य मशीनरी द्वारा निर्विवाद रूप में लागू कर रहा है।
भारतीय संविधान चाहे जितने विद्ववतापूर्ण ढंग से लिखा गया हो, उसकी जमीनी हकीकत यह है कि जनता को राज्यसत्ता से अतिसीमित जनवादी अधिकार ही प्राप्त हो रहे हैं। इसके साथ व्यापक आम जनता के लिए संविधान प्रदत्त अधिकारों, कानूनी प्रावधानों और उच्चतम न्यायालय के मानवाधिकारों विषयक दिशा-निर्देशों का कोई खास मतलब नहीं है क्योंकि उनके सभी संविधान प्रदत्त अधिकार तो थाने के दीवानजी की जेब में आकर समा जाते हैं।
क्योंकि व्यवस्था के सामने चुनौती खड़ा करने या थोड़ा-सा खतरा पैदा होने पर भारतीय राज्यसत्ता का चरित्र हमेशा ही दमनकारी तथा स्वयं अपने द्वारा ही बनाए गए कायदे-कानूनों को ताक पर धर देने का होता रहा है। प्रथम आम चुनाव के पहले ही 'तेलंगाना किसान संषर्घ' का बर्बर दमन करके राज्यसत्ता ने अपने वास्तविक चरित्र को उजागर कर दिया था जिसने महान क्रान्तिकारी व विचारक भगतसिंह की इस उक्ति को सही साबित किया कि ''हमें जितनी भी सरकारों के बारे में जानकारी है, वे बल पूर्वक संचालित होती है।''
इसके बाद जनता जहाँ भी अपनी विधि सम्मत न्यायपूर्ण माँगों को लेकर सड़कों पर उतरी वहाँ उसका स्वागत लाठियों व गोलियों की बौछार से किया गया। चाहे वह आपातकाल का विरोध करने वाले लोगों का दमन हो, 1974 की रेल हड़ताल हो या फिर बेलद्दी, बेलाडीला, पन्तनगर, नारायणपुर, शेरपुर, अरवल, स्वदेशी कॉटन मिल कानपुर से लेकर मुजफ्फरनगर और बबराला काण्डों तक सत्ता प्रायोजित नरसंहारो का लम्बा सिलसिला है।
छंटनी-तालाबन्दी को लेकर सड़कों पर उतरने वाले मजदूरों पर बिजली, पानी आदि की दुर्व्‍यवस्था को लेकर आन्दोलित नागरिकों पर तथा रोजगार व सस्ती शिक्षा की माँग कर रहे युवाओं पर लाठियों गोलियों की बरसात आम बात होती है।
इसी कड़ी में एक ताजा उदाहरण है गोरखपुर का मजदूर आन्दोलन। गोरखपुर में चल रहे मजदूर आन्दोलन में उन्हीं विधि सम्मत माँगों को एजेंडे पर रखा गया है जिनको देने का भारतीय संविधान दम भरता है परन्तु सत्ता व पूँजी का गठजोड़ संवैधानिक अधिकारों को ताक पर रखकर मजदूरों व उनके नेताओं पर पुलिसिया कहर बरपाए हुए है।  विगत दो माह से चलने वाले आन्दोलन को कुचलने में पूरा जिला प्रशासन, स्थानीय सांसद व विधायक महोदय काफी दिलचस्पी दिखा रहे हैं तथा उसे (आन्दोलन को) चर्च द्वारा समर्थित व नक्सलवादियों द्वारा संचालित बताया जा रहा है।
पिछले 15 अक्टूबर से गिरफ्तार मजदूर नेताओं को जमानत देने से इंकार करते हुए पुलिस प्रशासन के उच्च अधिकारी उन नेताओं के साथ पुलिसिया शालीनता का परिचय देते हुए उनको बेतहाशा यातनाएँ देने में मशरूफ़ है।
पिछले 2 महीनों से गोरखपुर से लखनऊ तक हर स्तर पर मजदूरों ने अपनी बात पहुँचाई परन्तु सर्वजन हिताय की बात करने वाली सरकार कान में तेल डालकर सो रही है। मानवधिकारों की पैरवी करने वाला मानवाधिकार आयोग, तमाम एन.जी.ओ., कलम घसीट बुद्धिजीवी, असमानता-अन्याय व शोषण की बात करने वाले सामाजिक संगठन खामोश हैं (कुछ अपवादों को छोड़कर)। भारतीय लोकतन्त्र का चैथा स्तम्भ मीडिया जो ऐश्वर्या राय के छींक आने पर खबर को फ्रंट पेज पर छापता है परन्तु इस अन्यायपूर्ण आन्दोलन को छापने व प्रसारित करने की जहमत भी नहीं उठा रहा है तथा ये खबरें गोरखपुर के स्थानीय अखबारों में ही जगह पा रही है। इससे साफ पता चलता है कि सामाजिक शक्तियों की चुप्पी व मीडिया का जनान्दोलन के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया शासक वर्गों को अपनी स्थिति मजबूत करने का आधार प्रदान कर रहा है।
सन 2000 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने गणतन्त्र दिवस के अवसर पर राष्ट्र के नाम अपने सन्देश में कहा था कि लम्बे समय से कष्ट उठा रहे लोगों का धीरज चुक रहा है। उनके गुस्से के विस्फोट से सावधान हो जाएँ। इसीलिए राज्य मशीनरी भी आने वाले जनसंघर्षों से निपटने के लिए व्यापक तैयारी कर रही है। आखिर क्या कारण है कि पिछले एक दशक में यू.पी. पुलिस में ही सबसे ज्यादा भर्तियाँ हुई, अन्य विभागों में क्यों नहीं। अगर तर्क दिया जाए कि अपराधों को रोकने के लिए तो पिछले 10 वर्ष के आंकड़े राज्य में क्राइम की बढ़ोत्तरी का संकेत करते हैं न कि कम होने का।
गोरखपुर आन्दोलन भी उन्हीं जनसंघर्षों की सुगबुगाहट का सन्देश है और गोरखपुर जिला प्रशासन उस पर नक्सलवाद का ठप्पा लगाकर बदनाम करने की कोशिशों में लगा हुआ है क्योंकि आन्दोलन पर एक बार यदि माओवाद की मुहर लग गई तो बाकी सारी चीजों के सन्दर्भ व अर्थ अपने आप बदल जायेंगे। आन्दोलन को माओवादी आन्दोलन साबित करके या उसके नेताओं को माओवादी साबित करने के पीछे एक दृष्टिकोण यह भी है कि बाहरी समुदाय व आन्दोलन के बीच अलगाव की एक मानसिक खाई बन जाए तथा लोग उसे नैतिक समर्थन न दे।