1.21.2009

बुश ''नायक'' होता, तो भी आर्थिक मंदी और युद्ध नहीं रोक पाता

आज के एक अखबार में बुश के बारे में 'अधूरे युद्ध और मंदी से बने खलनायक' शीर्षक से एक खबर छपी है, जिसमें बताया गया है कि दुनियाभर के मीडिया के अनुसार बुश का कार्यकाल अमेरिकी का सबसे खराब वक्‍त रहा। इस खबर के अनुसार मीडिया ने बुश को एक कमजोर और अड़ि‍यल शासक घोषित-सा किया है। इसमें लिखा है कि दो अधूरे युद्ध और देश को आर्थिक मंदी में डुबोने के कारण बुश खलनायक बन गये।
इसके बाद अब मूल बात पर आया जाए, इस खबर से दुनियाभर के मीडिया के बौद्धिक दीवालियेपन, या नायकवाद को प्रो‍त्‍साहित करने और जनता का ध्‍यान असली मुद्दों से हटाने की झलक मिलती है। मीडिया ने अमेरिकी नीतियों और युद्धों का ठीकरा बुश के सिर पर फोड़ कर यह जताने की कोशिश की है कि कमी दरअसल बुश की थी किसी सिस्‍टम की नहीं। यह उसी तरह है, जैसे अक्‍सर इतिहास का निर्माता या दोषी किसी महापुरुष, राजा महाराजा, नेता आदि का बताया जाता है, जबकि उस समय उस समाज की वास्‍तविक समस्‍याओं और वर्ग संघर्ष को अनदेखा कर दिया जाता है और समस्‍याओं के उत्‍स को ओझल कर दिया जाता है। मीडिया यह नहीं बताता कि बुश हो या ओबामा, वे केवल उस व्‍यवस्‍था के चेहरे हैं जिसकी मजबूरी हैं ये युद्ध और आर्थिक मंदी। बुश नहीं होता तो भी आर्थिक मंदी आनी ही थी, और बुश नहीं होता तो भी अमेरिकी हुक्‍मरान इराक, अफगानिस्‍तान पर हमले करते ही। अब ओबामा के कुछ समय बाद यदि आर्थिक मंदी में मामूली सुधार होता भी है तो वह ओबामा की वजह से नहीं होगा, बल्कि दुनिया भर की अर्थव्‍यवस्‍थाओं को बचाने के लिए दिए जा रहे बेल आउट पैकेज या ऐसे ही उपायों से होगा..
दरअसल, हकीकत यह है कि मेनस्‍ट्रीम मीडिया कभी नहीं चाहता की वास्‍तव में जनता का ध्‍यान असली मुद्दों पर जाए, क्‍योंकि मीडिया का हित भी मुनाफे पर टिकी इस व्‍यवस्‍था में ही है, और मौजूदा समाज की अन्‍य सभी चीज़ों की तरह मीडिया भी मुनाफे के लिए चल रहा है किसी सामाजिक परिवर्तन या उन्‍नति के उद्देश्‍य से नहीं..।

1.10.2009

गौरव सोलंकी की कविता, ''मैं बिक गया हूँ''

अंतरजाल पर कुछ खोजते हुए आज मुझे हिंदीयुग्‍म पर डेढ़ वर्ष पहले पोस्‍ट की गई गौरव सोलंकी की कविता पढ़ने को मिली, कविता काफी अच्‍छी लगी, इसलिए हूबहू पेश कर रहा हूं...कुछ लोगों ने इसे गौरव की निराशा बताया तो, किसी ने इस पर कविता के मानदंडो पर खरा नहीं उतरने का आरोप लगाया। लेकिन मेरा मानना है कि कभी-कभी विचार कविता की सारी सीमाओं को तोड़ कर आपके सामने आते हैं और हो सकता है वे शिल्‍प की दृष्टि से थोड़ा कम -ज्‍यादा हों लेकिन उनका महत्‍व कत्‍तई कम नहीं होता...।


मैं बिक गया हूँ

नहीं मान्यवर,
मैं जब भी व्यवस्था से विद्रोह करता हूँ,
ग़लत होता हूँ,
मैं जब भी
आपके महान देश और संस्कृति पर
आरोप मढ़ता हूँ,
ग़लत होता हूँ,
नहीं....
इस पवित्र देश में
कभी फ़साद नहीं होते,
यहाँ अपराध हैं ही नहीं
तो किसी जेल में ज़ल्लाद नहीं होते,
जो लड़की रोती है टी.वी. पर
कि उसकी चार बहनों पर
बलात्कार हुआ दंगे में,
वो मेरी तरह झूठी है,
उसकी बहनें बदचलन रही होंगी
या टी.वी. वालों ने पैसे दिए हैं उसे,
और जो रिटायर्ड मास्टर
पेंशन के लिए
सालों तक दफ़्तरों के चक्कर काटने के बाद
भरे बाज़ार में जल जाता है,
उसकी मौत के लिए
कोई पुरानी प्रेम-कहानी उत्तरदायी होगी,
आपका ‘चुस्त’ सिस्टम नहीं,
नहीं मान्यवर,
यह झूठ है
कि एक पवित्र किताब में लिखा है-
विधर्मी को मारना ही धर्म है
और उस धर्म के कुछ ‘विद्यालयों’ से
आपके महान देश में बम फोड़े जा रहे हैं,
नहीं मान्यवर,
यह मेरा नितांत गैरज़िम्मेदाराना बयान है
कि दर्जनों मन्दिरों-मठों की आड़ में
वेश्याएँ पलती हैं
और पचासों बाबाओं के यहाँ
हथियारों की तस्करी के धन्धे किए जा रहे हैं,
यह वह देश नहीं है,
जहाँ बार-बार
धर्म-पंथ के नाम पर
कृपाण उठाकर अलग देश माँगा जाता है,
यह वह देश नहीं है,
जहाँ समाजसेवा के वर्क में लिपटी हुई
चार रुपए की बरफी खिलाकर
आदिवासी बच्चों से
’राम’ की जगह ‘गॉड’ बुलवाया जाता है,
नहीं मान्यवर,
उस बेकरी वाली की बहनों का नहीं,
बलात्कार तो मेरे दिमाग का हुआ है,
जो मैं कुछ भी बके जाता हूँ,
मुझे जाने किसने खरीद लिया है
कि मैं इस महान धरती के
आप महान उद्धारकों को
नपुंसक कहे जाता हूँ,
आप विश्वगुरु हैं,
ग़लत कैसे हो सकते हैं?
जहाँ सोने सा जगमगाता अतीत है,
वहाँ ये पाप कैसे हो सकते हैं?
मान्यवर,
मैं नादान हूँ,
पागल हूँ,
मुँहफट हूँ,
गैरज़िम्मेदार हूँ,
मेरी बातें मत सुनिए,
आप महान हैं, समर्थ हैं,
मेरा मुँह बन्द करवाइए
या जीभ पर कोयले धरवाइए,
ज़ल्लाद ढूंढ़ लाइए मेरे लिए
या मेरे विरुद्ध फतवे जारी करवाइए
क्योंकि
मैं कम्बख़्त
जन्म से ही बिक चुका हूँ,
कड़वे सच और उसकी पीड़ा के बदले में।