10.31.2013

मुक्तिबोध : एक संस्मरण -- हरिशंकर परसाई

हरिशंकर परसाई
भोपाल के हमीदिया अस्पताल में मुक्तिबोध जब मौत से जूझ रहे थे, तब उस छटपटाहट को देखकर मोहम्मद अली ताज ने कहा था -



उम्र भर जी के भी जीने का अन्दाज आया
    जिन्दगी छोड़ दे पीछा मेरा मैं बाज आया


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जो मुक्तिबोध को निकट से देखते रहे हैं, जानते हैं कि दुनियावी अर्थों में उन्हें जीने का अन्दाज कभी नहीं आया। वरना यहाँ ऐसे उनके समकालीन खड़े हैं, जो प्रगतिवादी आन्दोलन के कन्धे पर चढ़कर 'नया पथ' में फ्रन्ट पेजित भी होते थे, फिर पण्डित द्वारकाप्रसाद मिश्र की कृष्णयान का धूप-दीप के साथ पाठ करके फूलने लगे और अब जनसंघ की राजमाता की जय बोलकर फल रहे हैं। इसे मानना चाहिए कि कि पुराने प्रगतिवादी आन्दोलन ने भी मुक्तिबोध का प्राप्य नहीं दिया। बहुतों को दिया। कारण, जैसी स्थूल रचना की अपेक्षा उस समय की जाती थी, वैसी मुक्तिबोध करते नहीं थे। न उनकी रचना में कहीं सुर्ख परचम था, न प्रेमिका को प्रेमी लाल रूमाल देता था, न वे उसे लाल चूनर पहनाते थे। वे गहरे अंतर्द्वंद्व और तीव्र सामाजिक अनुभूति के कवि थे। मजे की बात है कि जो निराला की सूक्ष्मता को पकड़ लेते थे, वे भी मुक्तिबोध की सूक्ष्मता को नहीं पकड़ते थे।

दूसरी तरफ के लोग उनके पीछे विच हण्ट लगाए थे। उनके ऊबड़-खाबड़पन से अभिजात्य को मतली आती थी। वे उनके दूसरे खेमे में होने की बात को इस तरह से कहते थे, जैसे - ए गुड मैन फालन अमांग फैबियंस।

हरिपाल त्यागी की कूची से मुक्तिबोध
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10.29.2013

राजेन्द्र यादव : नई कहानी आन्दोलन की यशस्वी त्रयी का आख़िरी स्तम्भ भी नहीं रहा


प्रेस विज्ञप्ति

राजेंद्र यादव
लखनऊ, 29 अक्टूबर। ‘हंस’ के सम्पादक और प्रख्यात साहित्यकार राजेन्द्र यादव के निधन पर आज यहां ‘जनचेतना’ और राहुल फाउण्डेशन की ओर से हुई बैठक में गहरा शोक व्यक्त किया गया और उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि दी गई।

राहुल फाउण्डेशन की अध्यक्ष और लेखिका कात्यायनी ने कहा कि राजेन्द्र यादव के निधन से नई कहानी आन्दोलन की यशस्वी त्रयी का आख़िरी स्तम्भ भी नहीं रहा। ‘हंस’ के ज़रिए उन्होंने दलित और स्त्री विमर्श को हिन्दी साहित्य के केन्द्र में लाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इसके साथ ही हंस को उन्होंने विभिन्न वैचारिक बहसों का मंच बनाया और हर तरह के कट्टरपंथ के खिलाफ दृढ़ता से आवाज़ उठाते रहे। हमेशा चर्चा के केन्द्र में रहने की कला के वे महारथी थे और कई बार वे अप्रिय विवादों के केन्द्र में भी रहे, मगर उनका व्यवहार आजीवन बेहद जनवादी, खुला और स्पष्टवादिता का रहा। उनके निधन से हिन्दी साहित्य में जो खालीपन पैदा हुआ है उसे भरना बहुत मुश्किल होगा।

अन्य वक्ताओं ने राजेन्द्र जी की विभिन्न कहानियों और खासकर कट्टरपंथियों के विरुद्ध उनके सम्पादकीय लेखों को याद करते हुए कहा कि आज के समय में राजेन्द्र यादव जैसे साहित्यकारों की कमी खलेगी। इस अवसर पर सत्यम, संजय श्रीवास्तव, रामबाबू, शाकम्भरी, गीतिका, सौरभ बनर्जी, आशीष कुमार सिंह, वन्दना, अमेन्द्र कुमार, सत्येन्द्र सिंह, शिवा, शिप्रा श्रीवास्तव, लालचन्द्र, रवि कुमार आदि उपस्थित थे।

गीतिका
कृते, जनचेतना

4.14.2013

इस बार उसकी याद में...

जीने की प्रबल इच्छा सभी में होती है, और हमसे बढ़कर जिंदगी से प्यार कर भी कौन सकता है। लेकिन, वह...उसे भी तो जीने की इच्छा होगी? जैसे हर क्रांतिकारी की होती है, भले ही राजसत्ता उसे हिंसा का पुजारी साबित करे, या भोगवादी या कुछ भी और। उसे भी घूमने-फिरने की, किसी के संग-साथ की जरूरत महसूस होती होगी।

लेकिन शालिनी हम सबसे पहले इस दुनिया को अलविदा कह कर चली गयी। सोचा नहीं था कि यह सब इतनी जल्दी हो जाएगा। अंत तक लड़ी थी बहादुरी से, आखिरी मुलाकात में भी आईसीयू से निकालने की जिद और चेहरे पर मुस्कान थी। उसकी एक ना चली, मौत बड़ी बेरहम होती है, हम लोगों को भ्रम होता रहा कि उसकी सांसे चल रही हैं, लेकिन डॉक्टरों ने साबित कर दिया कि हमें भ्रम ही हो रहा है।

 
अब उसके साथ बिताए पल जेहन में घूम रहे हैं। बहुत कम मुलाकात के बावजूद, बहुत ज्यादा जगह बनायी थी उसने मेरी जिंदगी में। शायद यह कभी किसी से ना कह पाऊं। मुझे थकता देख कहती थी कि जाओ आराम कर लो, मेरी और देखभाल करना अभी तुम्हारी मजबूरी है। मैंने भी तो यही कहा था उससे कि फिलहाल आईसीयू में रहना तुम्हारी मजबूरी है; हालांकि यह भी कहा था कि मैं तुम्हारे पक्ष में हूं कि आईसीयू में नहीं रहना चाहिए, यहां तो अच्छा खासा इंसान भी बीमार हो जाए। मशीनों की आवाजें, दवाओं की गंध, मरीजों की कराहें, हल्की रोशनी, क्या यह किसी को बीमार करने के लिए काफी नहीं हैं? मेरे मजाक करने पर हंसी थी वह, और मुझ पर तीन दिन से तारी तनाव छू हो गया था, लगा था कि वह अब ठीक हो रही है... खतरा टल रहा है। पूरे शरीर पर सूजन और हिलने-डुलने में जिस असमर्थता के कारण उसे आपातस्थिति में भर्ती कराया था वह दूर होती दिख रही थी, लग रहा था कि अब जल्दी ही वह इस आपातस्थि‍ति से उबर पाएगी। 

लेकिन ऐसा नहीं हुआ, मौत हरजाई होती है, किसी को भी धोखा दे सकती है। वहां पहुंच जाती है जहां उसके पहुंचने की उम्मीद नहीं होती। एकदम असभ्य होती है कमबख्त मौत। और तब महसूस होती है अपनी लाचारी, विज्ञान का अधूरापन। क्यों नहीं बचा पाते हैं हम कीमती जिंदगियां तक! क्यों!!!???

3.04.2013

'असली इन्सान' उपन्‍यास के 'कमिसार' जैसे पात्र हवा से पैदा नहीं होते, वे आपके हमारे बीच ही जन्‍म लेते हैं









संदीप संवाद


कविता, कहानी, उपन्‍यास, नज़्म, फिल्‍म, थियेटर आदि से अक्‍सर लोगों को भावुक, प्रेरित, क्रोधित, जज्‍़बाती, उदास होते हुए देखा है। आखिर हो भी क्‍यों न, जिंदगी का संश्लिष्‍ट रूपांतरण ही तो कला होती है। कला हमारे आसपास-परिवेश को ज्‍यादा गहराई से देखने-समझने और महसूस करने के प्रति, और यहाँ तक कि जो चीज़ें हम आमतौर पर महसूस नहीं कर पाते, समझ-देख नहीं पाते उनके प्रति भी हम में संवेदन पैदा करती है। लेकिन क्‍या हमारी संवेदनाएं केवल कला की मोहताज हैं?

अपने आसपास देखने पर कई बार ऐसा ही लगता है। कॉफी हाउसों की मण्‍डलीबाजियों, कॉमरेडों के कमरों में बैठकी करते समय या सड़क पर चहलकदमी करते हुए, अक्‍सर दुनिया-जहान के दुख-दर्द, अमानवीयता, अपराध, असहिष्‍णुता, संवेदनहीनता, कैरियरवाद, असमानता, क्रांति, फिल्‍म-कला-प्रेम आदि पर बातें हो ही जाया करती हैं। लेकिन कभी-कभी इन सबके बीच, जीते-जागते, हाड़-मांस के बने इन्‍सान कहीं गुम-से हो जाते हैं। गुम हो जाती हैं उनकी तकलीफ़ें, उनके सपने, उनकी कुर्बानियां, उनकी बहादुरी...
    
     शालिनी को कैंसर होने की सूचना मिली तो सामने उसका चेहरा कौंध गया था। एक कार्यक्रम में दस साल पहले हुई मुलाकात, कुछ औपचारिक शब्‍दों का आदान-प्रदान, बस इतना ही तो! उसके बाद कार्यक्रम में शालिनी पर ध्‍यान ही नहीं गया, क्‍योंकि वह नज़र ही नहीं आती थी। कभी सरसराती हुई सामने से गुज़रती तो पता चलता कि शायद कुछ कम पड़ गया है, शालिनी उसी की व्‍यवस्‍था में जुटी है। फिर कभी-कभार मेहमानों और साथियों की ज़रूरत की चीज़ें लाते-ले जाते दिख जाती। यही पहली मुलाकात थी, और इस मुलाकात के दौरान एक बात खटकी थी कि युवा होते हुए भी वह क्‍यों इतना कम बोलती-मुस्‍कुराती है, जबकि कम्‍युनिस्‍ट तो ज़ि‍न्‍दादिल होते हैं (लेकिन उस समय शायद मेरे लिए जिंदादिली का मतलब हीं-हीं-ठीं-ठीं करना ही था, और अच्‍छा ही था कि हमारे साथी ''जिन्‍दादिल'' नहीं रहे)। खैर, बात आई-गई हो गयी और हम लोग अपनी-अपनी जगहों पर लौट आए।

     इस बीच जब भी शालिनी का नाम कहीं सुनने को मिलता, तो किसी न किसी काम के संबंध में सुनने को मिलता। शालिनी पुस्‍तक प्रतिष्‍ठान 'जनचेतना' के लखनऊ स्थित केन्‍द्र की प्रभारी है, बच्‍चों के लिए गठित संस्‍था 'अनुराग ट्रस्‍ट' की एक न्‍यासी है, परिकल्‍पना प्रकाशन की निदेशक है, राहुल फाउण्‍डेशन के प्रकाशन का काम देखती है और अरविन्‍द स्‍मृति न्‍यास का पुस्‍तकालय भी सम्‍भालती है। शालिनी ने सभी जिम्‍मेदारियों को एक कर्मठ क्रांतिकारी की तरह पूरा किया, हर तरह की कमियों-लापरवाहियों को दूर करने की दिशा में निरंतर काम किया। ऐसा करते हुए, शालिनी क्रांतिकारी अनुशासन का न सिर्फ स्‍वयं पालन किया बल्कि अन्‍य साथियों को भी ज्‍यादा दृढ़ता के साथ ऐसा करने के लिए प्रेरित किया। एक साथी मजाक में कहते कि मैं शालिनी के सामने ही नहीं पडूंगा क्‍योंकि अगर ग़लती से कोई ग़लती हो गयी, तब फिर शालिनी मुझे नहीं बख्‍शने वाली... उसूलों की बहुत पक्‍की हैं।
     एक कम्‍युनिस्‍ट के लिए सबसे तकलीफदेह यही होता है कि वह किसी वजह से अपने कामों में शिरकत न कर पाए। अब लगभग रोज की मुलाकात में महसूस भी हो रहा है कि शालिनी अपनी बीमारी से ज्‍यादा इस बात से चिड़चिड़ाती हैं कि वह अपने मोर्चे पर नहीं हैं। दर्द, तकलीफ़ वगैरह तो वह बेहद बहादुरी से झेल रही हैं, और युवा साथियों को उनसे सीखना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि निकोलाई ऑस्‍त्रोवेस्‍की, या असली इन्सान उपन्‍यास के 'कमिसार' जैसे पात्र हवा से पैदा नहीं होते, वे आपके हमारे बीच ही जन्‍म लेते हैं, यहीं पलते-बढ़ते हैं... बस एक निगाह चाहिए कि जब वास्‍तविक जीवन में ऐसे लोगों से मुलाकात हो तो हम उन्‍हें पहचान सकें।

     जो अंधे हो गए हैं, या जिनकी रगों का खून बिल्‍कुल ठंडा हो चुका है, उन्‍हें यह सब सामान्‍य लगेगा, क्‍योंकि शालिनी के जीवन पर ना कोई कहानी लिखी गई है, ना कविता, और ना ही फिल्‍म बनी है जो लोगों के दिल-दिमाग को झकझोरे; लेकिन मुर्दानगी छोड़कर शालिनी से मिलिए तो सही!!! उनकी आंखें बोलती हैं, ''ठहरो कॉमरेड, कुछ दिन आराम करना पड़ रहा है, फिर सारा काम पहले की तरह संभाल लूंगी और बेहतर ही संभालूंगी!"

      जल्‍दी किसी से 'कॉमरेड' बोलने का मन नहीं करता, लेकिन आज कर रहा है: ''हां कॉमरेड शालिनी, हमें बेसब्री से इंतज़ार है कि आप अपने मोर्चे पर लौटें, और हम लोग फिर जुट जाए काम में...!!!''

शालिनी का ब्‍लॉग: एक क्रान्तिकारी की जीवनरक्षा का अभियान