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12.15.2009

विश्‍वरंजन और बाबा नागार्जुन की कविता

रविवार डॉट काम पर विश्‍वरंजन का साक्षात्‍कार पढ़ा....खुद को कवि कहलाने के शौकीन इन साहब ने हर सवाल के जवाब में स‍ाहित्यिक लफ्फाज़ी की है.! कवि हैं भई... हिंसा-हिंसा की चीख-पुकार तो मचाते हैं, लेकिन बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों पर कब्‍जे से उन्‍हें कोई दिक्‍कत नहीं और जनता से तमाम तरह के टैक्‍स काट कर उसी पैसे को जनता के खिलाफ पुलिस सेना भेजने के लिए इस्‍तेमाल करने को वह घुमा-फिर कर प्रतिहिंसा बताते हैं, हिंसा नहीं।
खैर मैंने पहले अपने ब्‍लॉग पर उनके बारे में छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के दो पर्चे प्रस्‍तुत किए थे....आज नागार्जुन की एक कविता यहां देने का मन कर रहा है....कविता पढ़ि‍ए आप खुद ही समझ जाएंगे मैं क्‍या कहना चाहता हूं, और बाबा नागार्जुन क्‍या कहना चाहते थे....
 
हिटलर के तम्‍बू में

अब तक छिपे हुए थे उनके दांत और नाखून
संस्‍कृति की भट्ठी में कच्‍चा गोश्‍त रहे थे भून।
छांट रहे थे अब तक बस वे बड़े-बड़े कानून।
नहीं किसी को दिखता था दूधिया वस्‍त्र पर खून।
अब तक छिपे हुए थे उनके दांत और नाखून।
संस्‍कृति की भट्ठी में कच्‍चा गोश्‍त रहे थे भून।
मायावी हैं, बड़े घाघ हैं,उन्‍हें न समझो मंद।
तक्षक ने सिखलाये उनको 'सर्प-ऩृत्‍य' के छंद।
अजी, समझ लो उनका अपना नेता था जयचंद।
हिटलर के तम्‍बू में अब वे लगा रहे पैबन्‍द।
मायावी हैं, बड़े घाघ हैं, उन्‍हें न समझो मंद।

यहां उदयप्रकाश की कविता 'तानाशाह' भी एक बार फिर पढ़ ली जाए...

तानाशाह 

वह अभी तक सोचता है
कि तानाशाह बिल्‍कुल वैसा ही या
फिर उससे मिलता-जुलता ही होगा

यानी मूंछ तितलीकट, नाक के नीचे
बिल्‍ले-तमगे और
भीड़ को सम्‍मोहित करने की वाकपटुता

जबकि अब होगा यह
कि वह पहले जैसा तो होगा नहीं
अगर उसने दुबारा पुरानी शक्‍ल और पुराने कपड़े में
आने की कोशिश की तो
वह मसखरा ही साबित होगा
भरी हो उसके दिल में कितनी ही घृणा
दिमाग में कितने ही खतरनाक इरादे
कोई भी तानाशाह ऐसा तो होता नहीं
कि वह तुरन्‍त पहचान लिया जाये
कि लोग फजीहत कर डालें उसकी 
चिढ़ाएं, छुछुआएं
यहां तक कि मौके-बेमौके बच्‍चे तक पीट डालें
अब तो वह आयेगा तो उसे पहचानना भी मुश्किल होगा
..........................

8.11.2009

डीजीपी विश्‍वरंजन द्वारा इतिहास-दहन और सत्‍य भंजन

विश्‍वरंजन को छत्‍तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा का जवाब

छत्तीसगढ़ पुलिस के डीजीपी विश्‍वरंजन यह पद संभालने के बाद से ही मीडिया के कुछ चंपू-चाकर कलमघसीटों की मदद से सलवा जुडूम की दरिंदा मुहिम के पक्ष में और ''माओवादियों'' के बहाने विभिन्‍न जनांदोलनों और जनपक्षधर बुद्धिजीवियों के खिलाफ कुत्‍साप्रचार और झूठ का अभियान छेड़े हुए हैं। अब उन्‍होंने एक नया पैंतरा आज़माते हुए लेखकों-साहित्‍यकारों की गोलबंदी भी शुरू कर दी है। हिंदी के अनेक वरिष्‍ठ साहित्‍यकार पिछले दिनों इनके बुलावे पर प्रमोद वर्मा स्‍मृति समारोह में शिरकत भी कर आए। सबसे पहले युवा आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने एक खुला पत्र लिखकर इसका विरोध किया था, फिर आशुतोष कुमार ने जनसत्ता (3 अगस्‍त) की टिप्‍प्‍णी 'यह सांस्‍कृतिक सलवा जुडूम है' में विश्‍वरंजन के पाखंड और झूठ को नंगा किया था, जिसे धीरेश ने अपने ब्‍लॉग पर पोस्‍ट किया था।

इसी सिलसिले में याद आया कि पिछले साल छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा द्वारा विश्‍वरंजन को दिए गए ज़बर्दस्‍त जवाब की प्रति रायपुर के एक पत्रकार मित्र के माध्‍यम से मिली थी। अगस्‍त 2007 में 'छत्तीसगढ़' अखबार में सात किश्‍तों में विश्‍वरंजन का साक्षात्‍कार छपा था जिसमें उन्‍होंने सलवा जुडूम के पक्ष में ढेरों तर्क देने के साथ ही छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा और अन्‍य जनसंगठनों तथा मानवाधिकार व नागरिक अधिकार कर्मियों तक के खिलाफ जमकर झूठ उगला था। छत्तीसगढ़ के कुछ बुद्धिजीवियों ने इसके खिलाफ अखबारों में लेख भी लिखे लेकिन ज़्यादातर इतने पिलपिले थे कि विश्‍वरंजन ने उन्‍हें पटरा कर दिया। 17 मार्च 2008 को नई दुनिया में एक बयान में विश्वरंजन ने फिर से शहीद शंकर गुहा नियोगी के खिलाफ अनर्गल आरोप लगाए। इसके बाद छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने एक लंबा लेख लिखकर न केवल विश्‍वरंजन के एक-एक झूठ का पर्दाफ़ाश किया बल्कि बौद्धिकता के आवरण में लिपटे उनके तमाम ख़तरनाक तर्कों का ऐसा करारा जवाब दिया कि उनकी बोलती ही बंद हो गई। बताते हैं कि छ.मु.मो. ने इस लेख की 25-30 हज़ार प्रतियां बंटवाई। कुछ दिन बाद छ.मु.मो. ने विश्‍वरंजन की पोल खोलते हुए एक और पर्चा जारी किया। पत्रकार मित्र के अनुसार ऐसा करारा जवाब पाने की डीजीपी महोदय को उम्‍मीद नहीं थी। उन्‍हें ऐसा सदमा लगा कि कुछ दिन की छुट्टी लेकर दिल्‍ली चले गए।

उन दोनों पर्चों की पीडीएफ फाइलों के लिंक देने के साथ ही दोनों पर्चे इसी पोस्‍ट में नीचे भी दे रहा हूं। पहला पत्र थोड़ा लंबा है लेकिन अपने बॉस की तरफ़ से जयप्रकाश मानस (प्रमोद वर्मा संस्‍थान के सचिव और डीजीपी के भोंपू) ने जो लंबा खर्रा पंकज चतुर्वेदी के जवाब में लिख मारा, और आशुतोष कुमार के जनसत्ता में छपे लेख के जवाब में राम पटवा विश्‍वरंजन और सलवा-जुडूम का बचाव करते हुए जिस टिप्‍पणी में इस हद तक गुजर गए हैं कि पुलिसवालों द्वारा आदिवासी युवतियों के बलात्‍कार को मामूली बताया है, उससे तो छोटा ही है।



CMM 12


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