12.13.2007

दो छोटी कविताएं

शशिप्रकाश की कविताएं पढ़ रहा हूं इन दिनों। ये दो छोटी कविताएं अच्छी लगीं...उम्मीद है आपको भी पसंद आएंगी...


अपनी जड़ों को कोसता नहीं
उखड़ा हुआ चिनार का दरख्त।
सरू नहीं गाते शोकगीत।
अपने बलशाली होने का
दम नहीं भरता बलूत।
घर बैठने के बाद ही
क्रान्तिकारी लिखते हैं
आत्मकथाएं

और आत्मा की पराजय के बाद

वे बन जाते हैं
राजनीतिक सलाहकार।

********

सबसे अहम बात यह है
कि हमारे पैर नहीं हैं
घिसे हुए जूते।
हमारे लोग नहीं हैं
अंगोरा खरगोश।
हम ऐसे आतुर चक्के नहीं हैं
जिन्हें एक खड़-खड़ करती
ज़ंग लगी चेन भी
घुमा सके
अपनी मर्जी के मुताबिक।


* शशिप्रकाश

11.27.2007

एक कहानी


प्रेम... यह शब्‍द सुनते ही मन के समंदर में कई विचार और अनुभव डूबते-उतराने लगते हैं...कितनी ही उम्र क्‍यों न हो...प्रेम कहानियां सबको रोमांचित करती हैं...और करती रहेंगी...चाहे कोई भी युग हो कोई भी देश....लैला-मजनूं, हीर-रांझा, रोमियो-जूलियट जैसी तमाम कहानियां सदियों से चली आ रही हैं...लेकिन आज मैंने एक कहानी सुनी...एक प्रेम कहानी, और मानवीय त्रासदी की दास्‍तान....जिसमें न तो खलनायक है, न बैरी जमाना। बस संवेदनाएं हैं, और तकलीफ। और हां! जो इसमें छिपा है शायद उसी को कहा जाता हो - सच्‍चा प्रेम!





***

दुनिया के किसी कोने में एक लड़की रहती थी...हर लड़की की तरह उसके भी कुछ अरमान थे...वह भी सपने देखा करती थी, लेकिन मन की आंखों से। हां, मन की आंखों से... क्‍योंकि वह देख नहीं सकती थी। शायद यही वजह थी कि वह सबसे नफरत करने लगी थी, सिवाय अपने प्रेमी के।
वह उससे अक्‍सर कहा करती, ''यदि मैं तुम्‍हें देख पाती तो मैं निश्चित ही तुमसे शादी कर लेती।''...
एक दिन अचानक यूं हुआ कि किसी ने उस लड़की के जीवन में रंग भर दिए, उसे अपनी आंखें दान करके....। अब वह देख सकती थी...उसे सब कुछ खूबसूरत लगने लगा था...। लेकिन जब उसने अपने प्रेमी को देखा तो ऊंची उड़ान भरता उसकी कल्‍पनाओं का परिंदा धम्‍म से नीचे आ गिरा...।
उसका प्रेमी भी अंधा था...।
जब उसके प्रेमी ने उससे पूछा, ''क्‍या अब तुम मुझसे शादी करोगी?''
लड़की ने, जो अब देख सकती थी, बेहद रूखे ढंग से जवाब दिया, ''नहीं...! ''
यह सुनकर उसका प्रेमी अपने चेहरे पर मुस्‍कुराहट लिए वहां से चल दिया...और जाते-जाते केवल इतना कहा,
''मेरी आंखों का ख्‍याल रखना प्रिय...!''


(यह कहानी मैंने ऑर्कुट पर रेयाज़-उल-हक़ जी के स्‍क्रैपबुक में पढ़ी थी, किन्‍हीं ताया ने वहां लिखी थी। पता नहीं इसके वास्‍तविक लेखक कौन हैं। बस दिल को छू गई और हिंदी में अनुवाद करके आप तक पहुंचा रहा हूं।)

11.19.2007

...एक सपना जो पूरा करना है

हम कल बनाएंगे
एक साफ़-सुथरा शहर,
जहां दुख नहीं होगा,
प्यारे-प्यारे लोग जहां घूमेंगे यहां-वहां
हम सब ताकतवर होंगे
होंगे सब के सब जवां
न आंसू भरे दिन होंगे
और न भय भरे दिन।


-डब्ल्यू.एच.ऑडेन

(दि डांस ऑफ डेथ नाटक का अंश )

11.09.2007

एक साल बहुत होते हैं, करीम को रिहा करो


मिस्‍त्र की सरकार और भारत में उसके प्रतिनिधियों के नाम...
युवा ब्‍लॉगर करीम को रिहा करो। अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर हमले बंद करो।




द्वारा,

संदीप, रेयाज़, कुमार मुकुल, मिहिरभोज, किताब

11.08.2007

सभी चिट्ठाकार साथियों के नाम


यदि आपने मिस्‍त्र के ब्‍लॉगर करीम के बारे में मेरी पिछली पोस्‍ट पढ़ी होगी तो आपको मामले की जानकारी होगी। (उन्‍हें मिस्‍त्र की सरकार ने पिछले साल 9 नवंबर को गिरफ्तार किया था, और अभी तक रिहा नहीं किया है। उनका अपराध था अपने विचार व्‍यक्‍त करना।) यदि आपने नहीं पढ़ी है तो एक बार जरूर देख लें। सभी चिट्ठाकार साथियों के नाम मेरा प्रस्‍ताव है कि 9 नवंबर को एक ही समय (संभत हो तो सुबह 11 बजे, या जो समय ठीक लगे) सभी चिट्ठाकार साथी अपने ब्‍लॉग में करीम की रिहाई की मांग करते हुए एक पोस्‍ट लिखें। पोस्‍ट में करीम की फोटो भी लगाई जा सकती है। जरूरी नहीं कि यह बहुत बड़ी पोस्‍ट हो। यह केवल प्रतीकात्‍मक प्रतिरोध होगा। यह तय है कि ब्‍लॉग जगत की हलचलों को भी अनदेखा नहीं किया जाता है, इसलिए मेरा प्रस्‍ताव है कि सभी साथ इस पर अमल करें तो बेहतर होगा। मैं एक कविता की पंक्तियों के साथ समाप्‍त कर रहा हूं :

पहले वे आए

यहूदियों के लिए

और मैं कुछ नहीं बोला

क्‍योंकि मैं यहूदी नहीं था।


फिर वे आए
कम्‍युनिस्‍टों के लिए

और मैं कुछ नहीं बोला

क्‍योंकि मैं कम्‍युनिस्‍ट नहीं था।


फिर वे आए

मजदूरों के लिए

और मैं कुछ नहीं बोला

क्‍योंकि मैं मज़दूर नहीं था।


फिर वे आए

मेरे लिए

और कोई नहीं बचा था

जो मेरे लिए बोलता।




पास्‍टर निमोलर

(हिटलर काल के जर्मन कवि)

11.04.2007

अभिव्‍यक्ति की कीमत चुकाता ब्‍लॉगर


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर हमेशा ही हमले होते रहे हैं और यह गैर-जनवादी हरकतें अब भी दुनिया भर में जारी है। पहले प्रेस, रेडियो, टीवी इसका शिकार होते थे, अब संचार-क्रांति के युग में इंटरनेट भी इसके निशाने पर है। और इंटरनेट पर ब्‍लॉग के बढ़ते कदमों पर भी विचारों की स्‍वतंत्रता के विरोधियों की तिरछी निगाहें हैं। खैर, सीधे मुद्दे की बात की जाए तो बेहतर होगा। दरअसल, मिस्‍त्र के एक ब्‍लॉगर करीम आमिर को पिछले साल वहां की सरकार ने 'इस्‍लाम विरोधी' और 'सरकार विरोधी' विचार व्‍यक्‍त करने पर गिरफ्तार कर लिया था, इस महीने की 9 तारीख को उनकी गिरफ्तारी को पूरे एक साल हो जाएंगे। और इस एक वर्ष में दुनियाभर की मीडिया में मामले की चर्चा के बावजूद उन्‍हें रिहा नहीं किया गया है। सवाल यह उठता है कि यदि वह धर्म के खिलाफ लिख रहे थे तो सरकार या धार्मिक संगठनों को उनके तर्कों को खारिज करना चाहिए था, गिरफ्तार करना तो लोकतांत्रिक बर्बरता के सिवा कुछ नहीं है। आप जवाब नहीं दे पाए तो कानून का डंडा चला दिया। जबकि सरकार के हाथ में ताकत है, मीडिया पर नियंत्रण है।

खैर, पूरे मामले की जानकारी के लिए हमें घटनाक्रम का ब्‍यौरा देना होगा, हालांकि यह कुछ साथियों को उबाऊ लग सकता है, लेकिन यह अपरिहार्य है। दरअसल, करीम आमिर नाम के एक युवा और विद्रोही ब्‍लॉगर लगातार अपने ब्‍लॉग में वहां की अल-अजहर यूनिवर्सिटी की नीतियों, धार्मिक कट्टरपंथ और सरकार के खिलाफ लिख रहे थे। अब्‍दुल करीम नबील सुलेमान, जिन्‍हें ब्‍लॉगिंग की दुनिया में करीम आमिर के छदद्यनाम से जाना जाता है, मिस्‍त्र के अलेक्‍जेंड्रिया के मूल निवासी हैं। एक बेहद धार्मिक परिवार के सदस्‍य करीम ने जीवन भर अल-अजहर धार्मिक शिक्षा व्‍यवस्‍था से शिक्षा ग्रहण की। बाद मैं उन्‍होंने धार्मिक कट्टरपंथ के बारे में अपने अनुभवों को अपने ब्‍लॉग के जरिये दुनिया के साथ साझा करना शुरू किया।

2005 में अल-अजहर के प्रबंधन को उनके ब्‍लॉग के बारे में जानकारी मिली तो उन्‍हें विश्‍वविद्यालय से निकाल दिया गया और राज्‍य अभियोजक को मामला सौंप दिया। मार्च 2006 की शुरुआत में अब्‍दुल करीम को अल-अजहर विश्‍वविद्यालय की शरिआ एंड लॉ फेकल्‍टी के अनुशासन बोर्ड के सामने प्रस्‍तुत होने को कहा गया। वहां पूछताछ के दौरान उन्‍हें वे लेख दिखाए गए जो उन्‍होंने अपने ब्‍लॉग पर लिखे थे। इनमें उन्‍होंने र्ध्‍मनिरपेक्ष विचार व्‍यक्‍त किये थे, लैंगिक समानता को बढ़ावा दिया था, और अल अजहर यूनिवर्सिटी की आलोचना की थी उनके उन लेखों पर आपत्ति की गयी जिनमें उन्‍होंने धर्मनिरपेक्षता की बात की थी, विश्‍वविद्यालय की लैंगिक अलगाव की नीति की आलोचना की थी, और अल-अजहर के शेख द्वारास्‍लामिक शोध अकादमी पर राष्‍ट्रपति मुबारक के प्रति विश्‍वसनीयता की शपथ लेने का दबाव बनाने से असहमति जताई थी। इस पर करीम का जवाब था कि ये लेख उनक व्‍यक्तिगत विचारों का प्रतिनियध्त्वि करते है और ये इंटरनेट पर प्रसारित किये थे, न कि कैंपस प्रांगण में, उन्‍होंने स्‍वीकार किया कि ये लेख उन्‍होने ही लिखे थे। पूछताछ के अंत में उन पर निम्‍न आरोप लगाये गये :

सामान्‍य तौर पर धर्म और, विशेषत: इस्‍लाम की अवमानना;

अल-अजहर के प्रमुख शेख,और साथ ही साथ अन्‍य प्रोफसरों का अपमान; और

निरीश्‍वरवाद का प्रचार।

कुछ दिनों बाद उन्‍हें औपचारिक तोर पर विश्‍वविद्यलाय से निष्‍कासित कर दिया गया, शरिआ और विधि संकाय के डीन डा. हामिद शाल्‍बी ने इस जांच के दस्‍तावेज लोक अभियोजक को सौंप दिये। करीम ने इन घटनाओं की ब्‍यौरेवार जानकारी अपने ब्‍लॉग पर दी। करीम को नवंबर 2006 की शुरुआत में अभियोजक कार्यालय में पेश होने का आदेश दिया गया। उनके व्‍यक्तिगत धार्मिक विश्‍वासों और वर्तमान राजनीतिक मामलों पर उनकी राय के बारे में पूछताछ की गयी। जब उन्‍होंने अपने ब्‍लॉग पर लिखे गये लेखों से मुकरने से इंकार कर दिया तो उन्‍हें हिरासत में ले लिया गया। उसके बाद दो महीने तक उन पर कोई मामला चलाए बिना ही उन्‍हें हिरासत में रखा गया औ 22 फरवरी, 2007 को करीम ब्‍लॉग में लिखे लेखों के लिए चार साल कैद की सजा सुनाई गयी : जिसमें से तीन साल 'धर्म की अवमानना' के लिए और एक साल मिस्‍त्र के राष्‍ट्रपति की छवि धूमिल करने के लिए थी। मार्च के मध्‍य में अपील कोर्ट ने उनकी चार वर्ष की सजा को बरकरार रखने का फैसला सुनाया, और जज ने ग्‍यारह वकीलों द्वारा दायर दीवानी मामले को स्‍वीकार किया, ये वकील 'इस्‍लाम के अपमान' के लिए करीमको दंण्‍ड देना चाहते हैं



मिस्‍त्र की सरकार ने उन पर यह आरोप लगाए:

अरैबिक नेटवर्क फॉर ह्यूमन राइट्स इन्‍फॉरमेशन के अनुसार, करीम पर निम्‍न मामलों को दोषी ठहराया गया है

1- नागरिक सुरक्षा को नुकसान पहुंचाने वाले आंकड़े और खतरनाक अफवाहों का प्रचार, 2- मिस्‍त्र के राष्‍ट्रपति की अवमानना, 3- घृणा और निंदा के जरिये तख्‍ता पलटके लिए उकसाना,इस्‍लाम से नफरत के लिए उकसाना और नागरिक शांति के मानकों की अवहेलना, 5- मिस्‍त्र की छवि को नुकसान पहुचाने वाले पहलुओं को रेखांकित करना और जनता में उन का प्रसार करना।




11.03.2007

जीवन-लक्ष्‍य


''दार्शनिकों ने दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है, पर सवाल उसे बदलने का है!''
-- कार्ल मार्क्‍स
जिनका आज (5 मई) जन्‍मदिवस है।

जीवन-लक्ष्
(18 वर्ष की आयु में मार्क्द्वारा लिखी गई कविता)

कठिनाइयों से रीता जीवन

मेरे लिए नहीं,

नहीं, मेरे तूफानी मन को यह स्‍वीकार नहीं।

मुझे तो चाहिए एक महान ऊंचा लक्ष्‍य

और उसके लिए उम्र भर संघर्षों का अटूट क्रम।

ओ कला! तू खोल

मानवता की धरोहर, अपने अमूल्‍य कोषों के द्वार

मेरे लिए खोल!

अपनी प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में

अखिल विश्‍व को बांध लूंगा मैं!

आओ,

हम बीहड़ और कठिन सुदूर यात्रा पर चलें

आओ, क्‍योंकि -

छिछला, निरुद्देश्‍य और लक्ष्‍यहीन जीवन

हमें स्‍वीकार नहीं।

हम, ऊंघते कलम घिसते हुए

उत्‍पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे।

हम - आकांक्षा, आक्रोश, आवेग, और

अभिमान में जियेंगे!

असली इन्‍सान की तरह जियेंगे।

6.19.2007

सामाजिक आवश्‍यकता

केवल विचारों की वेश्‍यावृत्ति से समाज नहीं बदला करते, केवल किताबें पढने से समाज नहीं बदला करते। समाज में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए जरूरी है अपने सिद्धांतों को व्‍यवहार में उतारना। जिस समाज के लिए आप चिंतित हैं उसे बदलने का प्रयास करना, नहीं तो सारे वाद-विवाद व्‍यर्थ हैं। और हर संवेदनशील व्‍यक्ति को इस काम के लिए आगे आना चाहिए। दोब्रोल्‍युबोव का एक बेहद संक्षिप्‍त निबंध पढने के बाद यही विचार मेरे मन में उठे, तो मुझे लगा कि इन्‍हें हिंदी चिट्ठाजगत के साथियों के साथ जरूर साझा किया जाना चाहिए। दोब्रोल्‍युबोव रूस के एक बड़े साहित्‍यकार, दार्शनिक और चिंतक थे और जिंदगी भर उन्‍होंने अपने विचारों पर अमल किया। 1861 में पच्‍चीस वर्ष की अल्‍पायु में इस तरुण साहित्‍यकार का निधन हो गया था। प्रस्‍तुत है यह लेख :


सामाजिक आवश्‍यकता
सूक्ष्‍म सैद्धांतिक स्‍तर पर इस मत से इन्‍कार नहीं किया जा सकता कि समाज में विचार बराबर आन्‍दोलित और परिवर्तित होते रहते हैं, गति और परिवर्तन की प्रक्रिया निरन्‍तर चलती रहती है, और इसलिए ऐसे लोगों की भी बराबर आवश्‍यकता रहती है जो इन विचारों का प्रचार करें। ये सब बिल्‍कुल ठीक है। किन्‍तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि समाज के जीवन का लक्ष्‍य एकमात्र वाद-विवाद नहीं और विचारों का आदान-प्रदान नहीं है, केवल इसी में उसके जीवन की इतिश्री नहीं है। विचारों और उनके क्रमश: वकास का महत्‍व केवल इस बात में है कि प्रस्‍तुत तथ्‍यों से उनका जन्‍म होता है और वे यथार्थ वास्‍तविकता में सदा परिवर्तनों की पेशवाई करते हैं। परिस्थितियां समाज में एक आवश्‍यकता को जन्‍म देती हैं। इस आवश्‍यकता को सब स्‍वीकार करते हैं, इस आवश्‍यकता की आम स्‍वीकृति के बाद यह जरूरी है कि वस्‍तुस्थिति में परिवर्तन हो, ताकि सबके द्वारा स्‍वीकृत इस आवश्‍यकता को पूर्ण किया जा सके। इस प्रकार किन्‍हीं विचारों तथा आकांक्षाओं की समाज द्वारा स्‍वीकृति के बाद ऐसे दौर का आना लाजिमी है जिसमें इन विचारों तथा आकांक्षाओं को अमल में उतारा जा सके। चिन्‍तन-मनन और वाद-विवाद के बाद क्रियाशीलता का श्रीगणेश होना चाहिए। ऐसी दशा में, प्रश्‍न किया जा सकता है : पिछले बीस-तीस वर्षों में हमारे समाज ने क्‍या किया है? अब तक - कुछ नहीं। उसने मनन-अध्‍ययन किया, विकसित हुआ, रूदिनों (रूसी साहित्‍य के नायकों) के प्रवचनों को सुना, अपने विश्‍वासों के लिए संघर्ष के दौर में लगे आघातों पर उनके साथ सहानुभूति प्रकट की, कार्यक्षेत्र में उतरने की तैयारी की, किन्‍तु किया कुछ नहीं! ढेर की ढेर सुन्‍दर भावनाओं-कल्‍पनाओं से लोगों के हृदय-मस्तिष्‍क पट गये; समाज की वर्तमान व्‍यवस्‍था के बेतुकेपन और बेहूदगी का इतना पर्दाफाश किया गया कि पर्दाफाश करने के लिए और कुछ रह ही नहीं गया। प्रतिवर्ष विशिष्‍ट, अपने-आपको ''चारों ओर की वास्‍तविकता से ऊंचा समझनेवाले,'' लोगों की संख्‍या बढने लगी। ऐसा मालूम होता था कि शीघ्र ही हम सब लोग वास्‍तविकता से ऊंचे उठ जायेंगे। ऐसी दशा में, स्‍पष्‍ट ही, भावना कि हम सदा इसी प्रकार विषमता, सन्‍देह, वायवी दुख और हवाई ढारस के दुरूह पथ पर चलते रहेंगे, कोई अर्थ नहीं रखती। अब तक यह स्‍पष्‍ट हो जाना चाहिए कि हमें ऐसे लोगों की आवश्‍यकता नहीं जो ''हमें चारों ओर की वास्‍तविकता से ऊंचा उठाने वाले'' हों। हमें ऐसे लोगों की आवश्‍कता है जो स्‍वयं हमें वास्‍तविकता को ऊंचा उठाना सिखायें, ताकि हम उसे उन संगसत मानों के स्‍तर पर ला सकें जिन्‍हें सब मानते और स्‍वीकार करते हैं।

3.30.2007

...युद्ध का मोर्चा हर जगह है

'' प्रत्‍येक कलाकार, प्रत्‍येक वैज्ञानिक, प्रत्‍येक लेखक को अब यह तय करना होगा कि वह कहां खड़ा है। संघर्ष से ऊपर, ओलंपियन ऊंचाईयों पर खड़ा होने की कोई जगह नहीं होती। कोई तटस्‍थ प्रेक्षक नहीं होता...युद्ध का मोर्चा हर जगह है। सुरक्षित आश्रय के रूप में कोई पृष्‍ठभाग नहीं है...कलाकार को पक्ष चुनना ही होगा। स्‍वतंत्रता के लिए संघर्ष या फिर गुलामी- उसे किसी एक को चुनना ही होगा। मैंने अपना चुनाव कर लिया है। मेरे पास और कोई विकल्‍प नहीं है।''
पॉल रोबसन, 24 जुलाई, 1937
(स्‍पेन में फासिस्‍ट ताकतों के विरुद्ध जारी संघर्ष के दौरान आह्वान)

3.21.2007

शब्द हथियार हैं


चारों तरफ मचा हुआ है
बौ‍द्धिक झिंगुरों का शोर।

उनके जीवन में
समाजवाद की बहार है,
इन कलमघसीटों के लिए
शब्द...
महज कमाई का जरिया हैं,
लेकिन
हमारे लिए

ये शब्द‍ ही हथियार हैं।
- सर्जक

साहित्य का उद्देश्

... जब तक साहित्‍य का काम केवल मनबहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियां गा-गाकर सुलाना, केवल आंसू बहाकर जी हल्‍का करना था, तब तक इसके लिए कर्म की आवश्‍यकता न थी। वह एक दीवाना था, जिसका गम दूसरे खाते थे, मगर हम साहित्‍य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्‍तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्‍य खरा उतरेगा, जिसमें उच्‍च चिन्‍तन हो, स्‍वाधीनता का भाव हो, सौन्‍दर्य का सार हो, सृजन की आत्‍मा हो, जीवन की सच्‍चाइयों का प्रकाश हो- जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं; क्‍योंकि अब और ज्‍यादा सोना मृत्‍यु का लक्षण है।
- प्रेमचंद

3.18.2007

पछतावा

लोग जिस चीज में विश्‍वास करते हैं उस पर प्राय: अमल नहीं करते हैं।
वे वह करते हैं जो सुविधाजनक है, फिर पछताते हैं।

- बॉब डिलन (मशहूर अमेरिकी गायक)

तुम पूछोगे...

तुम पूछोगे
क्‍यों नहीं करती
उसकी कविता
उसके देश के
फूलों और पेड़ों की बात
आओ देखो
गलियों में बहता लहू
आओ देखो
गलियों में बहता लहू
आओ देखो
गलियों में बहता लहू

*पाब्‍लो नेरूदा

3.17.2007

अंधेरा तो सिर्फ देहरी पर...

उस पार है
उम्मीदों और उजास की
पूरी दुनिया।
अंधेरा तो सिर्फ देहरी पर है...