11.27.2008

चाहत

बहुत दिनों से कुछ पढ़ने का मौका नहीं मिल रहा था। यही नहीं कई महीनों से लेव तोल्‍सतोय के शानदार उपन्‍यास पुनरुत्‍थान तक को पूरा नहीं पढ़ सका हूं, 6 महीने बाद भी एक चौथाई हिस्‍सा बाकी ही है...पुनरुत्थान को पूरा करने का मौका भी जल्‍द मिल जाएगा, लेकिन आज कात्‍यायनी की कविताएं पढ़ने का मन कर गया।
उनकी कई कविताएं मुझे पसंद हैं, लेकिन आज उनकी वह कविता आपके साथ साझा करने का मन किया, जो मुझे काफी पसंद है। उनकी इस कविता का शीर्षक है 'चाहत'....

चाहत

ख़ामोश उदास घंटियों की
बज उठने की सहसा उपजी ललक,
घास की पत्तियों का
मद्धम संगीत
रेगिस्तान में गूँजती
हमें खोज लेने वाले की विस्मित पुकार,
दहकते जंगल में
सुरक्षित बच रहा
कोई नम हरापन ।
यूँ आगमन होता है
आकस्मिक
प्यार का
शुष्कता के किसी यातना शिविर में भी
और हम चौंकते नहीं
क्योंकि हमने उम्मीदें बचा रखी थीं
और अपने वक़्त की तमाम
सरगर्मियों और जोख़िम के
एकदम बीचोंबीच खड़े थे ।

10.21.2008

रानीगंज में माकपा का सांस्कृतिक आतंकवाद

नन्‍दीग्राम से जारी माकपा की गुण्‍डागर्दी का एक नमूना पिछले दिनों देखने को मिला। रानीगंज (प. बंगाल) के सांस्कृतिक-सामाजिक मंच 'मानविक' द्वारा आयोजित 'गणमित्र सम्मान समारोह' (19-20 अक्टूबर, 2008) को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं ने गुण्डागर्दी और धमकियों द्वारा आतंक फैलाकर स्थगित करने पर विवश कर दिया। माकपा का यह सांस्कृतिक आतंकवाद .एस.एस.-विहिप-भाजपा आदि के ''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'' की ही तरह यह माकपा के ''सांस्कृतिक जनवाद'' का एक नमूना है।

रानीगंज (प. बंगाल) की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था 'मानविक' इस वर्ष पाँचवाँ गणमित्र सम्मान कवयित्री और सामाजिक-सांस्कृतिक कर्मी कात्यायनी को देने वाली थी। यह सम्मान सुविख्यात बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी के हाथों दिया जाना था। इस अवसर पर आयोजित दो दिवसीय सांस्कृतिक आयोजन (19-20 अक्टूबर) के दौरान दो परिसंवाद, कविता-मंचन और फिल्म प्रदर्शन के कार्यक्रम और कवयित्री सम्मेलन भी होने थे। इस आयोजन में स्थानीय और निकटवर्ती रचनाकारों-संस्कृतिकर्मियों के अतिरिक्त दिल्ली, कोलकाता, पटना, रांची, भोपाल आदि शहरों के कई लेखक-कवि-संस्कृतिकर्मी भी हिस्सा लेने वाले थे।

इस आयोजन के क़रीब हफ्ता भर पहले से माकपा के कार्यकर्ताओं ने रानीगंज में धमकी और गुण्डागर्दी का सिलसिला शुरू कर दिया। न केवल आयोजकों और उनके परिवारों को तबाह कर देने की धमकी दी गयी, बल्कि इस बात का व्यापक प्रचार किया गया कि आयोजन में भाग लेने वालों को गम्भीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। 'मानविक' के अध्यक्ष के पिता को, जो हृदय रोग से गम्भीर रूप से ग्रस्त हैं, धमकाया गया कि उनका परिवार और व्यवसाय तबाह कर दिया जायेगा। सचिव और अन्य सहयोगियों को धमकी दी गयी कि वे रानीगंज में रह नहीं पायेंगे। विभिन्न शहरों में आमन्त्रितों को फोन करके और माकपा के सांस्कृतिक संगठनों के सूत्रों से दबाव डलवाकर उक्त आयोजन में हिस्सा लेने से रोका गया। माकपा के स्थानीय लोगों का कहना था कि यह आयोजन दो शर्तों पर हो सकता है। पहली शर्त, इसमें महाश्वेता देवी न आयें क्योंकि वे वाममोर्चा सरकार की नीतियों की मुखर आलोचक रही हैं और नन्दीग्राम में माकपा-विरोधी मुहिम का उन्होंने भी समर्थन किया था। दूसरी शर्त, यह थी कि कात्यायनी को माकपा के विरुध्द एक शब्द भी नहीं बोलना होगा और सम्मान ग्रहण करने के अतिरिक्त किसी प्रकार के राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रचारकार्य में हिस्सा नहीं लेना होगा। ज़ाहिर है कि आयोजकों ने इन अपमानजनक शर्तों को स्वीकार नहीं किया और स्थानीय तौर पर क़ायम व्यापक आतंक राज के चलते विगत 16 अक्टूबर को उन्हें यह आयोजन स्थगित करने की घोषणा करनी पड़ी।

कोलकाता और प. बंगाल के अन्य नगरों के अख़बारों में और टी.वी. चैनलों पर इस ख़बर के आने के बाद जब महाश्वेता देवी ने भी क्षोभ प्रकट करते हुए बयान दिया और संस्कृतिकर्मियों ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रकट किया, तो पश्चिम बंगाल के एक माकपा-सम्बध्द सांस्कृतिक संगठन और एक लेखक संगठन के प्रतिनिधि ने बयान दिया कि महाश्वेता देवी का माकपा-विरोध जगज़ाहिर है और कात्यायनी नक्सल राजनीति से जुड़ी हैं।

यदि विचारों में धुर-विरोध है, तो माकपाइयों को वैचारिक विरोध और बहस के जनवादी तरीक़ों का ही इस्तेमाल करना चाहिए, न कि गुण्डागर्दी और आतंक-राज का सहारा लेना चाहिए। जो लोग वैचारिक विरोध का यह तरीक़ा अपनाते हैं वे लोग हुसैन की कला-प्रदर्शनी पर बजरंगदली फसिस्टों के हमले और तोड़फोड़ की राजनीति का विरोध भला किस मुँह से करते हैं?

रही बात नक्सलवादी होने के आरोप की, तो माकपा और भाकपा जैसी पार्टियां सत्ताभोगी, संसदमार्गी, अर्थवादी राजनीति करती हैं और संशोधनवादी हैं। चीन मार्का ''बाज़ार समाजवाद'' बर्बर और निरंकुश सर्वसत्तावादी पूँजीवाद है। लेकिन साथ ही, आतंकवाद या ''वामपन्थी'' दुस्साहसवाद की राजनीति भी पूरी तरह गलत है। नक्सलवाद अपने आप में कोई राजनीतिक कैटेगरी नहीं है। प्राय: इस श्रेणी में आतंकवादी वामपन्थी धारा और क्रान्तिकारी जनसंघर्ष की धारा - दोनों को शामिल कर लिया जाता है। और कात्‍यायनी क्रान्तिकारी जनसंघर्षों की पक्षधर हैं और माकपा की ''बाज़ार-समाजवादी'' आर्थिक नीतियों का और उस कुलीन मध्यवर्गीय सुधारवादी धर्मनिरपेक्षता का विरोध करती हैं

रानीगंज प्रसंग वस्तुत: नन्दीग्राम प्रसंग की सांस्कृतिक दायरे में पुनरावृत्ति मात्र है। मुद्दा चाहे आर्थिक हो या सांस्कृतिक, माकपा का रवैया सभी मामलों में निरंकुश सर्वसत्तावादी ही होता है। माकपा-भाकपा जैसी पार्टियाँ पूरी दुनिया की अन्य सामाजिक-जनवादी पार्टियों और एन.जी.. की तरह, नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के विकल्प के लिए संघर्ष करने के बजाय उन्हें मात्र ''मानवीय चेहरा'' देने लायक पैबन्दसाज़ी करना चाहती हैं। इनका मॉडल चीन का ''बाज़ार समाजवाद'' है जो बर्बर फ़ासिस्ट तरीक़े से वहाँ लागू हो रहा है। नन्दीग्राम ने सिद्ध कर दिया है मौक़ा मिलने पर माकपा भी उसी तरीक़े से नवउदारवादी नीतियों को लागू करेगी। माकपा के गुण्डा राज की वास्तविक झलक पानी हो तो कोलकाता से बाहर . बंगाल के अन्य छोटे-छोटे शहरों-कस्बों में जाना पड़ेगा। वैसे कोलकाता में भी इसकी बानगी देखने को मिल जाती है। माकपा का ''समाजवाद'' दिल्ली में कुलीन लिजलिजे सुधारवाद के रूप में सामने आता है और . बंगाल में सामाजिक फ़ासीवाद (चेहरा समाजवादी, आचरण फ़ासीवादी) के रूप में सामने आता है।

8.20.2008

प्रिय अरविंद तुम जिन्‍दा हो, हम सबके संकल्‍पों में



(1965-24 जुलाई, 2008)


यह युद्ध है ही ऐसा
कि इसमें खेत रहे लोगों को
श्रद्धां‍जलि नहीं दी जाती,
बस कभी झटके से
वे याद आ जाते हैं
बरबस
अपनी कुछ अच्छाइयों की बदौलत।

7.31.2008

अरविंद की शोक सभा में उनके अधूरे कामों को पूरा करने का संकल्प लिया

'अरविंद स्मृति न्यास' और 'अरविंद मार्क्‍सवादी अध्ययन संस्थान'
की स्थापना की घोषणा

नई दिल्ली, 31 जुलाई। 'दायित्वबोध' पत्रिका के संपादक और नौजवान भारत सभा के संयोजक का. अरविंद की शोकसभा में सभा में मौजूद सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, छात्रों, बुध्दिजीवियों तथा मजदूर कार्यकर्ताओं ने अरविंद के अधूरे कामों को आगे बढ़ाने और उनके निधन के शोक को शक्ति के इस्पात में ढालने का संकल्प लिया। इस अवसर पर 'अरविंद स्मृति न्यास' और 'अरविंद मार्क्‍सवादी अध्ययन संस्थान' की स्थापना की घोषणा की।

कल शाम यहां अंबेडकर भवन में हुई सभा की शुरुआत अरविंद की जीवनसाथी और राजनीतिक कार्यकर्ता मीनाक्षी द्वारा उनकी तस्वीर पर माल्यार्पण के साथ हुई। सभा का संचालन कर रहे सत्यम ने उपस्थित जनसमूह को 24 जुलाई को गोरखपुर में अरविंद की आकस्मिक मृत्यु की परिस्थितियों से अवगत कराया। उन्होंने कहा कि आज जैसे कठिन दौर में सामाजिक बदलाव की लड़ाई के लिए काम करते हुए चुपचाप अपनी जिंदगी को इस तरह होम कर देना किसी शहादत से कम नहीं है।

वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने अरविंद के व्यक्तित्व और उनके कामों को याद करते हुए कहा कि अरविंद एक जिंदादिल इंसान थे और मज़दूरों तथा युवाओं को संगठित करने के साथ-साथ दिल्ली के तमाम सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी उनकी शिरकत बनी रहती थी। अरविंद के साथ तमाम मुददों पर उनकी बहसें चलती रहती थी। नए कार्यक्षेत्र की जिम्मेदारी संभालने के लिए दिल्ली से जाते समय वे एक अधूरी बहस को पूरा करने का वायदा करके गए थे लेकिन फिर उनसे मुलाकात नहीं हो सकी।

नेपाली जनधिकार मंच के लक्ष्मण पंत ने कहा कि कॉ. अरविंद दायित्वबोध के संपादन के साथ ही बिगुल अखबार के प्रकाशन-मुद्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे और इन दोनों पत्र-पत्रिकाओं में नेपाल के जनांदोलन के बारे में उनके लेखों ने, नेपाल के क्रान्तिकारियों को मार्क्‍सवाद की समझ विकसित करने में और सैद्धांतिक-व्यावहारिक प्रश्नों को हल करने में काफी मदद की। नेपाल की कम्युनस्टि पार्टी माओवादी इसके लिए उनकी आभारी रहेगी। आने वाले समय में कॉ. अरविंद के अधूरे कामों को पूरा करते हुए, उतनी ही दृढ़ता और जीवंतता के साथ सामाजिक बदलाव की लड़ाई जारी रखनी होगी।

इस अवसर पर कवयित्री और राहुल फाउण्डेशन की अध्यक्ष कात्यायनी ने अपने साथी अरविंद को याद करते हुए ने कहा कि अरविंद स्मृति न्यास और अरविंद मार्क्‍सवादी अध्ययन संस्थान के जरिए सामाजिक परिवर्तन के उन वैचारिक-सांस्कृतिक कार्यों को आगे बढ़ाया जाएगा जिनके लिए अरविंद निरंतर प्रयासरत थे। उन्होंने कहा कि अरविंद हमारे बीच नहीं रहे इसका अहसास कर पाना मुश्किल हो रहा है, लेकिन हमें इस शोक से उबर कर अरविंद के अधूरे कामों, योजनाओं को पूरा करना ही होगा और यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

नेपाली जनाधिकार मंच के लक्ष्मण पंत ने कहा कि कॉ. अरविंद के संपादन में 'दायित्वबोध' पत्रिका और 'बिगुल' अखबार में प्रकाशित होने वाली गंभीर वैचारिक सामग्री ने नेपाल के क्रांतिकारी आंदोलन के सैद्धांतिक-व्यावहारिक प्रश्नों को हल करने में काफी मदद की। नेपाल के क्रांतिकारी उन्हें हमेशा एक सच्चे अंतरराष्ट्रीयतावादी के रूप में याद रखेंगे।

वरिष्ठ स्तंभकार सुभाष गाताड़े ने वाराणसी में अपने छात्र जीवन के दौर से अरविंद के साथ काम करने के अनुभवों को याद करते हुए कहा कि वे अपने लक्ष्य और उसूलों के प्रति दिलोजान से समर्पित थे।

वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने कहा कि कॉ. अरविंद में एक बड़े नेतृत्व की संभावना दिखती थी। इसके बावजूद उनकी सरलता ने मुझे प्रभावित किया। हर बार उनसे मिलने पर एक नया भरोसा पैदा होता था। नए समाज के निर्माण के संघर्ष में उनकी समझ एवं दृढ़ता हमारे साथ रहेगी।

साहित्यकार रामकुमार कृषक ने कहा कि जिस दौर में दुनियाभर में समाजवाद के अंत और समाजवादी राज्य के विघटन का हल्ला हो रहा था उस दौर में भी अरविंद अपने विचारों और कर्मों पर दृढ़ थे। वे संस्कृति और साहित्य को सामाजिक बदलाव का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र मानते थे। उन्होंने कहा कि अरविंद की सहजता और सरलता से उनकी बौद्धिक क्षमता का पता नहीं चलता था।

दिशा छात्र संगठन के अभिनव ने कहा कि अरविंद ने व्यापक मेहनतकश आबादी की जीवन परिस्थितियों की बेहतरी के अलावा जीवन में कभी किसी अन्य चीज की परवाह नहीं की। तृणमूल स्तर के सांगठनिक और आंदोलनात्मक कामों के साथ-साथ वे पत्र-पत्रिकाओं में लेखन-संपादन की जिम्मेदारी संभालने तथा देश के विभिन्न हिस्सों में संगोष्ठियों में भागीदारी तथा विचार-विमर्श का काम भी अत्यंत कुशलतापूर्वक कर लेते थे।

कपिल स्वामी ने कहा कि अरविंद जहां भी जाते थे युवा कार्यकर्ताओं की टीम खड़ी कर लेते थे तथा बड़ी लगन और सरोकार के साथ उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित करते थे। अंतिम समय तक उन्हें अपने साथियों की चिंता थी।

एआईपीआरएफ के अंजनी ने अरविंद को जनता के एक सच्चे हितैषी तथा पूरी निष्ठा के साथ सामाजिक परिवर्तन की मुहिम के प्रति समर्पित थे।

मज़दूर कार्यकर्ता राजेन्द्र पासवान ने कहा कि अरविंद से ऐसे दौर में संपर्क हुआ, जब मैं आंदोलन के भविष्य को लेकर निराशा से गुज़र रहा था, लेकिन उन्होंने मुझमें नया उत्साह भर दिया। जब कभी हमारे पैर डगमगाएंगे तो हम अरविंद को याद करेंगे।

सभा में एआईएफटीयू के पी.के. शाही, हमारी सोच पत्रिका के संपादक सुभाष शर्मा आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए। कवि आलोक धन्वा, नीलाभ, असद ज़ैदी, निशांत नाटय मंच के शम्सुल इस्लाम, यूएनआई इंप्लाइज फेडरेशन के महासचिव सी.पी. झा, समाजवादी जन परिषद के अफलातून, वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र कुमार, अनुराग ट्रस्ट की अध्यक्ष कमला पाण्डेय तथा काठमांडू स्थित पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता मैरी डीशेन ने इस अवसर पर भेजे अपने संदेशों में अरविंद को याद किया।

विहान सांस्कृतिक मंच ने ''कारवां बढ़ता रहेगा...'' गीत के साथ अरविंद को श्रद्धांजलि दी।

इस अवसर पर दिशा छात्र संगठन, नौजवान भारत सभा, दिल्ली जनवादी अधिकार मंच, पीयूडीआर, प्रगतिशील महिला संगठन, एआईपीआरएफ, मेहनतकश मजदूर मोर्चा, सिलाई मजदूर समिति सहित विभिन्न जनसंगठनों के कार्यकर्ता, शिक्षक, लेखक, पत्रकार आदि उपस्थित थे।


7.25.2008

हमारे साथी अरविंद नहीं रहे, उनको हम सब का सलाम

दायित्वबोध' पत्रिका के सम्पादक और क्रान्तिकारी कार्यकर्ता अरविन्द सिंह की गुज़री रात गोरखपुर में मृत्यु हो गई। वह पिछले सात दिनों से बीमार चल रहे थे। बुधवार की शाम उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां अचानक उनकी स्थिति बिगड़ गई। बृहस्पतिवार की रात 9:40 पर उन्होंने अन्तिम सांस ली। वे 43 बरस के थे।
विद्यार्थी जीवन से ही अरविन्द सामाजिक बदलाव के आन्दोलन से जुड़े रहे थे। छात्रों की पत्रिका 'आह्नान' के शुरू होने के वक्त वह उसके सम्पादक मंडल में भी थे। उन्होंने अनेक वर्षों तक गोरखपुर, वाराणसी, लखनऊ और दिल्ली में छात्रों, युवाओं और मज़दूरों के बीच काम किया था। मज़दूर अख़बार 'बिगुल' के सम्पादन-प्रकाशन के साथ ही वह गोरखपुर में सघन आन्दोलनात्मक और सांगठनिक गतिविधियों में व्यस्त थे। एक कुशाग्र लेखक और वक्ता होने के साथ ही अरविन्द एक क्षमतावान अनुवादक भी थे। उन्होंने बड़ी संख्या में सैद्धान्तिक सामग्री के अनुवाद के अलावा देनी दिदेरो के प्रसिद्ध उपन्यास 'रामो का भतीजा' का भी अनुवाद किया।
अरविन्द अपने पीछे पत्नी मीनाक्षी, जो कि स्वयं एक क्रान्तिकारी कार्यकर्ता हैं, और दोस्तों-मित्रों और हमराहों की एक बड़ी संख्या छोड़ गए हैं।

प्रिय साथी अरविंद को क्रांतिकारी सलाम!

यह सन्नाटा जब बीत चुका रहेगा यारो
यह ख़ामोशी जब टूट चुकी रहेगी
मुमकिन है कि हम मिलें
तो थोड़े से बचे हुए लोगों के रूप में
कहीं शाल-सागौन के घने सायों में
गुलमोहर-अमलतास-कचनार की बातें करते हुए
हृदय पर एक युद्ध की गहरी छाप लिये
और सबको दिखायी पड़ने वाला एक दूसरा
समूचा का समूचा युद्ध सामने हो।
सन्नाटे के ख़िलाफ
यह युद्ध है ही ऐसा
कि इसमें खेत रहे लोगों को
श्रद्धां‍जलि नहीं दी जाती,
बस कभी झटके से
वे याद आ जाते हैं
बरबस
अपनी कुछ अच्छाइयों की बदौलत।

6.28.2008

करीम की कै़द के 600 दिन - आप भी करीम का साथ दें !

क़रीम - 6 नवंबर, 2006 से कै़द में है। आज उसकी कै़द के 600 दिन पूरे हो गए। (करीम के बारे में जानने के लिए मेरी इस पोस्‍ट को पढ़ें) हम इस मौके पर मिस्‍त्र की बहरी सरकार को चेताने के लिए कुछ कर सकते हैं। आप भी इसमें शामिल हों। नीचे इसका विवरण दिया जा रहा है।

तिथि : शनिवार, 28 जून

अवसर : करीम की कै़द के 600 दिन पूरे होना !

उद्देश्य : करीम की कै़द के बारे में लोगों को बताना, और उससे संपर्क करना !


आप इसमें किस तरह शामिल हो सकते हैं :

अपने ब्लॉग/वेबसाइट पर 28 तारीख को करीम के बारे में एक पोस्ट लिखें।


आप ऐसा दो तरीकों से कर सकते हैं :

विकल्प 1 : सीधे करीम को संबोधित या उसके बारे में एक पोस्ट/पत्र लिखें। लोगों को बताएं कि करीम किस स्थिति से गुज़र रहा है। इस तथ्य के बारे में अपनी राय या चिंता व्यक्त करें कि वह महज रैडिकल इस्लाम, अल अज़हर में व्याप्त चरमपंथ, और मिस्त्र के राष्ट्रपति के बारे में अपने व्यक्तिगत विचार साझा करने की वजह से अब तक क़ैद में है।

विकल्प 2 : किसी विवादित मामले पर उसी निडरता के साथ लिखिए जैसे करीम ने लिखा (चाहे यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में हो, या मानवाधिकारों, धार्मिक स्वतंत्रता, राजनीतिक अधिकारों के बारे में हो) और वह पोस्ट करीम को समर्पित करें।

आप निम्न पते पर सीधे करीम को भी लिख सकते हैं :

Prisoner Abdul Kareem Nabil Suleiman
Alexandria
Borg Al-Arab Prison

Room 1 Section 22

The Arab Republic of Egypt


कृपया अपने पत्र पर अरबी में लिखा पता भी लगा दें :

6.25.2008

यदि संगीत पसंद है, और Kenny G भी, तो आपका स्‍वागत है ...

आज एक साइट पर Kenny G की कुछ अच्‍छी धुनें सुनने को मिलीं, साथ ही वायलन पर बजायी गई कुछ धुनें भी उस साइट पर थी सोचा आप सबसे साझा कर लिया जाए, हालांकि यह एक प्रयोग ही है, पता नहीं ठीक से काम करता है या नहीं। ब्‍लॉग के साइडबार और बॉटम बार में दोनों की धुने जोड़ी हैं, यदि आपको संगीत पसंद है, तो सुनिये और बताइए कैसा लगा...
हां, यदि यह विजेट काम नहीं करें तो कृपया इसकी जानकारी भी दीजिएगा...ताकि कुछ किया जा सके, वैसे मेरे यहां यह बिल्‍कुल ठीक चल रहा है, हालांकि कुछ समय ज़रूर ले रहा है...

5.12.2008

Ray Wah, गूगल महाराज...

गूगल ने जब इंटरनेट की दुनिया में कदम रखा है तब से एक से बढ़कर एक शानदार काम कर रहा है, लेकिन आज उसके एक काम को देखकर मैं पोस्‍ट लिखने को मजबूर हो गया (मजबूर इसलिए कि बेहद जरूरी कामों के दबाव के चलते ब्‍लॉग पर कुछ लिख नहीं पा रहा हूं) ज़रा आप मेरे ब्‍लॉग पर गूगल अनुवाद के आइकन पर क्लिक करके देखिए..माजरा अपने आप समझ आ जाएगा....

तब तक के लिए एक नमूना मैं नीचे पेश कर रहा हूं....

Ray Wah, the symbol of peace ...
Today the evening standing in the balcony drinking tea was then living in the house before the boards in his toy gun from फटाक's voice out, I tell him some of the jokes already turned over his balcony छज्जे sitting on the movement of pigeons , Flew all the pigeons, except one. .... It sounds from the toy gun came from the second floor collapsed and then became छज्जे not shake ....

3.16.2008

वाह रे शांति के प्रतीक...

आज शाम को बाल्‍कनी में खड़ा चाय पी रहा था, तभी सामने के घर में रहने वाले चिंटू ने अपनी खिलौना बंदूक से फटाक की आवाज़ निकाली, मैं उससे मजाक में कुछ कहता इससे पहले ही उसकी बाल्‍कनी के ऊपर बने छज्‍जे पर बैठे कबूतरों में हलचल हुई, सारे कबूतर उड़ गए, एक को छोड़कर। वो खिलौना बंदूक से आवाज निकलते ही दूसरी मंजिल पर बने छज्‍जे से गिर गया और फिर हिला नहीं....

पता नहीं बीमार था, जिसकी वजह से अचानक गिर कर मर गया, या कबूतर दिल की कहावत को चरितार्थ करते हुए आवाज से उसका दिल बैठ गया...

जो भी हो, इस घटना को देखने के बाद से मैं सोच रहा हूं कि कबूतर इतने कमजोर दिल होते हैं तो उन्‍हें शांति का प्रतीक क्‍यों बनाया गया है, क्‍या शांति और अहिंसा कमजोरों और कायरों को ही शोभा देती है?

क्‍या गांधीजी भी कमजोर होने की वजह से शांति और अहिंसा के हिमायती थे?

लगता है ये सत्‍ता चाहती है कि सब शांति के प्रतीक कबूतर से प्रेरणा लें और कमजोर बने रहें तभी हर मौके-बेमौके पर कुछ कबूतर उड़ाए जाते हैं..

जैसे सबक देना चाह रही हो कि हे जनता ! कमजोर बने रहो और शांति-शांति का राग अलापते रहो। अपने अधिकारों के लिए लड़ोगे तो देश की, समाज की और दुनिया की शांति के लिए हानिकारक होगा।

खैर, जो भी हो, लगता है शांति का प्रतीक काफी सोच-समझकर ही चुना गया है।

वाह रे शांति के प्रतीक !

1.28.2008

जल-जंगल-जमीन से उजाड़े जा रहे लोगों की पीड़ा को व्यक्त करती कविता

कल रेयाज़ भाई की एक कविता पढ़ी (हाशिया वाले अपने रेयाज़ की), तब पता चला कि वो लेखक और पत्रकार ही नहीं एक संवेदनशील कवि भी हैं, जो महज कविता लिखने के लिए ही कविता नहीं लिखते। उनकी कविता 'शामिल' में, विकास और आधुनिकता के नाम पर जल-जंगल-जमीन से बेदखल किए जा रहे आदिवासियों/ग्रामीणों की पीड़ा की झलक मिलती है, जो शायद शहरों में बैठे हुए लोग समझ न पाते हों। साथ ही हाशिये पर धकेले जा रहे इन लोगों के हक की लड़ाई के लिए तन-मन अर्पित करने वाले लोगों की भावनाओं और उनके सपने भी मिलते हैं, इस कविता में। हालांकि, मेरा मानना है कि इन शोषित-उत्‍पीडि़तों के हकों और स्‍वाभिमान के लिए इन ज़हीन-ईमानदार-बहादुर लोगों की तमाम कुर्बानियों के बावजूद, आज केवल‍ पिछड़े आदिवासी/ग्रामीण इलाकों में केंद्रित लड़ाई से सुगना और उस जैसी अन्‍य स्त्रियों की व्‍यथा कम तो हो सकती है लेकिन खत्‍म नहीं हो सकती, क्‍योंकि ज़माना बदल गया है और बदल गए हैं उससे लड़ने के तरीके भी। खैर, यह तो अलग से बातचीत का मुद्दा है। हो सकता है कुछ आलोचकगण मेरी इस टिप्‍पणी से खार खा बैठें, लेकिन रेयाज़ की इस कविता को पढ़ते हुए, अचानक पाश की याद आ गई। पाश की कविताओं में आज़ाद हवा में सांस लेने की यही उत्‍कट लालसा, किसानों की पीड़ा, बेहतर समाज के सपने वर्तमान से निराशा और भविष्‍य से उम्‍मीद नज़र आती है। रेयाज़ भाई की अनुमति के बिना ही इस कविता के हिस्‍से यहां दे रहा हूं, समय मिलते ही पूरी कविता यहां पेश करूंगा। कविता का शीर्षक है - 'शामिल' :-

सुगना, तुमने सचमुच हिसाब
नहीं पढ़ा
मगर फिर भी तुम्‍हें इसके लिए
हिसाब जानने की जरूरत नहीं पड़ी कि

सारा लोहा तो ले जाते हैं जापान के मालिक

फिर लोहे की बंदूक अपनी सरकार के पास कैसे
लोहे की ट्रेन अपनी सरकार के पास कैसे
लोहे के बूट अपनी सरकार के पास कैसे

...तुम्‍हारी नदी
तुम्‍हारी धरती
तुम्‍हारे जंगल

और राज करेंगे
बाघ को देखने-‍दिखानेवाले
दिल्‍ली-लंदन में बैठे लोग


ये बाघ वाकई बड़े काम के जीव हैं
कि उनका नाम दर्ज है संविधान तक में
और तुम्‍हारा कहीं नहीं

...बाघ भरते हैं खजाना देश का
तुम क्‍या भरती हो देश के खजाने में सुगना
उल्‍टे जन्‍म देती हो ऐसे बच्‍चे
जो साहबों के सपने में
खौफ की तरह आते हैं-बाघ बन कर

सांझ ढल रही है तुम्‍हारी टाटी में
और मैं जानता हूं
कि तुम्‍हारे पास आ रहा हूं

केवल आज भर के लिए नहीं
हमेशा के लिए
तुम्‍हारे आंसुओं और खून से बने
दूसरे सभी लोगों की तरह
उनमें से एक

...हम लड़ेंगे
हम इसलिए लड़ेंगे कि
तुम्‍हारे लिए
एक नया संविधान बना सकें
जिसमें बाघों का नहीं
तुम्‍हारा नाम होगा, तुम्‍हारा अपना नाम
और हर उस आदमी का नाम
जो तुम्‍हारे आंसुओं

और तुम्‍हारे खून में से था


जो लड़े और मारे गये
जो जगे रहे और‍ जिन्‍होंने सपने देखे
उस सबके नाम के साथ
तुम्‍हारे गांव का नाम
और तुम्‍हारा आंगन
तुम्‍हारी भैंस
और तुम्‍हारे खेत, जंगल
पगडंडी,
नदी की ओट का वह पत्‍थर
जो तुम्‍हारे नहाने की जगह था
और तेंदू के पेड़ की वह जड़
जिस पर बैठ कर तुम गुनगुनाती थीं कभी
वे सब उस किताब में होंगे एक दिन
तुम्हारे हाथों में

तुम्‍हारे आंसू
‍तुम्हारा खून
तुम्हारा लोहा
और
तुम्हारा प्यार

...हम यह सब करेंगे
वादा रहा.

1.16.2008

इस ज़मीन पर नहीं टिमटिमा सकते तारे

संदीप


'तारे ज़मीन पर' को टैक्‍स फ्री कर दिया गया। आडवाणी उस फिल्‍म को देखकर रो पड़े (ये वही आडवाणी हैं जिनकी पार्टी के मुख्‍यमंत्री के राज्‍य में गुजरात दंगों के दौरान एक गर्भवती का पेट चीरकर भ्रूण निकाल लिया गया था, लोगों को जिंदा जला दिया गया था, महिलाओं पर बलात्‍कारी पौरुष का प्रदर्शन किया गया था, और वो भी सरकारी मशीनरी और नेताओं की शह पर...और उस समय ये आडवाणी रोए नहीं थे)। अभिभावक बच्‍चों पर ध्‍यान दे रहे हैं, उनकी इच्‍छाओं को समझने का प्रयास कर रहे हैं (ये मैं नहीं कहता, ये तो 'तारे ज़मीन पर' फिल्‍म के बारे में किसी समीक्षक ने कहा था)। लेकिन क्‍या 'तारे ज़मीन पर' समस्‍या की तह में जाने का प्रयास वाकई में करती है? हालांकि, आमिर खान तो कुछ ऐसा ही दावा करते प्रतीत होते हैं, जब वे इस फिल्‍म के मुख्‍य किरदार, यानी पढ़ने-लिखने में कठिनाई महसूस करने वाले बच्‍चे, के माता-पिता से मिलते हैं। उनसे मिलने पर वे पूछते हैं कि क्‍या आपने बच्‍चे की परेशानी को समझा, और जब बच्‍चे के पिता कुछ बातें बताते हैं, तो आमिर का जवाब होता है कि आप लक्षण बता रहे हैं बीमारी नहीं। लेकिन खुद आमिर ने भी इस फिल्‍म में लक्षण ही बताया है, उसका कारण नहीं।

स्‍वयं मैं भी फिल्‍म देखते हुए सतही भावुकता की रौ में बह गया, लेकिन फिल्‍म खत्‍म होने के बाद जब मेरे भीतर का आलोचक सक्रिय हुआ तो उसने खुद मेरी सतही भावुकता के सा‍थ ही फिल्‍म के सतहीपन की चीरफाड़ करनी शुरू कर दी। और तब पता चला कि यह संवेदनशील माने जाने वाली फिल्‍म भी इस अमानवीय व्‍यवस्‍था की ही समर्थक है। एक अच्‍छी फिल्‍म या अच्‍छी कहानी, या उपन्‍यास जिंदगी की वास्‍तविक समस्‍याओं की ओर आपका ध्‍यान खींचते हैं, भले ही वे कोई रे‍डीमेड हल प्रस्‍तुत नहीं करते लेकिन ढेरों सवाल खड़ा करके आपको उन समस्‍याओं पर सोचने और उनका हल ढूंढ़ने को प्रेरित करते हैं। लेकिन ये फिल्‍म वास्‍तविक समस्‍या के बजाए लक्षणों की बात करती है।

सिर्फ खास समस्‍या के बच्‍चे ही क्‍यूं...हर बच्‍चा नये समाज की नींव है। लेकिन इस फिल्‍म में नींव के एक दो पत्‍थरों पर ध्‍यान दिया गया है। गरीबों के बच्‍चों का बचपन तो जीवित रहने और मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में ही तिरोहित हो जाता है। लेकिन इस फिल्‍म में केवल अंत में कुछ गरीब बच्‍चों को दिखा कर जिम्‍मेदारी को पूरा मान लिया गया।

आमिर खान फिल्‍म में जगह-जगह ये तो स्‍वीकारते हैं कि ये दुनिया बेरहम है, प्रतिस्‍पर्द्धात्‍मक है, लोग डॉक्‍टर इंजीनियर बनाने से नीचे बच्‍चे के भविष्‍य के बारे में नहीं सोचते, कला और आंतरिक सौंदर्य का वास्‍तविक मूल्‍य नहीं आंका जाता। लेकिन वो भूल जाते हैं कि डॉक्‍टर, इंजीनियर और दूसरे कमाऊ धंधों (जी हां, अब डॉक्‍टर होना मानवता का सेवक होना तो है नहीं, वो तो पैसा और उसके मार्फत रुतबा कमाने का जरिया है) में उतारने की ख्‍वाहिशें इसलिए पनपती हैं कि इस व्‍यवस्‍था में, जहां मुनाफा ही भगवान है, पैसा ही मसीहा है, बिना पैसे वाला हुए कोई इज्‍जत नहीं है, चाहे वो पैसा कैसे भी आए। ऐसे मैं लोग बच्‍चों के सपनों, उनके बचपन को कुचलने के सिवा क्‍या कर सकते है। जिस समाज का आधार मुनाफा हो, उसमें हर रिश्‍ता-नाता, शिक्षा, कला, संस्‍कृति उसी मुनाफे के तर्क से संचालित होती है। लेकिन आमिर की फिल्‍म में कहीं भी इस ओर ध्‍यान नहीं दिलाया गया। दर्शक इस बारे में सोच ही नहीं पाता कि चंद लोगों के हाथों में पूरे समाज की धन-संपदा का मालिकाना सौंपनी वाली व्‍यवस्‍था में बहुसंख्‍या गरीब, निम्‍न मध्‍यवर्ग के लोग रोटी खा-कमाकर जीवित तो हैं, लेकिन जिन अमानवीय परिस्थितियों में वो रहते हैं, उसमें बच्‍चों का विकास हो ही नहीं सकता। ये फिल्‍म इस सवाल को नहीं उठाती कि तेल के स्रोत पर कब्‍जा करने के लिए अमेरिकी हमलों और प्रतिबंधों के चलते हजारों बच्‍चे भूख से मर गए, तो इसका कारण क्‍या है।

जिस समाज में हजारों बच्‍चे ढाबों, फैक्‍टरियों में काम करने को मजबूर है, वहां सारे बच्‍चे शिक्षा कैसे पा सकते हैं। और कुछ स्‍कूल तक पहुंच भी जाते हैं, तो खाली तनख्‍वाह के लिए पढ़ाने वाले अध्‍यापक बच्‍चों पर ध्‍यान क्‍यों देंगे। निजी स्‍कूल एक आम बच्‍चे की पारिवारिक समस्‍याओं के कारणों की पड़ताल क्‍यों करने लगे, उन्‍हें सिर्फ अपने स्‍कूल की इज्‍जत की परवाह होती है ताकि ज्‍यादा से ज्‍यादा पैसे वाले वहां बच्‍चों को दाखिला दिलाएं नहीं तो मुनाफा कैसे बटोरेंगे। वहां तो बच्‍चे का आत्‍मविश्‍वास वैसे ही चूर चूर हो जाता है यदि वो अपने दोस्‍तों की तरह कार में नहीं आता, मोबाइल नहीं रखता, या पिजा बर्गर नहीं खा पता। यानी मुनाफे के लिए पैदा किए गए उत्‍पादों का उपभोग नहीं कर पाता।

ऐसे समाज में मां-बाप बच्‍चे को बेहतर इंसान बनाने के बजाय उसे किसी भी तरह खूब रुतबा पैसा कमाने लायक बनाना चाहते हैं। कला साहित्‍य से ये चीजें तो मिलती नहीं। खाते-पीते मध्‍यवर्ग के लोग ही अपने बच्‍चे पर उस तरह ध्‍यान दे सकते हैं, जिस तरह आमिर खान चाहते हैं। गरीब लोग तो बस इसी की चिंता में रहते हैं कि वो और उनके बच्‍चे जिंदा कैसे रहें। वो दवा-दारू के अभाव में दम तोड़ते बच्‍चों को देखते हैं, यदि वो बच भी गया तो उनका बचपन, सपने, हसरतें तो किसी ढाबे, मोटर मैकेनिक की दुकान, फैक्‍ट्री आदि में स्‍वाहा हो जाता है। कुल मिलाकर ऐसे समाज पर यह फिल्‍म सवाल तक नहीं उठाती, जहां बचपन और बच्‍चों की यही परिणति होती है। वो बुराइयों पर तो ध्‍यान दिलाती है, लेकिन उसकी जड़ पर नहीं जिनके चलते मां-बाप, अध्‍यापक मालिकान बच्‍चों के प्र‍ति असंवेदनशील हो जाते हैं। या संवेदनाएं होती भी हैं तो बिल्‍कुल इस फिल्‍म के अभिभावकों की तरह। और समस्‍या की जड़ पर ध्‍यान देने के बजाय उसके लक्षणों को ही इलाज बताने के चलते आमिर खान की यह फिल्‍म जाने-अनजाने इस व्‍यवस्‍था का समर्थन ही करती है। यह जरूरी नहीं कि इस फिल्‍म के निर्माता-निर्देशक ने सचेतन तौर पर ऐसा किया हो, लेकिन हर विचार किसी न किसी वर्ग का प्रतिनिधित्‍व करता है और यहां भी तमाम तकलीफों के बावजूद इस समूची व्‍यवस्‍था के प्रति कोई सवाल नहीं खड़ा किया जाता।

यही नहीं यह फिल् निर्देशक की समझ पर भी सवाल उठाती है। इसमें अनुशासन को बहुत बुरा बताया गया है और कुछ भी करने की छूट की पैरवी-सी की गई है। शायद आमिर को ध्यान नहीं रहा कि वीणा का तार ज्यादा कसने से टूट जाता है तो बिल्कुल ढीला रखने पर भी वीणा किसी काम की नहीं रहती। और तो और, एक दृश् में जब इशान पेंटिंग प्रतियोगिता के लिए सुबह सुबह तैयार होकर निकलता है तो, पूरे कमरे में सारे बिस्तर खाली दिखाए जाते हैं, जबकि बाद में आमिर एक बच्चे से पूछता है कि इशान कहां है तो वो बताता है कि इशान सुबह ही निकल गया था और उस समय सब बच्चे सो रहे थे। और सबसे वाहियात दृश् तो वो है जिसमें एक गाने के दौरान ढाबे पर काम करते बच्चे का मायूस चेहरा दिखाया गया है, ऐसा चित्रण वो ही निर्देशक कर सकता है जिसने दुनिया देखी हो, या देखी हो तो ट्रेन में तेजी से गुजरते दृश्यों की तरह। क्योंकि तमाम सपनों, हसरतों के बावजूद ढाबे या मोटर मैकेनिक के यहां काम करते बच्चों का चेहरा आपको इतना दयनीय नजर नहीं आएगा, इसके बजाय वो आपको हंसते-खेलते नजर आएगा, वो अपनी तकलीफ इस तरह जाहिर नहीं करता, जिंदगी उसे जीना सिखा देती है। ऐसा लगता है कि केवल दर्शकों की सहानुभूति बटोरने के लिए यह दृश् डाला गया हो, वास्तविक सरोकार होने पर ऐसे बेवकूफाना निर्देशन की उम्मीद कत्तई नहीं की जा सकती। इस फिल् में आमिर ने अचेतन तौर पर ही सही बच्चों के बेहतर भविष् के प्रति अपनी समझ का सतहीपन और कोरी भावुकता को दर्शाया है, गरीबी को बनाए रखने वाली और इस तरह बच्‍चों के सपने को कुचलने वाली इसी व्यवस्था को बनाए रखने का समर्थन ही किया है।