11.22.2009

प्रेत की वापसी





वामपंथी भटकावों और संघर्षों की वर्तमान स्थिति के बारे में अमर जी ने एक छोटा व्यंग्यात्मक आलेख भेजा है, इसे यहां हूबहू पोस्‍ट कर रहा हूं।

प्रेत फिर दिखने लगा है। उस सनकी दढ़ियल ने 150 साल पहले एक प्रेत के आंतक की घोषणा की थी।और तभी से सारे सयाने और ओझा मिर्च की धूनी और नीम के झाड़ू से लेकर बड़े-बड़े तोप-तलवार और बम तक ले कर उस प्रेत के विनाश  के प्रयास में जुटे हुए हैं। कामयाबी नहीं मिली तो मन्त्रों और झाड़-फूंक का सहारा लिया गया। और एक बार तो लगा कि जैसे प्रेत वापस गया बोतल में। दुनिया भर के अघोरी और प्रेत-पूजक दावे करते थे कि प्रेत तो सामाजिक इतिहास का हिस्सा है और उसे ऐतिहासिक प्रक्रिया से अलग नहीं किया जा सकता। सयानों ने उपाय निकाला। उन्होंने इतिहास के ही अन्त की घोषणा कर दी। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।
कुछ दिन अमन-चैन भी  रहा(यूं न था मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाये) प्रेतोपासकों में से कुछ तो बाकायदा राम-राम जपने भी लगे। जिन्होंने नहीं भी जपा उन्होंने भी आंगन में तुलसी का पौधा तो रोप ही लिया और सुबह शाम उस पर जल चढ़ाने लगे। सुग्रीव और विभीषण के राजतिलक हुए; उन्हें पुरस्कृत भी किया गया। कुछ अन्य भी थे जो देखने में तो लंकेश-मित्र बालि जैसे लगते थे पर जब भी अवसर आया उन्होंने सीना चीर कर दिखा दिया कि उनके हृदय में तो राम ही बसते हैं और उनकी गदा अगर उठेगी तो राक्षसों के विरुद्ध वरना तो वे रामजी के फ़लाहारी चाकर मात्र हैं। लगने लगा अब तो मोरचा फ़तह हो गया। लंका मे राम-राज आ गया।

 पर ये क्या? प्रेत-माया तो इस बीच और भी सशक्त हो गई। प्रेतोपासक राक्षस सिर्फ़ लंका में ही नहीं थे। वे तो हर तरफ़ बिखरे हुए थे। सारी दुनिया में ॠषि-मुनियों के यज्ञों में बाधा उत्पन्न करने लगे। विष्णु का अवतार कहलाता था राजा। बेचारे की वो दशा हुई कि घर का रहा न घाट का। आर्यावर्त्त में तो असुरों ने रामजी के विरुद्ध हल्ला ही बोल दिया। दीन-हीन अयोध्यावासियों के जत्थे के जत्थे राक्षसों की सेना में भरती होने लगे। दशा इतनी बिगड़ गई कि महाबली हनुमान को भी अपनी रक्षा के लिये राजसैनिकों से मदद मांगनी पड़ी।
 स्थिति जटिल होती जा रही है। रामजी भी क्या करें। ये त्रेता नहीं कलियुग है। प्रेतोपासक राक्षसों की सँख्या बढ़ती जा रही है। त्रेता में तो वानरों में सुग्रीव और राक्षसों मे विभीषण भी मिलते थे। अब मामला बहुत आगे बढ़ चुका है। ॠषि-मुनियों और राज सैनिकों में से भी कितने राक्षसों से मिले हुए हैं, कुछ पता नहीं चलता। वनवासी अहिल्या, केवट और शबरी दर्शन करके गदगद  नहीं होते बल्कि देखते ही हथियार लेकर मारने दौड़ते हैं। शम्बूकों ने भी वेद पढ़कर लोगों को भड़काना शुरू कर दिया है। उनका सर काटना भी अब सहज नहीं रहा। और काट भी दें तो एक शम्बूक की जगह हज़ार निकल आते हैं।
त्रेता में भय बिनु होय न प्रीत बोलने वाले राम जी आजकल अकेले में अब मैं काह करूं कित जाऊं गुनगुनाते पाये जाते हैं।

11.20.2009

रंगकर्मी शशिभूषण वर्मा की मौत की जाँच के लिए एकजुट हों

शशिभूषण वर्मा एक युवा रंगकर्मी थे। पिछले दो दशक से रंगमंच के क्षेत्र में सक्रिय थे। पटना (बिहार) की संस्था हिरावल से उनके सांस्कृतिक सफर की शुरुआत हुई थी। उन्होंने कई चर्चित रंग निर्देशकों के साथ देश के विभिन्न शहरों में रंगकर्म किया। हिंदी रंगमंच के वे एक ऐसे हरफनमौला कलाकार थे, जो अभावों की पृष्ठभूमि से निकलकर आए और लगातार सीखते हुए विकसित हुए थे। भविष्य में उनसे काफी उम्मीदें थीं। लेकिन विगत 4 नवम्बर को उन उम्मीदों का असामयिक अंत हो गया।

इन दिनों शशिभूषण एनएसडी के छात्र थे और 29 अक्टूबर को एनएसडी की ओर से उन्हें नोएडा मेडिकेयर सेंटर में इलाज के लिए भेजा गया था। वहां पहले उनके बुखार का इलाज चला, दो दिन बाद उन्हें प्राइमरी स्टेज का जॉन्डिस बताया गया और 3 नवम्बर को डिस्चार्ज कर दिया गया। लेकिन कुछ ही देर बाद वे बेहोश हो गए और फिर डॉक्टरों ने उनकी बीमारी को डेंगू बताया। अगले दिन उनका निधन हो गया।
हमें संदेह है कि शशिभूषण वर्मा की मौत इलाज में लापरवाही से हुई है। इस घटना की जाँच और मुआवजे की मांग को लेकर पटना और बिहार के कई शहरों के संस्कृतिकर्मी आन्दोलित हैं। दिल्ली में भी शशिभूषण के दोस्तों की ओर से एक शोकसभा में इस परिघटना की जाँच की मांग की गई है। लेकिन अभी तक एनएसडी की ओर से कोई आधिकारिक बयान तक नहीं आया है कि वह हॉस्पीटल के खिलाफ कुछ करने जा रही है या नहीं और न ही उसकी ओर से संस्कृतिकर्मियों की अन्य मांगों को पूरा करने के संदर्भ में कुछ कहा गया है। एनएसडी में पहले भी बिहार के एक प्रतिभावान रंगकर्मी विद्याभूषण की मौत हो चुकी है।
हम तमाम सांस्कृतिक संगठनों, साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों, रंगकर्मियों से अपील करते हैं कि 21 नवन्बर को अपराह्न 2 बजे पुष्किन की मूर्ति (साहित्य अकादमी) के पास पहुँचें और एनएसडी प्रशासन ने अब तक इस मामले में क्या किया है, इसका जवाब मांगें। आइए एक साझा संघर्ष चलाया जाए, ताकि शशिभूषण के मामले में न्याय मिल सके और भविष्य में उन जैसे किसी रंगकर्मी को हमें इस तरह खोना न पड़े।

11.13.2009

नेपाल के साहित्यिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य पर एक अनौपचारिक बातचीत

प्रिय साथी,

हम आपको श्री निनु चापागाईं के साथ नेपाल के साहित्यिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य पर एक अनौपचारिक बातचीत के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। श्री चापागाईं न सिर्फ़ नेपाल के राजनीतिक आन्दोलन में अहम ज़िम्मेदारियाँ सँभालते रहे हैं बल्कि वहाँ के साहित्यिक-सांस्कृतिक आन्दोलन की भी एक अहम शख़्सियत हैं।

नेपाल के वरिष्ठतम मार्क्‍सवादी साहित्यिक आलोचकों में से एक, निनु प्रगतिशील लेखक संघ, नेपाल के अध्यक्ष और प्रगतिशील बुद्धिजीवी संगठन, नेपाल के केन्द्रीय सदस्य हैं। उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं और वे प्रमुख नेपाली साहित्यिक पत्रिका ‘वेदना’ के सम्पादक भी हैं। निनु नेपाल के कम्युनिस्ट आन्दोलन में करीब चार दशक से सक्रिय हैं। वे संयुक्त जन मोर्चा (1991-93) के महासचिव रह चुके हैं। इस समय वे एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य हैं तथा पार्टी के संस्कृति विभाग के प्रमुख हैं।

एक नये समाज के निर्माण की जद्दोजहद से गुज़र रहे नेपाल में पिछले कुछ समय से जारी गम्भीर राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक उथल-पुथल पर हम सभी की नज़रें लगी हुई हैं। विडम्बना यह है कि हमारे इतनेे करीब होते हुए नेपाल के बारे में जानकारी के लिए हमें प्रायः दूसरे-तीसरे स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में नेपाल को लेकर हम सबके मन में चल रही बहुतेरी जिज्ञासाओं व प्रश्नों पर निनु के साथ एक दिलचस्प और उपयोगी बातचीत हो सकेगी, ऐसी हमें उम्मीद है। कृपया ज़रूर आयें।

18 नवंबर, 2009; हिंदी भवन विष्णु दिगंबर मार्ग, निकट आईटीओ, नई दिल्ली

सादर,

सत्यम

सचिव, राहुल फ़ाउण्डेशन