3.04.2013

'असली इन्सान' उपन्‍यास के 'कमिसार' जैसे पात्र हवा से पैदा नहीं होते, वे आपके हमारे बीच ही जन्‍म लेते हैं









संदीप संवाद


कविता, कहानी, उपन्‍यास, नज़्म, फिल्‍म, थियेटर आदि से अक्‍सर लोगों को भावुक, प्रेरित, क्रोधित, जज्‍़बाती, उदास होते हुए देखा है। आखिर हो भी क्‍यों न, जिंदगी का संश्लिष्‍ट रूपांतरण ही तो कला होती है। कला हमारे आसपास-परिवेश को ज्‍यादा गहराई से देखने-समझने और महसूस करने के प्रति, और यहाँ तक कि जो चीज़ें हम आमतौर पर महसूस नहीं कर पाते, समझ-देख नहीं पाते उनके प्रति भी हम में संवेदन पैदा करती है। लेकिन क्‍या हमारी संवेदनाएं केवल कला की मोहताज हैं?

अपने आसपास देखने पर कई बार ऐसा ही लगता है। कॉफी हाउसों की मण्‍डलीबाजियों, कॉमरेडों के कमरों में बैठकी करते समय या सड़क पर चहलकदमी करते हुए, अक्‍सर दुनिया-जहान के दुख-दर्द, अमानवीयता, अपराध, असहिष्‍णुता, संवेदनहीनता, कैरियरवाद, असमानता, क्रांति, फिल्‍म-कला-प्रेम आदि पर बातें हो ही जाया करती हैं। लेकिन कभी-कभी इन सबके बीच, जीते-जागते, हाड़-मांस के बने इन्‍सान कहीं गुम-से हो जाते हैं। गुम हो जाती हैं उनकी तकलीफ़ें, उनके सपने, उनकी कुर्बानियां, उनकी बहादुरी...
    
     शालिनी को कैंसर होने की सूचना मिली तो सामने उसका चेहरा कौंध गया था। एक कार्यक्रम में दस साल पहले हुई मुलाकात, कुछ औपचारिक शब्‍दों का आदान-प्रदान, बस इतना ही तो! उसके बाद कार्यक्रम में शालिनी पर ध्‍यान ही नहीं गया, क्‍योंकि वह नज़र ही नहीं आती थी। कभी सरसराती हुई सामने से गुज़रती तो पता चलता कि शायद कुछ कम पड़ गया है, शालिनी उसी की व्‍यवस्‍था में जुटी है। फिर कभी-कभार मेहमानों और साथियों की ज़रूरत की चीज़ें लाते-ले जाते दिख जाती। यही पहली मुलाकात थी, और इस मुलाकात के दौरान एक बात खटकी थी कि युवा होते हुए भी वह क्‍यों इतना कम बोलती-मुस्‍कुराती है, जबकि कम्‍युनिस्‍ट तो ज़ि‍न्‍दादिल होते हैं (लेकिन उस समय शायद मेरे लिए जिंदादिली का मतलब हीं-हीं-ठीं-ठीं करना ही था, और अच्‍छा ही था कि हमारे साथी ''जिन्‍दादिल'' नहीं रहे)। खैर, बात आई-गई हो गयी और हम लोग अपनी-अपनी जगहों पर लौट आए।

     इस बीच जब भी शालिनी का नाम कहीं सुनने को मिलता, तो किसी न किसी काम के संबंध में सुनने को मिलता। शालिनी पुस्‍तक प्रतिष्‍ठान 'जनचेतना' के लखनऊ स्थित केन्‍द्र की प्रभारी है, बच्‍चों के लिए गठित संस्‍था 'अनुराग ट्रस्‍ट' की एक न्‍यासी है, परिकल्‍पना प्रकाशन की निदेशक है, राहुल फाउण्‍डेशन के प्रकाशन का काम देखती है और अरविन्‍द स्‍मृति न्‍यास का पुस्‍तकालय भी सम्‍भालती है। शालिनी ने सभी जिम्‍मेदारियों को एक कर्मठ क्रांतिकारी की तरह पूरा किया, हर तरह की कमियों-लापरवाहियों को दूर करने की दिशा में निरंतर काम किया। ऐसा करते हुए, शालिनी क्रांतिकारी अनुशासन का न सिर्फ स्‍वयं पालन किया बल्कि अन्‍य साथियों को भी ज्‍यादा दृढ़ता के साथ ऐसा करने के लिए प्रेरित किया। एक साथी मजाक में कहते कि मैं शालिनी के सामने ही नहीं पडूंगा क्‍योंकि अगर ग़लती से कोई ग़लती हो गयी, तब फिर शालिनी मुझे नहीं बख्‍शने वाली... उसूलों की बहुत पक्‍की हैं।
     एक कम्‍युनिस्‍ट के लिए सबसे तकलीफदेह यही होता है कि वह किसी वजह से अपने कामों में शिरकत न कर पाए। अब लगभग रोज की मुलाकात में महसूस भी हो रहा है कि शालिनी अपनी बीमारी से ज्‍यादा इस बात से चिड़चिड़ाती हैं कि वह अपने मोर्चे पर नहीं हैं। दर्द, तकलीफ़ वगैरह तो वह बेहद बहादुरी से झेल रही हैं, और युवा साथियों को उनसे सीखना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि निकोलाई ऑस्‍त्रोवेस्‍की, या असली इन्सान उपन्‍यास के 'कमिसार' जैसे पात्र हवा से पैदा नहीं होते, वे आपके हमारे बीच ही जन्‍म लेते हैं, यहीं पलते-बढ़ते हैं... बस एक निगाह चाहिए कि जब वास्‍तविक जीवन में ऐसे लोगों से मुलाकात हो तो हम उन्‍हें पहचान सकें।

     जो अंधे हो गए हैं, या जिनकी रगों का खून बिल्‍कुल ठंडा हो चुका है, उन्‍हें यह सब सामान्‍य लगेगा, क्‍योंकि शालिनी के जीवन पर ना कोई कहानी लिखी गई है, ना कविता, और ना ही फिल्‍म बनी है जो लोगों के दिल-दिमाग को झकझोरे; लेकिन मुर्दानगी छोड़कर शालिनी से मिलिए तो सही!!! उनकी आंखें बोलती हैं, ''ठहरो कॉमरेड, कुछ दिन आराम करना पड़ रहा है, फिर सारा काम पहले की तरह संभाल लूंगी और बेहतर ही संभालूंगी!"

      जल्‍दी किसी से 'कॉमरेड' बोलने का मन नहीं करता, लेकिन आज कर रहा है: ''हां कॉमरेड शालिनी, हमें बेसब्री से इंतज़ार है कि आप अपने मोर्चे पर लौटें, और हम लोग फिर जुट जाए काम में...!!!''

शालिनी का ब्‍लॉग: एक क्रान्तिकारी की जीवनरक्षा का अभियान

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