1.28.2008

जल-जंगल-जमीन से उजाड़े जा रहे लोगों की पीड़ा को व्यक्त करती कविता

कल रेयाज़ भाई की एक कविता पढ़ी (हाशिया वाले अपने रेयाज़ की), तब पता चला कि वो लेखक और पत्रकार ही नहीं एक संवेदनशील कवि भी हैं, जो महज कविता लिखने के लिए ही कविता नहीं लिखते। उनकी कविता 'शामिल' में, विकास और आधुनिकता के नाम पर जल-जंगल-जमीन से बेदखल किए जा रहे आदिवासियों/ग्रामीणों की पीड़ा की झलक मिलती है, जो शायद शहरों में बैठे हुए लोग समझ न पाते हों। साथ ही हाशिये पर धकेले जा रहे इन लोगों के हक की लड़ाई के लिए तन-मन अर्पित करने वाले लोगों की भावनाओं और उनके सपने भी मिलते हैं, इस कविता में। हालांकि, मेरा मानना है कि इन शोषित-उत्‍पीडि़तों के हकों और स्‍वाभिमान के लिए इन ज़हीन-ईमानदार-बहादुर लोगों की तमाम कुर्बानियों के बावजूद, आज केवल‍ पिछड़े आदिवासी/ग्रामीण इलाकों में केंद्रित लड़ाई से सुगना और उस जैसी अन्‍य स्त्रियों की व्‍यथा कम तो हो सकती है लेकिन खत्‍म नहीं हो सकती, क्‍योंकि ज़माना बदल गया है और बदल गए हैं उससे लड़ने के तरीके भी। खैर, यह तो अलग से बातचीत का मुद्दा है। हो सकता है कुछ आलोचकगण मेरी इस टिप्‍पणी से खार खा बैठें, लेकिन रेयाज़ की इस कविता को पढ़ते हुए, अचानक पाश की याद आ गई। पाश की कविताओं में आज़ाद हवा में सांस लेने की यही उत्‍कट लालसा, किसानों की पीड़ा, बेहतर समाज के सपने वर्तमान से निराशा और भविष्‍य से उम्‍मीद नज़र आती है। रेयाज़ भाई की अनुमति के बिना ही इस कविता के हिस्‍से यहां दे रहा हूं, समय मिलते ही पूरी कविता यहां पेश करूंगा। कविता का शीर्षक है - 'शामिल' :-

सुगना, तुमने सचमुच हिसाब
नहीं पढ़ा
मगर फिर भी तुम्‍हें इसके लिए
हिसाब जानने की जरूरत नहीं पड़ी कि

सारा लोहा तो ले जाते हैं जापान के मालिक

फिर लोहे की बंदूक अपनी सरकार के पास कैसे
लोहे की ट्रेन अपनी सरकार के पास कैसे
लोहे के बूट अपनी सरकार के पास कैसे

...तुम्‍हारी नदी
तुम्‍हारी धरती
तुम्‍हारे जंगल

और राज करेंगे
बाघ को देखने-‍दिखानेवाले
दिल्‍ली-लंदन में बैठे लोग


ये बाघ वाकई बड़े काम के जीव हैं
कि उनका नाम दर्ज है संविधान तक में
और तुम्‍हारा कहीं नहीं

...बाघ भरते हैं खजाना देश का
तुम क्‍या भरती हो देश के खजाने में सुगना
उल्‍टे जन्‍म देती हो ऐसे बच्‍चे
जो साहबों के सपने में
खौफ की तरह आते हैं-बाघ बन कर

सांझ ढल रही है तुम्‍हारी टाटी में
और मैं जानता हूं
कि तुम्‍हारे पास आ रहा हूं

केवल आज भर के लिए नहीं
हमेशा के लिए
तुम्‍हारे आंसुओं और खून से बने
दूसरे सभी लोगों की तरह
उनमें से एक

...हम लड़ेंगे
हम इसलिए लड़ेंगे कि
तुम्‍हारे लिए
एक नया संविधान बना सकें
जिसमें बाघों का नहीं
तुम्‍हारा नाम होगा, तुम्‍हारा अपना नाम
और हर उस आदमी का नाम
जो तुम्‍हारे आंसुओं

और तुम्‍हारे खून में से था


जो लड़े और मारे गये
जो जगे रहे और‍ जिन्‍होंने सपने देखे
उस सबके नाम के साथ
तुम्‍हारे गांव का नाम
और तुम्‍हारा आंगन
तुम्‍हारी भैंस
और तुम्‍हारे खेत, जंगल
पगडंडी,
नदी की ओट का वह पत्‍थर
जो तुम्‍हारे नहाने की जगह था
और तेंदू के पेड़ की वह जड़
जिस पर बैठ कर तुम गुनगुनाती थीं कभी
वे सब उस किताब में होंगे एक दिन
तुम्हारे हाथों में

तुम्‍हारे आंसू
‍तुम्हारा खून
तुम्हारा लोहा
और
तुम्हारा प्यार

...हम यह सब करेंगे
वादा रहा.

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