8.16.2009

क्‍या तुम्‍हें देश के आज़ाद होने की खुशी नहीं है?

स्‍वतंत्रता दिवस के मौके पर एक मित्र को उनके परिचित ने बधाई दी। इस पर उन्‍होंने कुछ जवाब दिया तो उनके परिचित का कहना था कि क्‍या तुम्‍हें देश के आज़ाद होने की खुशी नहीं है...इस सवाल पर मित्र ने जो जवाब भेजा उसकी एक प्रति मुझे भी मिली, उसे हूबहू यहां पेश कर रहा हूं, अब आप इसे पढ़ कर खुद राय बनाइए:

प्रिय मित्रो,

मैं आपको यह मेल इसलिए कर रहा हूं क्‍योंकि इससे पहले वाला मेल पढ़ने के बाद, मेरे एक मित्र ने मुझसे सवाल किया कि क्‍या तुम्‍हें देश के आज़ाद होने की खुशी नहीं है। उसने मुझसे सिर्फ हां या ना में जवाब मांगा।

मैंने सिर्फ हां या ना में जवाब देने से इंकार करते हुए कहा, ''जैसे तुम्‍हें अपना सवाल स्‍पष्‍ट तरीके से पूछने का हक है, वैसे ही मुझे भी अपना जवाब स्‍पष्‍ट ढंग से विस्‍तारपूर्वक देने का हक है। और मेरा जवाब है कि हमें आज़ादी तो मिली है, लेकिन अधूरी। मुझे इस बात की खुशी है कि हमने विदेशी गुलामी के जुए को संघर्षों और शहादतों की बदौलत अपने सिर से उतार फेंका। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम इससे संतुष्‍ट हो जाएं। हमारे शहीदों ने ऐसी आज़ादी का सपना देखा था जहां इंसान द्वारा इंसान का शोषण ख़त्‍म हो जाए, उन्‍होंने व्‍यापक आवाम की आज़ादी का सपना देखा था। तो जब तक हमें सच्‍चे मायनों में आज़ादी नहीं मिल जाती तब तक हम किस बात की खुशियां मनाएं। पिछले 63 सालों से खुशियां ही मनाते आ रहे हैं। क्‍या साल-दर-साल मनाई जाने वाली खुशियों के बाद देश की लगातार बद से बदतर होती हालत को देखकर तुम्‍हारा दिल बगावत नहीं कर उठता कि बस अब और खुशियां नहीं मनाएंगे। भारत में बेरोजगारी, कुपोषण, अशिक्षा, दहेज-हत्‍या, बालिका-भ्रूण हत्‍या, अंधविश्‍वास, जात-पांत की कुरीतियां, सांप्रदायिकता, स्‍वास्‍थ्‍य की दयनीय स्थिति, बिजली, पानी, आवास सहित बुनियादी सुविधाओं तक के घोर अभाव, बलात्‍कारों, मानवीय गरिमा और आत्‍मसम्‍मान पर रोज-ब-रोज लगने वाली चोटों के आंकड़ों के बारे में क्‍या आप मुझसे कम जानते हैं? ये तो चंद बानगियां हैं, समस्‍याएं आप मुझसे ज्‍यादा गिनवा सकते हैं। क्‍या इनमें से हरेक समस्‍या अपने आप में काफी नहीं कि हम बगावत कर दें। गरीबी, भूख, अशिक्षा, इंसानियत, ईमानदारी जैसे शब्‍द घिस चुके हैं। हम इन्‍हें बिना कुछ महसूस किए हुए बोलते हैं। जनता की संपत्ति की बदौलत शिक्षा अर्जित करते हैं, और फिर सामाजिक जिम्‍मेदारियों से कन्‍नी काटने के लिए तर्क गढ़ते हैं। मेरे दोस्‍त, मैं भाषण नहीं झाड़ना चाहता। क्‍योंकि तुम्‍हारे पास शायद ये सब सुनने का वक़्त न हो। तुमने तो दरअसल इसलिए पूछ लिया था कि अगर तुम इस आज़ादी के झूठा होने, अधूरा होने को स्‍वीकार कर लेते तो तुम्‍हारी आत्‍मा तुम्‍हारे सामने यह सवाल खड़ा कर देती कि तो फिर इस आज़ादी को मुकम्‍मल बनाने के लिए तुम क्‍या कर रहे हो। और दरअसल, तुम न तो मेरा जवाब सुनना चाहते हो, और न ही खुद जवाब तलाशना चाहते हो। क्‍योंकि तुम सुख-चैन के साथ, बिना किसी पछतावे के जिंदगी बिताना चाहते हो। लेकिन तुम ऐसा कर नहीं पाओगे, क्‍योंकि आए दिन अखबारों की सुर्खियां और हजारों घटनाओं में से छनकर आती चंद एक घटनाएं तुम्‍हें इस बात का अहसास दिलाती रहेंगी कि 'कैसी ख़ुशियां, आजादी का कैसा शोर, राज कर रहे कफ़नखसोट-मुर्दाखोर'।''

मेरे दिल में ढेरों बातें उमड़-घुमड़ रही थी। मैं संक्षेप में कहना चाहता था, लेकिन खु़द को रोक भी नहीं पा रहा था। पर मेरे दोस्‍त ने मुझसे कहा कि ऐसा करते हैं कि कभी आमने-सामने बैठकर इस पर बात करेंगे, क्‍योंकि ये लंबी चर्चा का विषय है। उसकी बात जरा भी ग़लत नहीं थी, सिवाय इसके कि दरअसल यह एक बात कहकर हम चर्चा से बच जाते हैं और वो आगे वो शुभ घड़ी कभी भी नहीं आती जबकि हम इस पर चर्चा कर सकें।

वह शुभ घड़ी जल्‍दी ही आए, इसी उम्‍मीद के साथ,

आपका,

चारु चन्‍द्र

आजाद हिन्‍दुस्‍तान के बारे में कुछ कवियों-शायरों के अल्‍फ़ाज़

आजाद हिन्‍दुस्‍तान के बारे में कुछ कवियों-शायरों की नज़्मों-कविताओं के अंश यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं। शुरुआत करते हैं फ़ैज़ से। अगस्‍त 1947 में आज़ादी मिलने के कुछ ही समय बाद मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ ने इस आज़ादी को 'दाग-दाग उज़ाला' कहा। उन्‍होंने कहा:
ये दाग़-दाग़ उज़ाला, ये शबगुज़ीदा सहर

वो इन्‍तज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं, जिसकी आरजू लेकर

चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं

फ़लक के दश्‍त में तारों की आख़री मंज़ि‍ल

कहीं तो होगा शबे सुस्‍त मौज का साहिल

कहीं तो जा के रुकेगा, सफ़ीन-ए-ग़मे-दिल..........

अली सरदार जाफ़री ने इस आजादी के बारे में लिखा :


कौन आज़ाद हुआ

किसके माथे से ग़ुलामी की सियाही छूटी

मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का

मादरे-हिन्‍द के चेहरे पे उदासी वही

कौन आज़ाद हुआ...


खंजर आज़ाद है सीनों में उतरने के लिए

मौत आज़ाद है लाशों पे गुज़रने के लिए

कौन आज़ाद हुआ...



जब आज़ाद भारत की सरकार ने हकों-अधिकारों की बात करने वालों और जनांदोलनों को कुचलने में अंग्रेजों को भी मात देनी शुरु कर दी, तो शंकर शैलेन्‍द्र ने लिखा :

भगतसिंह इस बार न लेना

काया भारतवासी की

देशभक्ति के लिए आज भी

सज़ा मिलेगी फांसी की



आजादी को सिरे से नकारते हुए इप्‍टा ने आम लोगों की आवाज को अल्‍फाज़ दिए :

तोड़ो बंधन तोड़ो

ये अन्‍याय के बंधन

तोड़ो बंधन तोड़ो बंधन तोड़ो बंधन तोड़ो...

हम क्‍या जानें भारत भी में भी आया है स्‍वराज

ओ भइया आया है स्‍वराज

आज भी हम भूखे-नंगे हैं आज भी हम मोहताज

ओ भइया आज भी हम मोहताज


रोटी मांगे तो खायें हम लाठी-गोली आज

थैलीशाहों की ठोकर में सारे देश की लाज


ऐ मज़दूर और किसानो, ऐ दुखियारे इन्‍सानों

ऐ छात्रो और जवानो, ऐ दुखियारे इन्‍सानों

झूठी आशा छोड़ो...

तोड़ो बंधन तोड़ा...



ख़लीलुर्रहमान आज़मी ने आज़ादी मिलने के दावे को सिरे से नकार दिया:

अभी वही है निज़ामे कोहना अभी तो जुल्‍मो सितम वही है

अभी मैं किस तरह मुस्‍कराऊं अभी रंजो अलम वही है


नये ग़ुलामो अभी तो हाथों में है वही कास-ए-गदाई

अभी तो ग़ैरों का आसरा है अभी तो रस्‍मो करम वही है


अभी कहां खुल सका है पर्दा अभी कहां तुम हुए हो उरियां

अभी तो रहबर बने हुए हो अभी तुम्‍हारा भरम वही है


अभी तो जम्‍हूरियत के साये में आमरीयत पनप रही है

हवस के हाथों में अब भी कानून का पुराना कलम वही है


मैं कैसे मानूं कि इन खुदाओं की बंदगी का तिलिस्‍म टूटा

अभी वही पीरे-मैकदा है अभी तो शेखो-हरम वही है


अभी वही है उदास राहें वही हैं तरसी हुई निगाहें

सहर के पैगम्‍बरों से कह दो यहां अभी शामे-ग़म वही है




व्‍यंग्‍य कई बार भावनाओं-भावावेशों का अतिरेक तथा सांद्रतम गंभीरता की अभिव्‍यक्ति भी होती है। रघुवीर सहाय ने जन-गण-मन के 'अधिनायक' के बारे में कहा :

राष्‍ट्रगीत में भला कौन वह

भारत भाग्‍य विधाता है

फटा सुथन्‍ना पहने जिसका

गुन हरचरना गाता है।

मखमल टमटम बल्‍लम तुरही

पगड़ी छत्र चंवर के साथ

तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर

जय-जय कौन कराता है।

पूरब पच्छिम से आते हैं

नंगे-बूचे नरकंकाल

सिंहासन पर बैठा, उने

तमगे कौन लगाता है।

कौन-कौन है वह जन-गण-मन

अधिनायक वह महाबली

डरा हुआ मन बेमन जिसका

बाजा रोज बजाता है।


विष्‍णु नागर ने तो राष्‍ट्रगीत की वैधता पर ही सवाल खड़ा कर दिया :

जन-गण-मन अधिनायक जय हे

जय हे, जय हे, जय जय हे

जय-जय, जय-जय, जय-जय-जय

जय-जय, जय-जय, जय-जय-जय

हे-हे, हे-हे, हे-हे, हे-हे, हे

हें-हें, हें-हें, हें-हें, हें

हा-हा, ही-ही, हू-हू है

हे-है, हो-हौ, ह-ह, है

हो-हो, हो-हो, हो-हौ है

याहू-याहू, याहू-याहू, याहू है

चाहे कोई मुझे जंगली कहे।



तो क्‍या लाखों शहीदों की शहादतें बेकार गईं। नहीं, शहादतों ने हमें एक मुकाम तक पहुंचाया, और अब ये शहादतें आगामी संघर्ष-पथ पर हमारे लिए प्रेरणा-स्रोत है। शलभ श्रीराम सिंह ने लिखा :

तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर

निगाह डाल, सोच और सोचकर सवाल कर

किधर गये वो वायदे? सुखों के ख्‍वाब क्‍या हुए?

तुझे था जिनका इंतज़ार वो जवाब क्‍या हुए?


तू इनकी झूठी बात पर, न और ऐतबार कर

कि तुझको सांस-सांस का सही हिसाब चाहिए!


घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!

जवाब दर सवाल है कि इंक़लाब चाहिए!


अंत में, शहीदों की ओर से

शहादत थी हमारी इसलिए

कि आज़ादियों का बढ़ता हुआ सफीना

रुके न पल भर को!

पर ये क्‍या?

ये अंधेरा!

ये कारवां रुका क्‍यों है?

बढ़े चलो, अभी तो

काफिला-ए-इंक़लाब को

आगे, बहुत आगे जाना है!



दोस्‍तो, 1947 का 'दाग़-दाग़ उज़ाला' अब गहरे अंधेरे में तब्‍दील हो चुका है। हम सभी इस बात को जानते तो हैं, पर पता नहीं महसूस कितना करते हैं। खैर, अब भी अगर कोई आजादी की शुभकामनाएं दे, तो उसके लिए पेश है नागार्जुन की कविता :


किसकी है जनवरी, किसका अगस्‍त है?

कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्‍त है?


सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है

गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है

चोर है, डाकू है, झूठा-मक्‍कार है

कातिल है, छलिया है, लुच्‍चा-लबार है

जैसे भी टिकट मिला

जहां भी टिकट मिला

शासन के घोड़े पर वह भी सवार है

उसी की जनवरी छब्‍बीस

उसीका पन्‍द्रह अगस्‍त है

बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्‍त है...


कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है

कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्‍त है?

खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा

मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्‍त है

सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्‍त है

उसकी है जनवरी, उसी का अगस्‍त है


पटना है, दिल्‍ली है, वहीं सब जुगाड़ है

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है

फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है

फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

मास्‍टर की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो

बच्‍चे की छाती में कै ठो हाड़ है!

देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!


मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है

पटना है, दिल्‍ली है, वहीं सब जुगाड़ है

फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है

फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है

महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है

ग़रीबों की बस्‍ती में उखाड़ है, पछाड़ है

धत् तेरी, धत् तेरी, कुच्‍छों नहीं! कुच्‍छों नहीं

ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है

ताड़ के पत्‍ते हैं, पत्‍तों के पंखे हैं

पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है

कुच्‍छों नहीं, कुच्‍छों नहीं...

ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है

पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!


किसकी है जनवरी, किसका अगस्‍त है!

कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्‍त है!

सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्‍त है

मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्‍त है

उसी की है जनवरी, उसी का अगस्‍त है...

8.11.2009

डीजीपी विश्‍वरंजन द्वारा इतिहास-दहन और सत्‍य भंजन

विश्‍वरंजन को छत्‍तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा का जवाब

छत्तीसगढ़ पुलिस के डीजीपी विश्‍वरंजन यह पद संभालने के बाद से ही मीडिया के कुछ चंपू-चाकर कलमघसीटों की मदद से सलवा जुडूम की दरिंदा मुहिम के पक्ष में और ''माओवादियों'' के बहाने विभिन्‍न जनांदोलनों और जनपक्षधर बुद्धिजीवियों के खिलाफ कुत्‍साप्रचार और झूठ का अभियान छेड़े हुए हैं। अब उन्‍होंने एक नया पैंतरा आज़माते हुए लेखकों-साहित्‍यकारों की गोलबंदी भी शुरू कर दी है। हिंदी के अनेक वरिष्‍ठ साहित्‍यकार पिछले दिनों इनके बुलावे पर प्रमोद वर्मा स्‍मृति समारोह में शिरकत भी कर आए। सबसे पहले युवा आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने एक खुला पत्र लिखकर इसका विरोध किया था, फिर आशुतोष कुमार ने जनसत्ता (3 अगस्‍त) की टिप्‍प्‍णी 'यह सांस्‍कृतिक सलवा जुडूम है' में विश्‍वरंजन के पाखंड और झूठ को नंगा किया था, जिसे धीरेश ने अपने ब्‍लॉग पर पोस्‍ट किया था।

इसी सिलसिले में याद आया कि पिछले साल छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा द्वारा विश्‍वरंजन को दिए गए ज़बर्दस्‍त जवाब की प्रति रायपुर के एक पत्रकार मित्र के माध्‍यम से मिली थी। अगस्‍त 2007 में 'छत्तीसगढ़' अखबार में सात किश्‍तों में विश्‍वरंजन का साक्षात्‍कार छपा था जिसमें उन्‍होंने सलवा जुडूम के पक्ष में ढेरों तर्क देने के साथ ही छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा और अन्‍य जनसंगठनों तथा मानवाधिकार व नागरिक अधिकार कर्मियों तक के खिलाफ जमकर झूठ उगला था। छत्तीसगढ़ के कुछ बुद्धिजीवियों ने इसके खिलाफ अखबारों में लेख भी लिखे लेकिन ज़्यादातर इतने पिलपिले थे कि विश्‍वरंजन ने उन्‍हें पटरा कर दिया। 17 मार्च 2008 को नई दुनिया में एक बयान में विश्वरंजन ने फिर से शहीद शंकर गुहा नियोगी के खिलाफ अनर्गल आरोप लगाए। इसके बाद छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने एक लंबा लेख लिखकर न केवल विश्‍वरंजन के एक-एक झूठ का पर्दाफ़ाश किया बल्कि बौद्धिकता के आवरण में लिपटे उनके तमाम ख़तरनाक तर्कों का ऐसा करारा जवाब दिया कि उनकी बोलती ही बंद हो गई। बताते हैं कि छ.मु.मो. ने इस लेख की 25-30 हज़ार प्रतियां बंटवाई। कुछ दिन बाद छ.मु.मो. ने विश्‍वरंजन की पोल खोलते हुए एक और पर्चा जारी किया। पत्रकार मित्र के अनुसार ऐसा करारा जवाब पाने की डीजीपी महोदय को उम्‍मीद नहीं थी। उन्‍हें ऐसा सदमा लगा कि कुछ दिन की छुट्टी लेकर दिल्‍ली चले गए।

उन दोनों पर्चों की पीडीएफ फाइलों के लिंक देने के साथ ही दोनों पर्चे इसी पोस्‍ट में नीचे भी दे रहा हूं। पहला पत्र थोड़ा लंबा है लेकिन अपने बॉस की तरफ़ से जयप्रकाश मानस (प्रमोद वर्मा संस्‍थान के सचिव और डीजीपी के भोंपू) ने जो लंबा खर्रा पंकज चतुर्वेदी के जवाब में लिख मारा, और आशुतोष कुमार के जनसत्ता में छपे लेख के जवाब में राम पटवा विश्‍वरंजन और सलवा-जुडूम का बचाव करते हुए जिस टिप्‍पणी में इस हद तक गुजर गए हैं कि पुलिसवालों द्वारा आदिवासी युवतियों के बलात्‍कार को मामूली बताया है, उससे तो छोटा ही है।



CMM 12


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