8.27.2011

देर रात गये पाश से हुई मुलाकात

देर रात गये पाश से हुई मुलाकात
चारूचंद्र पाठक


अवतार सिंह 'पाश'
कल देर रात न्‍यूज चैनल में छाए भ्रष्‍टाचार-विरोधी अन्‍ना-आंदोलन की खबरों और रामलीला मैदान में गूंज रहे वंदे मातरम और इंकलाब जिंदाबाद के नारों को देखते-सुनते हुए, अचानक मेरी निगाह अपनी बगल में रखे स्‍टूल पर बैठे पाश पर गई। मैं पाश को अपने सामने देखकर चौंक पड़ा। पाश तो 23 मार्च, 1988 को ही ख़लिस्‍तानियों के हाथों शहीद हो गये थे... फिर यहां... इस वक्‍त...
मैं इन्‍हीं खयालों में डूबा और असमंजस में पड़ा हुआ एकटक उन्‍हें देखे जा रहा था, और वे चुपचाप मंद-मंद मुस्‍करा रहे थे। मैं जाने और कितनी देर उन्‍हें यूं ही देखता रहता, अगर उन्‍होंने मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर यह न कहा होता, ''इंसान अपने विचारों के रूप में हमेशा जिंदा रहता है...''



मैं अब भी पशो-पेश में था, दिमाग अचानक ब्‍लैंक हो गया था...

पाश ने टीवी की तरफ इशारा करके कहा, ''तमाशा जारी है?''

मैंने कहा, ''हां, आजकल पूरे मीडिया और देश में बस यही छाया हुआ है...'' मेरा दिमाग़ अभी पूरी तरह शांत नहीं पाया था। मैंने पाश से पूछा, ''आपकी इस पर क्‍या राय है?''

पाश हँसे, ''मेरी राय तो तुमने अपनी किताबों की सेल्‍फ में लगा रखी है!!!''
मैंने पलटकर किताबों के शेल्‍फ पर नजर डाली और पाश का कविता संकलन ''अक्षर-अक्षर'' नज़र आया। मैंने हाथ बढ़ाकर किताब निकाल ली, और पाश की तरफ देखा...

पाश ने मेरे हाथ से किताब ले ली, और कहा, ''इसमें है मेरी राय। फिर भी, अगर कुछ खास सवाल हों, तो बोलो, मैं तुम्‍हें अपने विचार बता दूंगा।''

पाश की मौजूदगी से मैं अब भी चकित था।

मैं : ''यह कहा जा रहा है कि अब हिन्‍दुस्‍तान से भ्रष्‍टाचार खत्‍म हो जाएगा... देश में एक बड़ा परिवर्तन आ जाएगा...''

पाश :
''हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
जिस तरह हमारे बाजुओं में मछलियां हैं,
जिस तरह बैलों की पीठ पर उभरे
सोटियों के निशान हैं,
जिस तरह कर्ज के कागजों में
हमारा सहमा और सिकुड़ा भविष्‍य है
हम जिंदगी, बराबरी या कुछ भी और
इसी तरह सचमुच का चाहते हैं
....
हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
और हम सबकुछ सचमुच का देखना चाहते हैं --
जिंदगी, समाजवाद, या कुछ भी और...।''
(कविता का शीर्षक -- प्रतिबद्धता)

मैंने पूछा, ''एक और नया कानून बनाने की बात चल रही है, जिससे देश में भ्रष्‍टाचार समाप्‍त हो जाएगा। आपको क्‍या लगता है?''

पाश ने किताब के पन्‍ने पलटकर एक कविता की ओर इशारा कर दिया :-

''यह पुस्‍तक मर चुकी है
इसे मत पढ़ो
इसके लफ्जों में मौत की ठण्‍डक है
और एक-एक पन्‍ना
जिंदगी के अंतिम पल जैसा भयानक
यह पुस्‍तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु
और जब मैं जागा
तो मेरे इंसान बनने तक
ये पुस्‍तक मर चुकी थी
अब अगर इस पुस्‍तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोये हुए पशु।''
(कविता का शीर्षक -- संविधान)

मैं : ''शांति और अहिंसा के गाँधीवादी सिद्धांतों से क्‍या कोई नया मानव-केंद्रित सामाजिक परिवर्तन संभव है?''
मेरे सामने एक और कविता आ गई :
हम जिस शान्ति के लिए रेंगते रहे
वो शान्ति बाघों के जबड़ों में
स्‍वाद बनकर टपकती रही।
शान्ति कहीं नहीं होती --
रूहों में छिपे गीदड़ों का हुआना ही सबकुछ है।
शान्ति
घुटनों में सिर देकर जिंदगी को सपने में देखने का यत्‍न है।
शान्ति यूं कुछ नहीं है।
...
शान्ति गलीज विद्वानों के मुंह से टपकती लार है
शान्ति पुरस्‍कार लेते कवियों के बढ़े हुए बाजूओं का टुण्‍ड है
शान्ति वजीरों के पहने हुए खद्दर की चमक है
शान्ति और कुछ नहीं है
या शान्ति गाँधी का जांघिया है
जिसकी तनियों को चालीस करोड़ लोगों को फांसी लगाने के लिए
प्रयुक्‍त किया जा सकता है
(कविता का शीर्षक -- युद्ध और शांति)

मैं : ''यही नहीं इसे आजादी की दूसरी लड़ाई और नई क्रांति भी कहा जा रहा है?''

पाश : (इस बार वे स्‍वयं कविता पढ़ रहे थे...)

''क्रांति कोई दावत नहीं, नुमाइश नहीं
मैदान में बहता दरिया नहीं
वर्गों का, रुचियों का दरिन्‍दाना भिड़ना है
मरना है, मारना है
और मौत को खत्‍म करना है।
(कविता का शीर्षक -- खुला खत)''

मैं : ''इस तरह तो आप इस आंदोलन की सारी बातों की ही खारिज नहीं कर रहे हैं?''

पाश :
''अभी मैं धरती पर छाई
किसी साझी के काले-स्‍याह होंठों जैसी रात की ही बात करूंगा
उस इतिहास की
जो मेरे बाप के धूप से झुलसे कंधों पर उकरा है
या अपनी मां के पैरों में फटी बिवाइयों के भूगोल की बात करूंगा
मुझसे आस मत रखना कि मैं खेतों का पूत होकर
तुम्‍हारे जुगाले हुए स्‍वादों की बात करूंगा''
(कविता का शीर्षक -- इन्‍कार)

मैं : ''पूरा मीडिया मानो इस आंदोलन के समर्थन में जी-जान से जुटा हुआ है!!!''

पाश :
''वे संपादक और उस जैसे हजारों लोग
अपनी भद्दी देह पर सवार होकर आते हैं
तो गांव की पगडंडियों पर
घास में से हरी चमक मर जाती है

यह लोग असल में रोशनी के पतंगों जैसे हैं
जो दीया जलाकर पढ़ रहे बच्‍चों की नासिकाओं में
कचायंध का भभूका बनकर चढ़ते हैं।
मेरे शब्‍द उस दीये में
तेल की जगह जलना चाहते हैं
मुझे कविता का इससे बेहतर इस्‍तेमाल नहीं पता...''
(कविता का शीर्षक -- तुझे नहीं पता)

मैं : ''अन्‍ना के अलावा मानो कोई खबर ही नहीं बची हो!!!''

पाश :
''मैं आजकल अखबारों से बहुत डरता हूं
जरूर उनमें कहीं न कहीं
कुछ न होने की खबर छपी होगी।
शायद तुम नहीं जानते, या जानते भी हों
कि कितना भयानक है कहीं भी कुछ न होना
लगातार नजरों का हांफते रहना
और चीजों का चुपचाप लेटे रहना किसी ठंडी औरत की तरह।''
(कविता का शीर्षक -- लड़े हुए वर्तमान के रूबरू)

मैं : ''मुझे जिस बात ने बेहद परेशान किया वह यह कि इसके समर्थक किसी तर्क, सवाल या संदेह को सुनना ही नहीं चाहते। ऐसा करने वाले को देशद्रोही कह दिया जाता है।''

पाश : यह भी कोई नई बात नहीं है। इसे सुनो :
''अपने लोगों से प्‍यार का अर्थ
'दुश्‍मन देश' की एजेण्‍टी होता है।
और
बड़ी से बड़ी गद्दारी का तमगा
बड़े से बड़े रुतबा हो सकता है
तो --
दो और दो तीन भी हो सकते हैं।
वर्तमान मिथिहास हो सकता है।
मनुष्‍य की शक्‍ल भी चमचे जैसी हो सकती है।''
(कविता का शीर्षक -- दो और दो तीन)

मैं : ''और ये 'इन्‍कलाब जिंदाबाद' के क्‍या अर्थ बताए जा रहे है? मैं तो इसका एक ही अर्थ जानता हूं जिसे भगतसिंह ने बताया था।''


पाश :
''यह शर्मनाक हादसा हमारे साथ ही होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्‍द ने
बन जाना था सिंहासन का खड़ाऊं
मार्क्‍स का सिंह जैसा सिर
दिल्‍ली के भूलभुलैयों में मिमियाता फिरता
हमें ही देखना था
मेरे यारो, यह कुफ्र हमारे समयों में होना था...''
(कविता का शीर्षक -- हमारे समय में)

मैं : ''यानी आज भी भगतसिंह के रास्‍ते से लड़ने के सिवा और कोई चारा नहीं है, ना?''
''युद्ध हमारे बच्‍चों के लिए गेंद बनकर आयेगा
युद्ध हमारी बहनों के लिए कढ़ाई के सुंदर नमूने लायेगा
युद्ध हमारी बीवियों के स्‍तनों में दूध बनकर उतरेगा
युद्ध बूढ़ी मां के लिए निगाह की ऐनक बनेगा
युद्ध हमारे बड़ों की कब्रों पर फूल बनकर खिलेगा
वक्‍त बहुत देर
किसी बेकाबू घोड़े जैसा रहा है
जो हमें घसीटता हुआ जिंदगी से बहुत दूर ले गया है
कुछ नहीं बस युद्ध ही इस घोड़े की लगाम बन सकेगा
बस युद्ध ही इस घोड़े की लगाम बन सकेगा।''
(कविता का शीर्षक -- युद्ध और शांति)


इसके बाद 'प्‍यार,' 'दोस्‍ती,' 'लड़ाई,' 'कॉमरेड,' 'जिंदगी,' 'मौत,' 'तूफान,' जैसे ढेरों शब्‍द गूंजते रहे और भुलाए जा रहे बिंब उभरते रहे... आँख खुली तो खिड़की से धूप की रस्‍सी नींद को खींचकर दूर लिए जा रही थी... उठने का जतन कर ही रहा था कि ध्‍यान गया कि सीने पर पाश की किताब खुली थी और एक कविता मेरी आँखों में झाँक रही थी :

''मेरे दोस्तो,
हमारे समय का इतिहास
बस यही न रह जाये
कि हम  धीरे-धीरे मरने को ही
जीना समझ बैठें
कि हमारा समय घड़ी के साथ नहीं
हड्डियों के गलने-खपने से नापा जाए...''
(कविता का शीर्षक -- हमारे वक्‍तों में)

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