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11.27.2008

चाहत

बहुत दिनों से कुछ पढ़ने का मौका नहीं मिल रहा था। यही नहीं कई महीनों से लेव तोल्‍सतोय के शानदार उपन्‍यास पुनरुत्‍थान तक को पूरा नहीं पढ़ सका हूं, 6 महीने बाद भी एक चौथाई हिस्‍सा बाकी ही है...पुनरुत्थान को पूरा करने का मौका भी जल्‍द मिल जाएगा, लेकिन आज कात्‍यायनी की कविताएं पढ़ने का मन कर गया।
उनकी कई कविताएं मुझे पसंद हैं, लेकिन आज उनकी वह कविता आपके साथ साझा करने का मन किया, जो मुझे काफी पसंद है। उनकी इस कविता का शीर्षक है 'चाहत'....

चाहत

ख़ामोश उदास घंटियों की
बज उठने की सहसा उपजी ललक,
घास की पत्तियों का
मद्धम संगीत
रेगिस्तान में गूँजती
हमें खोज लेने वाले की विस्मित पुकार,
दहकते जंगल में
सुरक्षित बच रहा
कोई नम हरापन ।
यूँ आगमन होता है
आकस्मिक
प्यार का
शुष्कता के किसी यातना शिविर में भी
और हम चौंकते नहीं
क्योंकि हमने उम्मीदें बचा रखी थीं
और अपने वक़्त की तमाम
सरगर्मियों और जोख़िम के
एकदम बीचोंबीच खड़े थे ।

1.28.2008

जल-जंगल-जमीन से उजाड़े जा रहे लोगों की पीड़ा को व्यक्त करती कविता

कल रेयाज़ भाई की एक कविता पढ़ी (हाशिया वाले अपने रेयाज़ की), तब पता चला कि वो लेखक और पत्रकार ही नहीं एक संवेदनशील कवि भी हैं, जो महज कविता लिखने के लिए ही कविता नहीं लिखते। उनकी कविता 'शामिल' में, विकास और आधुनिकता के नाम पर जल-जंगल-जमीन से बेदखल किए जा रहे आदिवासियों/ग्रामीणों की पीड़ा की झलक मिलती है, जो शायद शहरों में बैठे हुए लोग समझ न पाते हों। साथ ही हाशिये पर धकेले जा रहे इन लोगों के हक की लड़ाई के लिए तन-मन अर्पित करने वाले लोगों की भावनाओं और उनके सपने भी मिलते हैं, इस कविता में। हालांकि, मेरा मानना है कि इन शोषित-उत्‍पीडि़तों के हकों और स्‍वाभिमान के लिए इन ज़हीन-ईमानदार-बहादुर लोगों की तमाम कुर्बानियों के बावजूद, आज केवल‍ पिछड़े आदिवासी/ग्रामीण इलाकों में केंद्रित लड़ाई से सुगना और उस जैसी अन्‍य स्त्रियों की व्‍यथा कम तो हो सकती है लेकिन खत्‍म नहीं हो सकती, क्‍योंकि ज़माना बदल गया है और बदल गए हैं उससे लड़ने के तरीके भी। खैर, यह तो अलग से बातचीत का मुद्दा है। हो सकता है कुछ आलोचकगण मेरी इस टिप्‍पणी से खार खा बैठें, लेकिन रेयाज़ की इस कविता को पढ़ते हुए, अचानक पाश की याद आ गई। पाश की कविताओं में आज़ाद हवा में सांस लेने की यही उत्‍कट लालसा, किसानों की पीड़ा, बेहतर समाज के सपने वर्तमान से निराशा और भविष्‍य से उम्‍मीद नज़र आती है। रेयाज़ भाई की अनुमति के बिना ही इस कविता के हिस्‍से यहां दे रहा हूं, समय मिलते ही पूरी कविता यहां पेश करूंगा। कविता का शीर्षक है - 'शामिल' :-

सुगना, तुमने सचमुच हिसाब
नहीं पढ़ा
मगर फिर भी तुम्‍हें इसके लिए
हिसाब जानने की जरूरत नहीं पड़ी कि

सारा लोहा तो ले जाते हैं जापान के मालिक

फिर लोहे की बंदूक अपनी सरकार के पास कैसे
लोहे की ट्रेन अपनी सरकार के पास कैसे
लोहे के बूट अपनी सरकार के पास कैसे

...तुम्‍हारी नदी
तुम्‍हारी धरती
तुम्‍हारे जंगल

और राज करेंगे
बाघ को देखने-‍दिखानेवाले
दिल्‍ली-लंदन में बैठे लोग


ये बाघ वाकई बड़े काम के जीव हैं
कि उनका नाम दर्ज है संविधान तक में
और तुम्‍हारा कहीं नहीं

...बाघ भरते हैं खजाना देश का
तुम क्‍या भरती हो देश के खजाने में सुगना
उल्‍टे जन्‍म देती हो ऐसे बच्‍चे
जो साहबों के सपने में
खौफ की तरह आते हैं-बाघ बन कर

सांझ ढल रही है तुम्‍हारी टाटी में
और मैं जानता हूं
कि तुम्‍हारे पास आ रहा हूं

केवल आज भर के लिए नहीं
हमेशा के लिए
तुम्‍हारे आंसुओं और खून से बने
दूसरे सभी लोगों की तरह
उनमें से एक

...हम लड़ेंगे
हम इसलिए लड़ेंगे कि
तुम्‍हारे लिए
एक नया संविधान बना सकें
जिसमें बाघों का नहीं
तुम्‍हारा नाम होगा, तुम्‍हारा अपना नाम
और हर उस आदमी का नाम
जो तुम्‍हारे आंसुओं

और तुम्‍हारे खून में से था


जो लड़े और मारे गये
जो जगे रहे और‍ जिन्‍होंने सपने देखे
उस सबके नाम के साथ
तुम्‍हारे गांव का नाम
और तुम्‍हारा आंगन
तुम्‍हारी भैंस
और तुम्‍हारे खेत, जंगल
पगडंडी,
नदी की ओट का वह पत्‍थर
जो तुम्‍हारे नहाने की जगह था
और तेंदू के पेड़ की वह जड़
जिस पर बैठ कर तुम गुनगुनाती थीं कभी
वे सब उस किताब में होंगे एक दिन
तुम्हारे हाथों में

तुम्‍हारे आंसू
‍तुम्हारा खून
तुम्हारा लोहा
और
तुम्हारा प्यार

...हम यह सब करेंगे
वादा रहा.

12.13.2007

दो छोटी कविताएं

शशिप्रकाश की कविताएं पढ़ रहा हूं इन दिनों। ये दो छोटी कविताएं अच्छी लगीं...उम्मीद है आपको भी पसंद आएंगी...


अपनी जड़ों को कोसता नहीं
उखड़ा हुआ चिनार का दरख्त।
सरू नहीं गाते शोकगीत।
अपने बलशाली होने का
दम नहीं भरता बलूत।
घर बैठने के बाद ही
क्रान्तिकारी लिखते हैं
आत्मकथाएं

और आत्मा की पराजय के बाद

वे बन जाते हैं
राजनीतिक सलाहकार।

********

सबसे अहम बात यह है
कि हमारे पैर नहीं हैं
घिसे हुए जूते।
हमारे लोग नहीं हैं
अंगोरा खरगोश।
हम ऐसे आतुर चक्के नहीं हैं
जिन्हें एक खड़-खड़ करती
ज़ंग लगी चेन भी
घुमा सके
अपनी मर्जी के मुताबिक।


* शशिप्रकाश

11.19.2007

...एक सपना जो पूरा करना है

हम कल बनाएंगे
एक साफ़-सुथरा शहर,
जहां दुख नहीं होगा,
प्यारे-प्यारे लोग जहां घूमेंगे यहां-वहां
हम सब ताकतवर होंगे
होंगे सब के सब जवां
न आंसू भरे दिन होंगे
और न भय भरे दिन।


-डब्ल्यू.एच.ऑडेन

(दि डांस ऑफ डेथ नाटक का अंश )

3.30.2007

...युद्ध का मोर्चा हर जगह है

'' प्रत्‍येक कलाकार, प्रत्‍येक वैज्ञानिक, प्रत्‍येक लेखक को अब यह तय करना होगा कि वह कहां खड़ा है। संघर्ष से ऊपर, ओलंपियन ऊंचाईयों पर खड़ा होने की कोई जगह नहीं होती। कोई तटस्‍थ प्रेक्षक नहीं होता...युद्ध का मोर्चा हर जगह है। सुरक्षित आश्रय के रूप में कोई पृष्‍ठभाग नहीं है...कलाकार को पक्ष चुनना ही होगा। स्‍वतंत्रता के लिए संघर्ष या फिर गुलामी- उसे किसी एक को चुनना ही होगा। मैंने अपना चुनाव कर लिया है। मेरे पास और कोई विकल्‍प नहीं है।''
पॉल रोबसन, 24 जुलाई, 1937
(स्‍पेन में फासिस्‍ट ताकतों के विरुद्ध जारी संघर्ष के दौरान आह्वान)

3.21.2007

साहित्य का उद्देश्

... जब तक साहित्‍य का काम केवल मनबहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियां गा-गाकर सुलाना, केवल आंसू बहाकर जी हल्‍का करना था, तब तक इसके लिए कर्म की आवश्‍यकता न थी। वह एक दीवाना था, जिसका गम दूसरे खाते थे, मगर हम साहित्‍य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्‍तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्‍य खरा उतरेगा, जिसमें उच्‍च चिन्‍तन हो, स्‍वाधीनता का भाव हो, सौन्‍दर्य का सार हो, सृजन की आत्‍मा हो, जीवन की सच्‍चाइयों का प्रकाश हो- जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं; क्‍योंकि अब और ज्‍यादा सोना मृत्‍यु का लक्षण है।
- प्रेमचंद

3.18.2007

पछतावा

लोग जिस चीज में विश्‍वास करते हैं उस पर प्राय: अमल नहीं करते हैं।
वे वह करते हैं जो सुविधाजनक है, फिर पछताते हैं।

- बॉब डिलन (मशहूर अमेरिकी गायक)

3.17.2007

अंधेरा तो सिर्फ देहरी पर...

उस पार है
उम्मीदों और उजास की
पूरी दुनिया।
अंधेरा तो सिर्फ देहरी पर है...