11.27.2008
चाहत
उनकी कई कविताएं मुझे पसंद हैं, लेकिन आज उनकी वह कविता आपके साथ साझा करने का मन किया, जो मुझे काफी पसंद है। उनकी इस कविता का शीर्षक है 'चाहत'....
चाहत
ख़ामोश उदास घंटियों की
बज उठने की सहसा उपजी ललक,
घास की पत्तियों का
मद्धम संगीत
रेगिस्तान में गूँजती
हमें खोज लेने वाले की विस्मित पुकार,
दहकते जंगल में
सुरक्षित बच रहा
कोई नम हरापन ।
यूँ आगमन होता है
आकस्मिक
प्यार का
शुष्कता के किसी यातना शिविर में भी
और हम चौंकते नहीं
क्योंकि हमने उम्मीदें बचा रखी थीं
और अपने वक़्त की तमाम
सरगर्मियों और जोख़िम के
एकदम बीचोंबीच खड़े थे ।
1.28.2008
जल-जंगल-जमीन से उजाड़े जा रहे लोगों की पीड़ा को व्यक्त करती कविता
सुगना, तुमने सचमुच हिसाब
नहीं पढ़ा
मगर फिर भी तुम्हें इसके लिए
हिसाब जानने की जरूरत नहीं पड़ी कि
सारा लोहा तो ले जाते हैं जापान के मालिक
फिर लोहे की बंदूक अपनी सरकार के पास कैसे
लोहे की ट्रेन अपनी सरकार के पास कैसे
लोहे के बूट अपनी सरकार के पास कैसे
...तुम्हारी नदी
तुम्हारी धरती
तुम्हारे जंगल
और राज करेंगे
बाघ को देखने-दिखानेवाले
दिल्ली-लंदन में बैठे लोग
ये बाघ वाकई बड़े काम के जीव हैं
कि उनका नाम दर्ज है संविधान तक में
और तुम्हारा कहीं नहीं
...बाघ भरते हैं खजाना देश का
तुम क्या भरती हो देश के खजाने में सुगना
उल्टे जन्म देती हो ऐसे बच्चे
जो साहबों के सपने में
खौफ की तरह आते हैं-बाघ बन कर
सांझ ढल रही है तुम्हारी टाटी में
और मैं जानता हूं
कि तुम्हारे पास आ रहा हूं
केवल आज भर के लिए नहीं
हमेशा के लिए
तुम्हारे आंसुओं और खून से बने
दूसरे सभी लोगों की तरह
उनमें से एक
...हम लड़ेंगे
हम इसलिए लड़ेंगे कि
तुम्हारे लिए
एक नया संविधान बना सकें
जिसमें बाघों का नहीं
तुम्हारा नाम होगा, तुम्हारा अपना नाम
और हर उस आदमी का नाम
जो तुम्हारे आंसुओं
और तुम्हारे खून में से था
जो लड़े और मारे गये
जो जगे रहे और जिन्होंने सपने देखे
उस सबके नाम के साथ
तुम्हारे गांव का नाम
और तुम्हारा आंगन
तुम्हारी भैंस
और तुम्हारे खेत, जंगल
पगडंडी,
नदी की ओट का वह पत्थर
जो तुम्हारे नहाने की जगह था
और तेंदू के पेड़ की वह जड़
जिस पर बैठ कर तुम गुनगुनाती थीं कभी
वे सब उस किताब में होंगे एक दिन
तुम्हारे हाथों में
तुम्हारे आंसू
तुम्हारा खून
तुम्हारा लोहा
और तुम्हारा प्यार
...हम यह सब करेंगे
वादा रहा.
12.13.2007
दो छोटी कविताएं
अपनी जड़ों को कोसता नहीं
उखड़ा हुआ चिनार का दरख्त।
सरू नहीं गाते शोकगीत।
अपने बलशाली होने का
दम नहीं भरता बलूत।
घर बैठने के बाद ही
क्रान्तिकारी लिखते हैं
आत्मकथाएं
और आत्मा की पराजय के बाद
वे बन जाते हैं
राजनीतिक सलाहकार।
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सबसे अहम बात यह है
कि हमारे पैर नहीं हैं
घिसे हुए जूते।
हमारे लोग नहीं हैं
अंगोरा खरगोश।
हम ऐसे आतुर चक्के नहीं हैं
जिन्हें एक खड़-खड़ करती
ज़ंग लगी चेन भी
घुमा सके
अपनी मर्जी के मुताबिक।
* शशिप्रकाश
11.19.2007
...एक सपना जो पूरा करना है
एक साफ़-सुथरा शहर,
जहां दुख नहीं होगा,
प्यारे-प्यारे लोग जहां घूमेंगे यहां-वहां
हम सब ताकतवर होंगे
होंगे सब के सब जवां
न आंसू भरे दिन होंगे
और न भय भरे दिन।
-डब्ल्यू.एच.ऑडेन
(दि डांस ऑफ डेथ नाटक का अंश )
3.30.2007
...युद्ध का मोर्चा हर जगह है
3.21.2007
साहित्य का उद्देश्
- प्रेमचंद
3.18.2007
3.17.2007
उस पार है
उम्मीदों और उजास की
पूरी दुनिया।
अंधेरा तो सिर्फ देहरी पर है...