3.21.2007

साहित्य का उद्देश्

... जब तक साहित्‍य का काम केवल मनबहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियां गा-गाकर सुलाना, केवल आंसू बहाकर जी हल्‍का करना था, तब तक इसके लिए कर्म की आवश्‍यकता न थी। वह एक दीवाना था, जिसका गम दूसरे खाते थे, मगर हम साहित्‍य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्‍तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्‍य खरा उतरेगा, जिसमें उच्‍च चिन्‍तन हो, स्‍वाधीनता का भाव हो, सौन्‍दर्य का सार हो, सृजन की आत्‍मा हो, जीवन की सच्‍चाइयों का प्रकाश हो- जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं; क्‍योंकि अब और ज्‍यादा सोना मृत्‍यु का लक्षण है।
- प्रेमचंद

No comments: