5.12.2011

मीडिया के अपने मित्रों का आभार और चंद बातें

मीडिया के अपने मित्रों का आभार और चंद बातें


प्रिय मित्रो,

पिछले 3 मई को गोरखपुर में अंकुर उद्योग के मालिक द्वारा मजदूरों पर गोलियां चलवाने और उसके बाद से मजदूर आंदोलन के दमन के सिलसिले में आपसे ख़तो-किताबत तथा बातचीत होती रही है। हमारी ओर से भेजी गई ईमेल आदि तथा अपने स्रोतों से आपको मालूम ही होगा कि मज़दूरों की एकता तथा देशभर में हुई निंदा और चौतरफा दबाव के बाद 9 तारीख़ की रात को गोरखपुर का प्रशासन व अंकुर उद्योग का मालिक झुकने को मजबूर हो गए। फिलहाल अंकुर उद्योग के मालिक ने कुछ मांगें मानी हैं और 18 मजदूरों को काम पर वापस रखा है तथा फैक्‍ट्री चालू हो गई है।

हालांकि अब भी वी.एन. डायर्स के दो कारखानों में तालाबंदी जारी है, सत्तर-अस्‍सी गुण्‍डों को लेकर मजदूरों पर गोलियां चलाने वाला प्रदीप सिंह अभी तक पकड़ा नहीं गया और ना ही मजदूरों पर से फर्जी मुकदमे वापस लिए गए हैं,न घायल मज़दूरों को मुआवज़ा घोषित हुआ है, न इस बर्बर गोलीकांड के लिए मालिक पर कोई कार्रवाई हुई है और न ही न्‍यायिक जांच के आदेश दिए गए हैं। फिर भी, दमन-उत्‍पीड़न से मज़दूरों को राहत मिली है और मालिकान तथा प्रशासन पीछे हटने पर बाध्‍य हुए हैं, आगे के लिए बातचीत करने पर भी राजी होना पड़ा है।
निश्चित ही, इसके लिए मुख्‍य रूप से बधाई के पात्र गोरखपुर के मजदूर ही हैं जिन्‍होंने दमन का डटकर मुकाबला किया; लेकिन देशभर में हुई निंदा तथा जनदबाव का और मीडिया के आप सभी साथियों के सहयोग और समर्थन का इसमें बहुत बड़ा योगदान है। इसके लिए मैं 'गोरखपुर मजदूर आंदोलन समर्थक नागरिक मोर्चा' की ओर से मीडिया के सभी साथियों का आभार प्रकट करना चाहता हूं (दो वर्ष पहले गोरखपुर के मज़दूर आंदोलन के दमन के समय गठित इस मोर्चे में मैं शामिल रहा हूं)।
मैं लंबे समय तक देश के कई प्रतिष्ठित हिंदी अखबारों से जुड़ा रहा हूं और पिछले तीन साल से स्‍वतंत्र रूप से पत्रकारिता कर रहा हूं। मुझे इस बात का अहसास है कि तमाम ''दबावों'' के बावजूद मीडिया के साथियों ने जिस तरह इस पूरे मामले को अपने पत्र-पत्रिका/चैनल में स्‍थान दिया, वह काफी चुनौतीपूर्ण रहा होगा। चौतरफा निंदा और मीडिया की खबरों से गोरखपुर के मालिकान-प्रशासन पर जो दबाव बना है उसमें आप सभी का योगदान सराहनीय है।
लेकिन, मैं एक बात की ओर ध्‍यान दिलाना चाहूंगा। दो साल पहले भी गोरखपुर में मजदूरों का आंदोलन चला था। उस समय भी जनदबाव और मीडियाकर्मियों के सहयोग के कारण मालिकान-प्रशासन-राजनेता गठजोड़ को झुकना पड़ा था। लेकिन उस समय तीन-चार बार किए गए समझौते आज तक लागू नहीं हुए। अगुआ मजदूरों को चुन-चुन कर प्रताड़ि‍त किया गया तथा समय बीतने के साथ झूठे आरोप लगाकर एक-एक करके उन्‍हें निकाल बाहर किया। और इस बार भी मालिक-प्रशासन ऐसा ही कर सकते हैं। हालत यह है कि चुपचाप सबकुछ सहकर काम करो, तो आप शांत, आज्ञाकारी, मेहनती, विकास को बढ़ावा देने वाले आदि-आदि हैं, वरना आप उकसावेबाज, माओवादी, नक्‍सलवादी करार दिए जाएंगे (वैसे हम मीडियाकर्मियों की स्थिति भी बहुत अच्‍छी नहीं है, और इस बात को आपसे बेहतर कौन जानता होगा?)। उस समय भाजपा के स्‍थानीय सांसद आदित्‍यनाथ ने लगातार मजदूरों और उनके नेताओं के खिलाफ जहर उगला था और पहले तो इसे सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास किया तथा मजदूरों को कामचोर तक कहा। बाद में, थू-थू होने पर उन्‍होंने मजदूरों के नेताओं को निशाना बनाया और अखबारों में बयान जारी करके उन पर नक्‍सलवादी-माओवादी-बाहरी तत्‍व आदि का लेबल चस्‍पां करने लगे। प्रशासन भी मालिकों के सुर में सुर मिलाता रहा। (अभी मोहल्‍ला लाइव पर इस आंदोलन की खबर पर गौरव सोलंकी ने टिप्‍पणी की है कि ''मुझे एक बात याद आई। तहलका में जब मैंने गोरखपुर के मजदूरों की स्टोरी की थी पिछले साल, तब वहाँ के डिप्टी लेबर कमिश्नर को फ़ोन किया था उनकी राय जानने के लिए। उन्होंने कहा कि आपको जो करना है, कर लो। जहाँ श्रम विभाग के अधिकारी ही डॉन के लहजे में बात करते हैं, वहाँ स्थितियाँ कितनी भयावह हो सकती हैं, आप सोचिए।'') मज़दूर नेताओं को बातचीत के बहाने बुलाने के बाद मारा-पीटा गया और फर्जी मुकदमे तक दायर कर दिए। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार उनका एनकाउंटर तक करने की कोशिश की गई। लेकिन उस समय भी जनदबाव और मीडिया में मौजूद साथियों की तत्‍परता के कारण वे इस घृणित कार्य को अंजाम नहीं दे सके।



इस बार भी आप सभी साथियों के सहयोग और जनवादी अधिकार-नागरिक अधिकार एक्टिविस्‍टों के समर्थन के कारण मालिक-प्रशासन दो कदम पीछे हटने को मजबूर हुए हैं। लेकिन,मुझे लगता है कि इस बार भी मालिकान और प्रशासन वही तरीका अपना सकते हैं। फिलहाल वे कुछ मांगें मानकर काम शुरू करा देंगे और बाद में किसी भी मांग को पूरा करने के बजाय आंदोलन के अगुवा मजदूरों को चुन-चुन कर प्रताड़ि‍त करेंगे, फिर काम से निकाल देंगे। इसलिए, हमें यथासंभव यह दबाव बनाए रखना होगा।
वैसे, हमें विचार करना चाहिए कि यह तो केवल एक मामला है, देशभर में रोजाना ऐसे सैकड़ों मामले प्रकाश में आ रहे हैं। लोकतांत्रिक मूल्‍यों के दमन, मजदूरों-किसानों के उत्‍पीड़न-शोषण की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। राजधानी दिल्‍ली में केंद्र सरकार की नाक के नीचे लाखों मज़दूर जिन अमानवीय हालात में जीते और काम करते हैं उनके बारे में ही जब अधिकांश लोग नहीं जानते तो गोरखपुर जैसे दूर-दराज के इलाकों के बारे में अनुमान ही लगाया जा सकता है। 260 श्रम कानूनों की तो छोड़ि‍ए, अधिकांश जगह सबसे बुनियादी श्रम कानून भी लागू नहीं होते। क्‍या हमें इन घटनाओं को सामने लाने के प्रयास नहीं करने चाहिए? हमें तमाम ''दबावों'', नीतियों, सीमाओं आदि के बावजूद अपने प्रयास जारी नहीं रखने चाहिए? तमाम मतभेदों के बावजूद हमें आम जनता के जनवादी-नागरिक अधिकारों के हनन, मजदूर-किसानों के दमन-उत्‍पीड़न के खिलाफ मिलकर आवाज नहीं उठानी चाहिए?

इस पूरे आंदोलन में आपके सराहनीय योगदान के लिए एक बार फिर तहेदिल से शुक्रिया!

संदीप

sandeep.samwad@gmail.com
8447011935

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