11.27.2008

चाहत

बहुत दिनों से कुछ पढ़ने का मौका नहीं मिल रहा था। यही नहीं कई महीनों से लेव तोल्‍सतोय के शानदार उपन्‍यास पुनरुत्‍थान तक को पूरा नहीं पढ़ सका हूं, 6 महीने बाद भी एक चौथाई हिस्‍सा बाकी ही है...पुनरुत्थान को पूरा करने का मौका भी जल्‍द मिल जाएगा, लेकिन आज कात्‍यायनी की कविताएं पढ़ने का मन कर गया।
उनकी कई कविताएं मुझे पसंद हैं, लेकिन आज उनकी वह कविता आपके साथ साझा करने का मन किया, जो मुझे काफी पसंद है। उनकी इस कविता का शीर्षक है 'चाहत'....

चाहत

ख़ामोश उदास घंटियों की
बज उठने की सहसा उपजी ललक,
घास की पत्तियों का
मद्धम संगीत
रेगिस्तान में गूँजती
हमें खोज लेने वाले की विस्मित पुकार,
दहकते जंगल में
सुरक्षित बच रहा
कोई नम हरापन ।
यूँ आगमन होता है
आकस्मिक
प्यार का
शुष्कता के किसी यातना शिविर में भी
और हम चौंकते नहीं
क्योंकि हमने उम्मीदें बचा रखी थीं
और अपने वक़्त की तमाम
सरगर्मियों और जोख़िम के
एकदम बीचोंबीच खड़े थे ।

2 comments:

nidhi said...

bhut accha laga aapke blog pr aakar.vincent ki vo painting hai jo mujhe sabse jyada pasand hai,jisme taare bhi jalte hain or tolstoy ki baat hai

nidhi said...

bhut accha laga aapke blog pr aakar.vincent ki vo painting hai jo mujhe sabse jyada pasand hai,jisme taare bhi jalte hain or tolstoy ki baat hai