शशिप्रकाश की कविताएं पढ़ रहा हूं इन दिनों। ये दो छोटी कविताएं अच्छी लगीं...उम्मीद है आपको भी पसंद आएंगी...
अपनी जड़ों को कोसता नहीं
उखड़ा हुआ चिनार का दरख्त।
सरू नहीं गाते शोकगीत।
अपने बलशाली होने का
दम नहीं भरता बलूत।
घर बैठने के बाद ही
क्रान्तिकारी लिखते हैं
आत्मकथाएं
और आत्मा की पराजय के बाद
वे बन जाते हैं
राजनीतिक सलाहकार।
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सबसे अहम बात यह है
कि हमारे पैर नहीं हैं
घिसे हुए जूते।
हमारे लोग नहीं हैं
अंगोरा खरगोश।
हम ऐसे आतुर चक्के नहीं हैं
जिन्हें एक खड़-खड़ करती
ज़ंग लगी चेन भी
घुमा सके
अपनी मर्जी के मुताबिक।
* शशिप्रकाश