8.27.2011

जूते के हिसाब से पैर मत काटिए, वरना यही कहेंगे ''...कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे''

मैं इस कथित भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन और नेतृत्व से सहमत नहीं हूं। फिर भी, मेरा मानना है अन्ना की अगुवाई में चल रहे आंदोलन में आमजन की भागीदारी (चाहे वह जिस हद तक भी हो) दरअसल गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, कदम-कदम पर होने वाला अपमान, असमानता की बढ़ती खाई, ऊंच-नीच, जात-पात, भूमि अधिग्रहण, विस्थापन आदि-आदि के प्रति जनता का रोष है, जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में व्यक्त हुआ है। यह कोई नई परिघटना नहीं है। अतीत में भी ऐसा हुआ, और मौजूदा दौर में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में हो रहा है। ग्रीस, स्पेन, लीबिया, मिस्र, और हाल ही में लंदन के दंगे सब इसका उदाहरण हैं। इन सब जगहों पर किसी हालिया घटना ने सतह के नीचे खदबदाते लावे को बाहर लाने वाले उत्प्रेरक की तरह काम किया। उनका विश्लेषण किसी एक घटना तक सीमित नहीं रखा जा सकता है।

प्रगतिशील ताकतों को सोचना है कि उन्हेंप ऐसे में क्या और कैसे करना चाहिए। हर संगठन-व्यक्ति का अपना-अपना तरीका हो सकता है, लेकिन हम सभी को सबसे पहले वस्तुस्थिति को स्वीकार करना चाहिए। जूते के हिसाब से पैर काटने से केवल आप घायल होंगे। जैसेकि, अब भी कई मित्र जन लोकपाल के आंदोलन को सवर्णों का--मध्यवर्ग का आंदोलन, मीडिया प्रायोजित आंदोलन बता कर खारिज कर रहे हैं। उनसे यही कहना है कि भले ही शुरुआत में केवल मध्यवर्ग रहा हो, और मीडिया का ज्यादा हाइप मिल गया हो। लेकिन हकीकत यही है कि वे लोग इसे एक हद तक मुद्दा बनाने में कामयाब रहे हैं और हम अभी तक केवल यही कह रहे हैं कि केवल कुछेक हजार लोग ही आंदोलन में शामिल हुए हैं।

भले ही इसमें संघ-भाजपा-बजरंग दल का पूरा नेटवर्क जुटा हो, फोर्ड फाउंडेशन से पैसा आ रहा हो, पूरे आंदोलन का तौर-तरीका फासिस्टा तरीका हो, नेतृत्वो फासिस्टे हो लेकिन यह स्वीकार करना होगा कि वे एक हद तक इसे मुद्दा बनाने में कामयाब रहे हैं। हमें ठोस मूल्यांकन करके इसे स्वीकार करना चाहिए और कारणों की पड़ताल करनी चाहिए, आगे के लिए सबक निकालना चाहिए। अपनी कुंठा मिटाने के लिए संख्या कम करके आंकने से कुछ नहीं होगा। सच्चाई का सामना कीजिए, तभी कोई विकल्प खड़ा किया जा सकता है। इससे सबक निकालकर ही जनता के बीच काम किया जा सकता है, सर्वखण्डनवादी तरीके से कुछ नहीं होगा। हम नहीं समझेंगे, तो जनता फासिस्टों के पीछे भी चल सकती है। और तब हम यही कहते रह जाएंगे, ''…कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे''।

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