संदीप संवाद

हालांकि, मुझे विद्वान होने का कोई भ्रम नहीं है, ना ही मैं किसी विषय का विशेषज्ञ हूं, लेकिन कुछ अनुभव और सीमित अध्ययन के बल पर ही सही, मुझे अपने विचार साझा करने का पूरा हक है। इस से किसी विद्वान को आपत्ति हो, तो हुआ करे। वैसे, हो सकता है कि क्रांति को अपनी बपौती समझने वालों को इन सब बातों से परेशानी हो, और कुत्सा-प्रचार का एक दौर फिर शुरू हो जाए, लेकिन जो भी हो, मैं तो एक बार फिर यही कहूंगा कि समाज में ही नहीं, बल्कि संगठनों के भीतर चल रही तानाशाही, यथास्थितिवाद से भी निराश होने की जगह इनसे जुझने की तैयारी की जाए। क्योंकि बाहरी लड़ाई के बराबर ही अंदरूनी लड़ाई भी जरूरी होती है। और ऐसा ना होता तो दो लाइनों के संघर्ष की बात ही कभी ना उठी होती।
और एक बात, अगर किसी भी नौजवान में अकेले पड़ जाने, गालियां खाने, दुष्प्रचार और अपने खिलाफ जोड़-तोड़ सहने का साहस नहीं तो उसे क्रांति के रास्ते पर नहीं आना चाहिए, ये इतना आसान रास्ता नहीं है दोस्त! इतना आसान होता तो दुनिया बहुत पहले ही खूबसूरत बन चुकी होती और तुम निराशा, अवसाद, पतन के गर्त में गिरने के बजाय उस दुनिया की खूबसूरती के गीत लिख रहे होते। खूबसूरत दुनिया की खूबसूरती के गीत...लेकिन अभी तो सन्नाटे को चीरने वाले गीतों की जरूरत है। अभी, शब्दों को हथियार बनाने की जरूरत है और अभी अपने शब्दों को, गीतों को, आवाज को - ऐसे तूफान में तब्दील करने की जरूरत है, जिससे दुश्मन बौखला उठा, उसका सारा घाघपन, अनुभव, ताकत थरथरा उठे और उसकी जड़ता का खोखलापन भरभरा कर गिर जाए। यही समय है कि हर उस चीज के खिलाफ बगावत कर दी जाए, जो आपके सपनों को कुचलती है, और आपके भीतर के बचे हुए इंसान का रोज़-ब-रोज़ क़त्ल करती है।
खैर, अब मुद्दे पर आते हैं, बात यह हो रही थी कि कोई भी क्रांतिकारी संगठन इसी समाज से आए अगुवा तत्वों से बनता है। लेकिन वे तत्व इस समाज की बुर्जुआ मूल्य मान्यताएं भी अपने साथ लाते हैं और रोज-रोज समाज के साथ अंतर्क्रिया के दौरान समाज को प्रभावित करने पर भी, खुद बुर्जुआ विचारों से प्रभावित भी होते हैं। राजनीतिक कैरियरवाद, अवसरवाद, समूहवाद, पिछलग्गूपना, नौकरशाही, जोड़-तोड़, परिवारवाद ये सब तो इसके लक्षणमात्र है। दरअसल, पहले व्यवहार में नजर आने वाली ये समस्याएं शुरुआत में केवल राजनीतिक-सांगठनिक समस्याएं दिखती हैं, लेकिन धीरे-धीरे ये विचारधारात्मक धरातल पर भी दिखाई देने लगती है।

इसलिए, ध्यान रखिए, यदि कोई संगठन कतारों की पहलकदमी पर अंकुश लगा रहा है और दो लाइनें के संघर्ष या जनवादी केंद्रीयता के नाम पर नौकरशाहाना व्यवहार कर रहा है, केवल केंद्रीयता पर जोर दे रहा है तो कालांतर में उसका पतन निश्चित है।
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि कुछ लक्षण दिखने मात्र से ही किसी संगठन को पतित घोषित कर दिया जाए। आदर्शीकरण किसी भी चीज का बुरा होता है, चाहे क्रांति का हो, चाहे नेतृत्व का। यदि आप अपने प्रति नरमी की उम्मीद करते हैं, तो नेतृत्व के प्रति भी तब तक वैसा व्यवहार कीजिए, उनकी मानवीय कमजोरियों को समझिये जबतक की आपको यकीन ना हो जाए कि अब नेतृत्व का कुछ नहीं हो सकता। हालांकि, किसी संगठन, पार्टी के नेतृत्व में आस्था बनाए रखते हुए, यह सब इतना आसान नहीं होता, लेकिन असंभव भी नहीं होता। बस आपको उन तमाम खतरों से सचेतन तौर पर बचना होता है, जो कोई भी व्यवस्था, चीजों को बदलने के लिए काम करने वालों के खिलाफ संदेह पैदा करने के मकसद से उत्पन्न करती है।
अभी देर नहीं हुई है, देर तब तक नहीं होती, जब तक हम खुद से नहीं हारते। और हारे हुए लोग दुनिया को तो क्या, अपनी जिंदगी को भी खूबसूरत नहीं बना सकते।
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