लेकिन शालिनी हम सबसे पहले इस दुनिया को अलविदा कह कर चली गयी। सोचा नहीं था कि यह सब इतनी जल्दी हो जाएगा। अंत तक लड़ी थी बहादुरी से, आखिरी मुलाकात में भी आईसीयू से निकालने की जिद और चेहरे पर मुस्कान थी। उसकी एक ना चली, मौत बड़ी बेरहम होती है, हम लोगों को भ्रम होता रहा कि उसकी सांसे चल रही हैं, लेकिन डॉक्टरों ने साबित कर दिया कि हमें भ्रम ही हो रहा है।
अब उसके साथ बिताए पल जेहन में घूम रहे हैं। बहुत कम मुलाकात के बावजूद, बहुत ज्यादा जगह बनायी थी उसने मेरी जिंदगी में। शायद यह कभी किसी से ना कह पाऊं। मुझे थकता देख कहती थी कि जाओ आराम कर लो, मेरी और देखभाल करना अभी तुम्हारी मजबूरी है। मैंने भी तो यही कहा था उससे कि फिलहाल आईसीयू में रहना तुम्हारी मजबूरी है; हालांकि यह भी कहा था कि मैं तुम्हारे पक्ष में हूं कि आईसीयू में नहीं रहना चाहिए, यहां तो अच्छा खासा इंसान भी बीमार हो जाए। मशीनों की आवाजें, दवाओं की गंध, मरीजों की कराहें, हल्की रोशनी, क्या यह किसी को बीमार करने के लिए काफी नहीं हैं? मेरे मजाक करने पर हंसी थी वह, और मुझ पर तीन दिन से तारी तनाव छू हो गया था, लगा था कि वह अब ठीक हो रही है... खतरा टल रहा है। पूरे शरीर पर सूजन और हिलने-डुलने में जिस असमर्थता के कारण उसे आपातस्थिति में भर्ती कराया था वह दूर होती दिख रही थी, लग रहा था कि अब जल्दी ही वह इस आपातस्थिति से उबर पाएगी।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ, मौत हरजाई होती है, किसी को भी धोखा दे सकती है। वहां पहुंच जाती है जहां उसके पहुंचने की उम्मीद नहीं होती। एकदम असभ्य होती है कमबख्त मौत। और तब महसूस होती है अपनी लाचारी, विज्ञान का अधूरापन। क्यों नहीं बचा पाते हैं हम कीमती जिंदगियां तक! क्यों!!!???
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