4.21.2009

भाकपा, माकपा, भाकपा-माले --- मार्क्‍सवादी नहीं, संशोधनवादी पार्टियां हैं - 2

पिछली पोस्‍ट में भारत के नकली कम्‍युनिस्‍टों के बारे में लिखा था, अपनी टिप्‍पणी को यथावत रखते हुए उसी क्रम में यह दूसरी पोस्‍ट:

मार्क्‍सवाद, मजदूर, जनता, क्रांति आदि का तोतारटंत करते हुए पश्चिम बंगाल, केरल की संशोधनवादी पार्टियां, पूंजीपतियों के स्‍वागत में गलीचे बिछाती हैं और औद्योगिक तथा खेत मजदूरों को निचोड़ने में उनकी मदद करती हैं और जिस संसद को एक समय ये सूअरबाड़ा कहती थीं, उसी संसद में लोट लगाती हैं; उन्‍हें अब वहां मंदिर में जलती अगरबत्ती की खुशबू आती है। लेकिन देश के सांप्रदायिक फासीवादी संगठन और उनके लग्‍गू-भग्‍गू तथा तमाम चुनावबाज पार्टियां भाकपा, माकपा, भाकपा-माले जैसी संशोधनवादी पार्टियों को ही कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के रूप में प्रचारित करते हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि मार्क्‍सवाद और संशोधनवाद में फर्क किया जाए और ज्‍यादा से ज्‍यादा लोगों के सामने संशोधनवादियों का दोगला चरित्र उजागर किया जाए। इसी को ध्‍यान में रखते हुए मैं समाजवाद नाम के ब्‍लॉग से भारत के कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन में संशोधनवाद के बारे में दी गई पोस्‍ट के कुछ अंश यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं। हालांकि, अतिवामपंथी भटकाव और उसके खतरों के बारे में भी बात की जानी चाहिए, लेकिन फिलहाल संशोधनवाद पर बात की जाए:

...सोवियत संघ में –ख्रुर्श्चेवी संशोधनवाद के हावी होने और 1956 की बीसवीं कांग्रेस के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संशोधनवाद को अन्तरराष्ट्रीय प्रमाण पत्र भी मिल गया। 1958 में अमृतसर की विशेष कांग्रेस में पार्टी संविधान की प्रस्तावना से, सर्वसम्मति से, क्रान्तिकारी हिंसा की अवधारणा को निकाल बाहर करने के बाद पार्टी का संशोधनवादी दीक्षा-संस्कार पूरा हो गया। लेकिन अब पार्टी के संशोधनवादी ही दो धड़ों में बँट गए। डांगे-अधिकारी- राजेश्वर राव आदि के नेतृत्व वाले धड़े का कहना था कि कांग्रेस के भीतर और बाहर के रूढ़िवादी बुर्जुआ वर्ग का विरोध करते हुए नेहरू के नेतृत्व में प्रगतिशील राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा कर रहे हैं अत: कम्युनिस्ट पार्टी को उनका समर्थन करना चाहिए, और इस काम के पूरा होने के बाद उसका दायित्व होगा संसद के रास्ते सत्ता में आकर समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देना। ये लोग राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की बात कर रहे थे, जबकि लोक जनवादी क्रान्ति की बात करने वाला सुन्दरैया-गोपालन-नम्बूदिरिपाद आदि के नेतृत्व वाला दूसरा धड़ा कह रहा था कि सत्तारूढ़ कांग्रेस साम्राज्यवाद से समझौते कर रही है और भूमि सुधार के वायदे से मुकर रही है, अत: जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा करने के लिए हमें बुर्जुआ वर्ग के रैडिकल हिस्सों को साथ लेकर संघर्ष करना होगा। दोनों ही धड़े जनवादी क्रान्ति की बात करते हुए, सत्तासीन बुर्जुआ वर्ग के चरित्र का अलग-अलग आकलन करते हुए अलग-अलग कार्यकारी नतीजे निकाल रहे थे लेकिन दोनों के वर्ग-चरित्र में कोई फ़र्क नहीं था। दोनों ही धड़े संसदीय मार्ग को मुख्य मार्ग के रूप में चुन चुके थे। दोनों बोल्शेविक सांगठनिक उसूलों व ढाँचे का परित्याग कर चुके थे और काउत्स्की, मार्तोव और खुर्श्चेव की राह अपना चुके थे। फ़र्क सिर्फ यह था कि एक धड़ा सीधे उछलकर बुर्जुआ वर्ग की गोद में बैठ जाना चाहता था, जबकि दूसरा विपक्षी संसदीय पार्टी की भूमिका निभाना चाहता था ताकि रैडिकल विरोध का तेवर दिखलाकर जनता को ज्यादा दिनों तक ठगा जा सके। एक धड़ा अर्थवाद का पैरोकार था तो दूसरा उसके बरक्स ज्यादा जुझारू अर्थवाद की बानगी पेश कर रहा था। देश की परिस्थितियों के विश्लेषण और कार्यक्रम से सम्बिन्धत मतभेदों-विवादों का तो वैसे भी कोई मतलब नहीं था, क्योंकि यदि क्रान्ति करनी ही नहीं थी तो कार्यक्रम को तो `कोल्ड स्टोरेज´ में ही रखे रहना था। 1964 में दोनों धड़े औपचारिक रूप से अलग हो गये। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) से अलग होने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्व ने भाकपा को संशोधनवादी बताया और कतारों की नज़रों में खुद को क्रान्तिकारी सिद्ध करने के लिए खूब गरमागरम बातें कीं।

लेकिन असलियत यह थी कि माकपा भी एक संशोधनवादी पार्टी ही थी और ज्यादा धूर्त और कुटिल संशोधनवादी पार्टी थी। इस नयी संशोधनवादी पार्टी की असलियत को उजागर करने के लिए केवल कुछ तथ्य ही काफी होंगे। 1964 में गठित इस नयी पार्टी ने अमृतसर कांग्रेस द्वारा पार्टी संविधान में किये गये परिवर्तन को दुरुस्त करने की कोई कोशिश नहीं की। शान्तिपूर्ण संक्रमण की जगह क्रान्ति के मार्ग की खुली घोषणा और संसदीय चुनावों में भागीदारी को मात्र रणकौशल बताने की जगह इसने सन्सदीय और संसदेतर मार्ग जैसी गोल-मोल भाषा का अपने कार्यक्रम में इस्तेमाल किया जिसकी आवश्यकतानुसार मनमानी व्याख्या की जा सकती थी। आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों के अन्तर्सम्बन्धों के बारे में इसकी सोच मूलत: लेनिनवादी न होकर संघाधिपत्यवादियों एवं अर्थवादियों जैसी ही थी। फ़र्क यह था कि इसके अर्थवाद का तेवर भाकपा के अर्थवाद के मुकाबले अधिक जुझारू था। इसके असली चरित्र का सबसे स्पष्ट संकेतक यह था कि भाकपा की ही तरह यह भी पूरी तरह से खुली पार्टी थी और सदस्यता के मानक भाकपा से कुछ अधिक सख्त लगने के बावजूद (अब तो वह भी नहीं है) यह भी चवन्निया मेम्बरी वाली `मास पार्टी´ ही थी।

ख्रुर्श्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का संघर्ष 1957 से ही जारी था, जो 1963 में `महान बहस´ नाम से प्रसिद्ध खुली बहस के रूप में फूट पड़ा और अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन औपचारिक रूप से विभाजित हो गया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) के नेतृत्व ने पहले तो इस बहस की कतारों को जानकारी ही नहीं दी। इस मायने में भाकपा नेतृत्व की पोज़ीशन साफ थी। वह डंके की चोट पर ख्रुर्श्चेवी संशोधनवाद के साथ खड़ा था। महान बहस की जानकारी और दस्तावेज़ जब कतारों तक पहुँचने लगे तो माकपा-नेतृत्व पोज़ीशन लेने को बाध्य हुआ। पोज़ीशन भी उसने अजीबोगरीब ली। उसका कहना था कि सोवियत पार्टी का चरित्र संशोधनवादी है लेकिन राज्य और समाज का चरित्र समाजवादी है। साथ ही उसका यह भी कहना था कि ख्रुर्श्चेवी संशोधनवाद का विरोध करने वाली चीनी पार्टी “वाम” संकीर्णतावाद व दुस्साहसवाद की शिकार है।

अब यदि मान लें कि साठ के दशक में सोवियत समाज अभी समाजवादी बना हुआ था, तो भी, यदि सत्ता संशोधनवादी पार्टी (यानी सारत: पूँजीवादी पार्टी) के हाथ में थी तो राज्य और समाज का समाजवादी चरित्र कुछेक वर्षों से अधिक बना ही नहीं रह सकता था। लेकिन माकपा अगले बीस-पच्चीस वर्षों तक (यानी सोवियत संघ के विघटन के समय तक) न केवल सोवियत संघ को समाजवादी देश मानती रही, बल्कि दूसरी ओर, धीरे-धीरे सोवियत पार्टी को संशोधनवादी कहना भी बन्द कर दिया। इसके विपरीत, माओ और चीन की पार्टी के प्रति उसका रुख प्राय: चुप्पी का रहा।

सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की उसने या तो दबी जुबान से आलोचना की, या फ़िर उसके प्रति चुप्पी का रुख अपनाया। चीन में माओ की मृत्यु के बाद तो मानो इस पार्टी की बाँछें खिल उठीं। वहाँ पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बाद देंग सियाओ-पिंग और उसके चेले-चाटियों ने समाजवादी संक्रमण विषयक माओ की नीतियों को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी और ‘चार आधुनिकीकरणों’ तथा उत्पादक शक्तियों के विकास के सिद्धांत के नाम पर वर्ग सहयोग की नीतियों पर अमल की शुरुआत की। दुनिया के सर्वहारा वर्ग को ठगने के लिए उन्होंने पूँजीवादी पुनस्थापना की अपनी नीतियों को “बाज़ार समाजवाद” का नाम दिया।

लेकिन इस नकली समाजवाद का चरित्र आज पूरी तरह बेनकाब हो चुका है। चीन में समाजवाद की सारी उपलब्धियाँ समाप्त हो चुकी है। कम्यूनों का विघटन हो चुका है। खेती और उद्योग में समाजवाद के राजकीय पूँजीवाद में रूपान्तरण के बाद अब निजीकरण और उदारीकरण की मुहिम बेलगाम जारी है। अब यह केवल समय की बात है कि समाजवाद का चोंगा और नकली लाल झण्डा वहाँ कब धूल में फेंक दिया जायेगा।

माकपा और भाकपा अपने असली चरित्र को ढँकने के लिए आज चीन के इसी “बाज़ार समाजवाद” के गुण गाती हैं। उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के विरोध का जुबानी जमाख़र्च करते हुए ये पार्टियाँ वास्तव में इन्हीं की पैरोकार बनी हुई हैं। बंगाल, केरल और त्रिपुरा में सत्तासीन रहते हुए वे इन्हीं नीतियों को लागू करती हैं, लेकिन केन्द्र में वे इन नीतियों के विरोध की नौटंकी करती हैं और भूमण्डलीकरण की बर्बरता को ढँकने के लिए उसे मानवीय चेहरा देने की, उसकी अन्धाधुन्ध रफ्ऱतार को कम करने की और नेहरूकालीन पब्लिक सेक्टर के ढाँचे को बनाये रखने की वकालत करती हैं। बस यही इनका “समाजवाद” है!
ये पार्टियाँ कम्युनिज्म के नाम पर मज़दूर वर्ग की आँखों में धूल झोंककर उन्हें वर्ग-संघर्ष के रास्ते से विमुख करती हैं, उन्हें मात्र कुछ रियायतों की माँग करने और आर्थिक संघर्षों तक सीमित रखती हैं, संसदीय राजनीति के प्रति उनके विभ्रमों को बनाये रखते हुए उनकी चेतना के क्रान्तिकारीकरण को रोकने का काम करती हैं, तथा उनके आक्रोश के दबाव को कम करने वाले `सेफ्टीवॉल्व´ का तथा पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति का काम करती हैं।

आज साम्प्रदायिक फासीवाद का विरोध करने का बहाना बनाकर ये संशोधनवादी रंगे सियार कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबन्धन सरकार के खम्भे बने हुए हैं। ये संसदीय बातबहादुर भला और कर भी क्या सकते हैं? फासीवाद का मुकाबला करने के लिए मेहनतकश जनता की जुझारू लामबन्दी ही एकमात्र रास्ता हो सकती है, लेकिन वह तो इनके बूते की बात है ही नहीं। ये तो बस संसद में गत्ते की तलवारें भाँज सकते हैं, कभी कांग्रेस की पूँछ में कंघी कर सकते हैं तो कभी तीसरे मोर्चे का घिसा रिकार्ड बजा सकते हैं।

शेर की खाल ओढ़े इन छद्म वामपन्थी गीदड़ों की जमात में भाकपा और माकपा अकेले नहीं हैं। और भी कई नकली वामपन्थी छुटभैये हैं और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों के बीच से निकलकर भाकपा (मा-ले) लिबरेशन को भी इस जमात में शामिल हुए पच्चीस वर्षों से भी कुछ अधिक समय बीत चुका है।
1967 में नक्सलबाड़ी किसान उभार ने माकपा के भीतर मौजूद क्रान्तिकारी कतारों में ज़बरदस्त आशा का संचार किया था। संशोधनवाद से निर्णायक विच्छेद के बाद एक शानदार नयी शुरुआत हुई ही थी कि उसे “वामपन्थी” दुस्साहसवाद के राहु ने ग्रस लिया। भाकपा (मा-ले) इसी भटकाव के रास्ते पर आगे बढ़ी और खण्ड- खण्ड विभाजन की त्रासदी का शिकार हुई।

कुछ क्रान्तिकारी संगठनों ने क्रान्तिकारी जनदिशा की पोज़ीशन पर खड़े होकर “वामपन्थी”दुस्साहसवाद का विरोध किया था, वे भी भारतीय समाज की प्रकृति और क्रान्ति की मंज़िल के बारे में अपनी ग़लत समझ के कारण जनता के विभिन्न वर्गों की सही क्रान्तिकारी लामबन्दी कर पाने और वर्ग-संघर्ष को आगे बढ़ा पाने में विफल रहे। नतीजतन ठहराव का शिकार होकर कालान्तर में वे भी बिखराव और संशोधनवादी विचलन का शिकार हो गये।

...भाकपा (मा-ले (लिबरेशन)) पच्चीस वर्षों पहले तक “वामपन्थी” दुस्साहसवादी लाइन का शिकार था। पर उसके पिट जाने के बाद धीरे-धीरे रेंगते-घिसटते आज दक्षिणपन्थी भटकाव के दूसरे छोर तक जा पहुंचा है और आज खाँटी संसदवाद की बानगी पेश कर रहा है।...बेशक हमें अतिवामपन्थी भटकाव के विरुद्ध भी सतत संघर्ष करना होगा, लेकिन आज भी हमारी मुख्य लड़ाई संशोधनवाद से ही है। • •देखें : संशोधनवाद के बारे में (PDF File)

2 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

आलेख पूरा फुरसत में पढ़ूंगा, पर जो निष्कर्ष शीर्षक में है उस से पूरी तरह सहमत हूँ।

admin said...

नया संबोधन सुन कर अच्छा लगा। गहरा विवेचन किया है आपने।

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TSALIIM.
-SBAI-