11.27.2008

चाहत

बहुत दिनों से कुछ पढ़ने का मौका नहीं मिल रहा था। यही नहीं कई महीनों से लेव तोल्‍सतोय के शानदार उपन्‍यास पुनरुत्‍थान तक को पूरा नहीं पढ़ सका हूं, 6 महीने बाद भी एक चौथाई हिस्‍सा बाकी ही है...पुनरुत्थान को पूरा करने का मौका भी जल्‍द मिल जाएगा, लेकिन आज कात्‍यायनी की कविताएं पढ़ने का मन कर गया।
उनकी कई कविताएं मुझे पसंद हैं, लेकिन आज उनकी वह कविता आपके साथ साझा करने का मन किया, जो मुझे काफी पसंद है। उनकी इस कविता का शीर्षक है 'चाहत'....

चाहत

ख़ामोश उदास घंटियों की
बज उठने की सहसा उपजी ललक,
घास की पत्तियों का
मद्धम संगीत
रेगिस्तान में गूँजती
हमें खोज लेने वाले की विस्मित पुकार,
दहकते जंगल में
सुरक्षित बच रहा
कोई नम हरापन ।
यूँ आगमन होता है
आकस्मिक
प्यार का
शुष्कता के किसी यातना शिविर में भी
और हम चौंकते नहीं
क्योंकि हमने उम्मीदें बचा रखी थीं
और अपने वक़्त की तमाम
सरगर्मियों और जोख़िम के
एकदम बीचोंबीच खड़े थे ।

10.21.2008

रानीगंज में माकपा का सांस्कृतिक आतंकवाद

नन्‍दीग्राम से जारी माकपा की गुण्‍डागर्दी का एक नमूना पिछले दिनों देखने को मिला। रानीगंज (प. बंगाल) के सांस्कृतिक-सामाजिक मंच 'मानविक' द्वारा आयोजित 'गणमित्र सम्मान समारोह' (19-20 अक्टूबर, 2008) को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं ने गुण्डागर्दी और धमकियों द्वारा आतंक फैलाकर स्थगित करने पर विवश कर दिया। माकपा का यह सांस्कृतिक आतंकवाद .एस.एस.-विहिप-भाजपा आदि के ''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'' की ही तरह यह माकपा के ''सांस्कृतिक जनवाद'' का एक नमूना है।

रानीगंज (प. बंगाल) की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था 'मानविक' इस वर्ष पाँचवाँ गणमित्र सम्मान कवयित्री और सामाजिक-सांस्कृतिक कर्मी कात्यायनी को देने वाली थी। यह सम्मान सुविख्यात बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी के हाथों दिया जाना था। इस अवसर पर आयोजित दो दिवसीय सांस्कृतिक आयोजन (19-20 अक्टूबर) के दौरान दो परिसंवाद, कविता-मंचन और फिल्म प्रदर्शन के कार्यक्रम और कवयित्री सम्मेलन भी होने थे। इस आयोजन में स्थानीय और निकटवर्ती रचनाकारों-संस्कृतिकर्मियों के अतिरिक्त दिल्ली, कोलकाता, पटना, रांची, भोपाल आदि शहरों के कई लेखक-कवि-संस्कृतिकर्मी भी हिस्सा लेने वाले थे।

इस आयोजन के क़रीब हफ्ता भर पहले से माकपा के कार्यकर्ताओं ने रानीगंज में धमकी और गुण्डागर्दी का सिलसिला शुरू कर दिया। न केवल आयोजकों और उनके परिवारों को तबाह कर देने की धमकी दी गयी, बल्कि इस बात का व्यापक प्रचार किया गया कि आयोजन में भाग लेने वालों को गम्भीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। 'मानविक' के अध्यक्ष के पिता को, जो हृदय रोग से गम्भीर रूप से ग्रस्त हैं, धमकाया गया कि उनका परिवार और व्यवसाय तबाह कर दिया जायेगा। सचिव और अन्य सहयोगियों को धमकी दी गयी कि वे रानीगंज में रह नहीं पायेंगे। विभिन्न शहरों में आमन्त्रितों को फोन करके और माकपा के सांस्कृतिक संगठनों के सूत्रों से दबाव डलवाकर उक्त आयोजन में हिस्सा लेने से रोका गया। माकपा के स्थानीय लोगों का कहना था कि यह आयोजन दो शर्तों पर हो सकता है। पहली शर्त, इसमें महाश्वेता देवी न आयें क्योंकि वे वाममोर्चा सरकार की नीतियों की मुखर आलोचक रही हैं और नन्दीग्राम में माकपा-विरोधी मुहिम का उन्होंने भी समर्थन किया था। दूसरी शर्त, यह थी कि कात्यायनी को माकपा के विरुध्द एक शब्द भी नहीं बोलना होगा और सम्मान ग्रहण करने के अतिरिक्त किसी प्रकार के राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रचारकार्य में हिस्सा नहीं लेना होगा। ज़ाहिर है कि आयोजकों ने इन अपमानजनक शर्तों को स्वीकार नहीं किया और स्थानीय तौर पर क़ायम व्यापक आतंक राज के चलते विगत 16 अक्टूबर को उन्हें यह आयोजन स्थगित करने की घोषणा करनी पड़ी।

कोलकाता और प. बंगाल के अन्य नगरों के अख़बारों में और टी.वी. चैनलों पर इस ख़बर के आने के बाद जब महाश्वेता देवी ने भी क्षोभ प्रकट करते हुए बयान दिया और संस्कृतिकर्मियों ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रकट किया, तो पश्चिम बंगाल के एक माकपा-सम्बध्द सांस्कृतिक संगठन और एक लेखक संगठन के प्रतिनिधि ने बयान दिया कि महाश्वेता देवी का माकपा-विरोध जगज़ाहिर है और कात्यायनी नक्सल राजनीति से जुड़ी हैं।

यदि विचारों में धुर-विरोध है, तो माकपाइयों को वैचारिक विरोध और बहस के जनवादी तरीक़ों का ही इस्तेमाल करना चाहिए, न कि गुण्डागर्दी और आतंक-राज का सहारा लेना चाहिए। जो लोग वैचारिक विरोध का यह तरीक़ा अपनाते हैं वे लोग हुसैन की कला-प्रदर्शनी पर बजरंगदली फसिस्टों के हमले और तोड़फोड़ की राजनीति का विरोध भला किस मुँह से करते हैं?

रही बात नक्सलवादी होने के आरोप की, तो माकपा और भाकपा जैसी पार्टियां सत्ताभोगी, संसदमार्गी, अर्थवादी राजनीति करती हैं और संशोधनवादी हैं। चीन मार्का ''बाज़ार समाजवाद'' बर्बर और निरंकुश सर्वसत्तावादी पूँजीवाद है। लेकिन साथ ही, आतंकवाद या ''वामपन्थी'' दुस्साहसवाद की राजनीति भी पूरी तरह गलत है। नक्सलवाद अपने आप में कोई राजनीतिक कैटेगरी नहीं है। प्राय: इस श्रेणी में आतंकवादी वामपन्थी धारा और क्रान्तिकारी जनसंघर्ष की धारा - दोनों को शामिल कर लिया जाता है। और कात्‍यायनी क्रान्तिकारी जनसंघर्षों की पक्षधर हैं और माकपा की ''बाज़ार-समाजवादी'' आर्थिक नीतियों का और उस कुलीन मध्यवर्गीय सुधारवादी धर्मनिरपेक्षता का विरोध करती हैं

रानीगंज प्रसंग वस्तुत: नन्दीग्राम प्रसंग की सांस्कृतिक दायरे में पुनरावृत्ति मात्र है। मुद्दा चाहे आर्थिक हो या सांस्कृतिक, माकपा का रवैया सभी मामलों में निरंकुश सर्वसत्तावादी ही होता है। माकपा-भाकपा जैसी पार्टियाँ पूरी दुनिया की अन्य सामाजिक-जनवादी पार्टियों और एन.जी.. की तरह, नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के विकल्प के लिए संघर्ष करने के बजाय उन्हें मात्र ''मानवीय चेहरा'' देने लायक पैबन्दसाज़ी करना चाहती हैं। इनका मॉडल चीन का ''बाज़ार समाजवाद'' है जो बर्बर फ़ासिस्ट तरीक़े से वहाँ लागू हो रहा है। नन्दीग्राम ने सिद्ध कर दिया है मौक़ा मिलने पर माकपा भी उसी तरीक़े से नवउदारवादी नीतियों को लागू करेगी। माकपा के गुण्डा राज की वास्तविक झलक पानी हो तो कोलकाता से बाहर . बंगाल के अन्य छोटे-छोटे शहरों-कस्बों में जाना पड़ेगा। वैसे कोलकाता में भी इसकी बानगी देखने को मिल जाती है। माकपा का ''समाजवाद'' दिल्ली में कुलीन लिजलिजे सुधारवाद के रूप में सामने आता है और . बंगाल में सामाजिक फ़ासीवाद (चेहरा समाजवादी, आचरण फ़ासीवादी) के रूप में सामने आता है।

8.20.2008

प्रिय अरविंद तुम जिन्‍दा हो, हम सबके संकल्‍पों में



(1965-24 जुलाई, 2008)


यह युद्ध है ही ऐसा
कि इसमें खेत रहे लोगों को
श्रद्धां‍जलि नहीं दी जाती,
बस कभी झटके से
वे याद आ जाते हैं
बरबस
अपनी कुछ अच्छाइयों की बदौलत।

7.31.2008

अरविंद की शोक सभा में उनके अधूरे कामों को पूरा करने का संकल्प लिया

'अरविंद स्मृति न्यास' और 'अरविंद मार्क्‍सवादी अध्ययन संस्थान'
की स्थापना की घोषणा

नई दिल्ली, 31 जुलाई। 'दायित्वबोध' पत्रिका के संपादक और नौजवान भारत सभा के संयोजक का. अरविंद की शोकसभा में सभा में मौजूद सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, छात्रों, बुध्दिजीवियों तथा मजदूर कार्यकर्ताओं ने अरविंद के अधूरे कामों को आगे बढ़ाने और उनके निधन के शोक को शक्ति के इस्पात में ढालने का संकल्प लिया। इस अवसर पर 'अरविंद स्मृति न्यास' और 'अरविंद मार्क्‍सवादी अध्ययन संस्थान' की स्थापना की घोषणा की।

कल शाम यहां अंबेडकर भवन में हुई सभा की शुरुआत अरविंद की जीवनसाथी और राजनीतिक कार्यकर्ता मीनाक्षी द्वारा उनकी तस्वीर पर माल्यार्पण के साथ हुई। सभा का संचालन कर रहे सत्यम ने उपस्थित जनसमूह को 24 जुलाई को गोरखपुर में अरविंद की आकस्मिक मृत्यु की परिस्थितियों से अवगत कराया। उन्होंने कहा कि आज जैसे कठिन दौर में सामाजिक बदलाव की लड़ाई के लिए काम करते हुए चुपचाप अपनी जिंदगी को इस तरह होम कर देना किसी शहादत से कम नहीं है।

वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने अरविंद के व्यक्तित्व और उनके कामों को याद करते हुए कहा कि अरविंद एक जिंदादिल इंसान थे और मज़दूरों तथा युवाओं को संगठित करने के साथ-साथ दिल्ली के तमाम सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी उनकी शिरकत बनी रहती थी। अरविंद के साथ तमाम मुददों पर उनकी बहसें चलती रहती थी। नए कार्यक्षेत्र की जिम्मेदारी संभालने के लिए दिल्ली से जाते समय वे एक अधूरी बहस को पूरा करने का वायदा करके गए थे लेकिन फिर उनसे मुलाकात नहीं हो सकी।

नेपाली जनधिकार मंच के लक्ष्मण पंत ने कहा कि कॉ. अरविंद दायित्वबोध के संपादन के साथ ही बिगुल अखबार के प्रकाशन-मुद्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे और इन दोनों पत्र-पत्रिकाओं में नेपाल के जनांदोलन के बारे में उनके लेखों ने, नेपाल के क्रान्तिकारियों को मार्क्‍सवाद की समझ विकसित करने में और सैद्धांतिक-व्यावहारिक प्रश्नों को हल करने में काफी मदद की। नेपाल की कम्युनस्टि पार्टी माओवादी इसके लिए उनकी आभारी रहेगी। आने वाले समय में कॉ. अरविंद के अधूरे कामों को पूरा करते हुए, उतनी ही दृढ़ता और जीवंतता के साथ सामाजिक बदलाव की लड़ाई जारी रखनी होगी।

इस अवसर पर कवयित्री और राहुल फाउण्डेशन की अध्यक्ष कात्यायनी ने अपने साथी अरविंद को याद करते हुए ने कहा कि अरविंद स्मृति न्यास और अरविंद मार्क्‍सवादी अध्ययन संस्थान के जरिए सामाजिक परिवर्तन के उन वैचारिक-सांस्कृतिक कार्यों को आगे बढ़ाया जाएगा जिनके लिए अरविंद निरंतर प्रयासरत थे। उन्होंने कहा कि अरविंद हमारे बीच नहीं रहे इसका अहसास कर पाना मुश्किल हो रहा है, लेकिन हमें इस शोक से उबर कर अरविंद के अधूरे कामों, योजनाओं को पूरा करना ही होगा और यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

नेपाली जनाधिकार मंच के लक्ष्मण पंत ने कहा कि कॉ. अरविंद के संपादन में 'दायित्वबोध' पत्रिका और 'बिगुल' अखबार में प्रकाशित होने वाली गंभीर वैचारिक सामग्री ने नेपाल के क्रांतिकारी आंदोलन के सैद्धांतिक-व्यावहारिक प्रश्नों को हल करने में काफी मदद की। नेपाल के क्रांतिकारी उन्हें हमेशा एक सच्चे अंतरराष्ट्रीयतावादी के रूप में याद रखेंगे।

वरिष्ठ स्तंभकार सुभाष गाताड़े ने वाराणसी में अपने छात्र जीवन के दौर से अरविंद के साथ काम करने के अनुभवों को याद करते हुए कहा कि वे अपने लक्ष्य और उसूलों के प्रति दिलोजान से समर्पित थे।

वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने कहा कि कॉ. अरविंद में एक बड़े नेतृत्व की संभावना दिखती थी। इसके बावजूद उनकी सरलता ने मुझे प्रभावित किया। हर बार उनसे मिलने पर एक नया भरोसा पैदा होता था। नए समाज के निर्माण के संघर्ष में उनकी समझ एवं दृढ़ता हमारे साथ रहेगी।

साहित्यकार रामकुमार कृषक ने कहा कि जिस दौर में दुनियाभर में समाजवाद के अंत और समाजवादी राज्य के विघटन का हल्ला हो रहा था उस दौर में भी अरविंद अपने विचारों और कर्मों पर दृढ़ थे। वे संस्कृति और साहित्य को सामाजिक बदलाव का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र मानते थे। उन्होंने कहा कि अरविंद की सहजता और सरलता से उनकी बौद्धिक क्षमता का पता नहीं चलता था।

दिशा छात्र संगठन के अभिनव ने कहा कि अरविंद ने व्यापक मेहनतकश आबादी की जीवन परिस्थितियों की बेहतरी के अलावा जीवन में कभी किसी अन्य चीज की परवाह नहीं की। तृणमूल स्तर के सांगठनिक और आंदोलनात्मक कामों के साथ-साथ वे पत्र-पत्रिकाओं में लेखन-संपादन की जिम्मेदारी संभालने तथा देश के विभिन्न हिस्सों में संगोष्ठियों में भागीदारी तथा विचार-विमर्श का काम भी अत्यंत कुशलतापूर्वक कर लेते थे।

कपिल स्वामी ने कहा कि अरविंद जहां भी जाते थे युवा कार्यकर्ताओं की टीम खड़ी कर लेते थे तथा बड़ी लगन और सरोकार के साथ उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित करते थे। अंतिम समय तक उन्हें अपने साथियों की चिंता थी।

एआईपीआरएफ के अंजनी ने अरविंद को जनता के एक सच्चे हितैषी तथा पूरी निष्ठा के साथ सामाजिक परिवर्तन की मुहिम के प्रति समर्पित थे।

मज़दूर कार्यकर्ता राजेन्द्र पासवान ने कहा कि अरविंद से ऐसे दौर में संपर्क हुआ, जब मैं आंदोलन के भविष्य को लेकर निराशा से गुज़र रहा था, लेकिन उन्होंने मुझमें नया उत्साह भर दिया। जब कभी हमारे पैर डगमगाएंगे तो हम अरविंद को याद करेंगे।

सभा में एआईएफटीयू के पी.के. शाही, हमारी सोच पत्रिका के संपादक सुभाष शर्मा आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए। कवि आलोक धन्वा, नीलाभ, असद ज़ैदी, निशांत नाटय मंच के शम्सुल इस्लाम, यूएनआई इंप्लाइज फेडरेशन के महासचिव सी.पी. झा, समाजवादी जन परिषद के अफलातून, वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र कुमार, अनुराग ट्रस्ट की अध्यक्ष कमला पाण्डेय तथा काठमांडू स्थित पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता मैरी डीशेन ने इस अवसर पर भेजे अपने संदेशों में अरविंद को याद किया।

विहान सांस्कृतिक मंच ने ''कारवां बढ़ता रहेगा...'' गीत के साथ अरविंद को श्रद्धांजलि दी।

इस अवसर पर दिशा छात्र संगठन, नौजवान भारत सभा, दिल्ली जनवादी अधिकार मंच, पीयूडीआर, प्रगतिशील महिला संगठन, एआईपीआरएफ, मेहनतकश मजदूर मोर्चा, सिलाई मजदूर समिति सहित विभिन्न जनसंगठनों के कार्यकर्ता, शिक्षक, लेखक, पत्रकार आदि उपस्थित थे।