6.28.2016

वीरेन डंगवाल को फिर से पढ़ते हएु

वीरेन डंगवाल की कविताएं बहुत दिनों बाद दोबारा पढ़ रहा हूं, सोचा एक-आध कविता आपके साथ भी साझा की जाए।

इतने भले नहीं बन जाना 


इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?


इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना


इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरक़ते तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना


ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो
उस पर भी तो तनिक विचारो


काफ़ी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी

6.23.2016

नकाब

-- संदीप संवाद --

Emil Nolde--Masks, 1911 
तुम्‍हें जितने नकाब ओढ़ने हैं, ओढ़ लो;

लेकिन ये उम्‍मीद ना पालो

कि मैं तुम्‍हारी तरह नकाब पहनूंगा

मैं जैसा हूं, वैसे ही अच्‍छा हूं।

और वैसे भी बहुत दिन तक

तुम इन नकाबों के पीछे

      अपनी कुटिलताओं को छिपा नहीं पाओगे

            जल्‍दी ही नोच लिए जाएंगे,

                सारे नकाब तुम्‍हारे चेहरे से ।

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क्‍यों घबराते हो साथी? कोई व्‍यवस्‍था बलशाली है, तो तुम भी युवा हो; अनुभव का क्‍या है, वह तो हासिल हाे ही जाएगा!




संदीप संवाद



कुछ दिन पहले एम.एल. के एक संगठन के ऑर्गेनाइजर से बात हुई। वह मोहभंग की स्थिति में था। उससे बात करने के बाद जो चीजें सामने आई, उसने एक बार कुछ चीजों पर सोचने पर मजबूर कर दिया। और फिर लगा कि सामान्‍यीकृत ढंग से तो फेसबुक जैसे मंच पर भी इन चीजों को साझा किया जा सकता है। इसे किसी एक संगठन की स्थिति ना समझा जाए, बल्कि मौजूदा दौर में पूरे माले आंदोलन में आपको ये लक्षण मिल जाएंगे। वैसे, पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी और फासीवाद के हो-हल्‍ले के बीच; आपको क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण की समस्‍याओं पर विचार करना हो, तो बोल्‍शेविक पार्टी का इतिहास, व नादेज़्दा क्रूपस्‍काया द्वारा लिखी लेनिन की जीवनी पढ़ लीजिए। शायद कुछ मदद मिले। क्‍योंकि इस दौर में ये दो किताबें आपको गहन अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकती हैं। 

हालांकि, मुझे विद्वान होने का कोई भ्रम नहीं है, ना ही मैं किसी विषय का विशेषज्ञ हूं, लेकिन कुछ अनुभव और सीमित अध्‍ययन के बल पर ही सही, मुझे अपने विचार साझा करने का पूरा हक है। इस से किसी विद्वान को आपत्ति हो, तो हुआ करे। वैसे, हो सकता है कि क्रांति को अपनी बपौती समझने वालों को इन सब बातों से परेशानी हो, और कुत्‍सा-प्रचार का एक दौर फिर शुरू हो जाए, लेकिन जो भी हो, मैं तो एक बार फिर यही कहूंगा कि समाज में ही नहीं, बल्कि संगठनों के भीतर चल रही तानाशाही, यथास्थितिवाद से भी निराश होने की जगह इनसे जुझने की तैयारी की जाए। क्‍योंकि बाहरी लड़ाई के बराबर ही अंदरूनी लड़ाई भी जरूरी होती है। और ऐसा ना होता तो दो लाइनों के संघर्ष की बात ही कभी ना उठी होती। 

और एक बात, अगर किसी भी नौजवान में अकेले पड़ जाने, गालियां खाने, दुष्‍प्रचार और अपने खिलाफ जोड़-तोड़ सहने का साहस नहीं तो उसे क्रांति के रास्‍ते पर नहीं आना चाहिए, ये इतना आसान रास्‍ता नहीं है दोस्‍त! इतना आसान होता तो दुनिया बहुत पहले ही खूबसूरत बन चुकी होती और तुम निराशा, अवसाद, पतन के गर्त में गिरने के बजाय उस दुनिया की खूबसूरती के गीत लिख रहे होते। खूबसूरत दुनिया की खूबसूरती के गीत...लेकिन अभी तो सन्‍नाटे को चीरने वाले गीतों की जरूरत है। अभी, शब्‍दों को हथियार बनाने की जरूरत है और अभी अपने शब्‍दों को, गीतों को, आवाज को - ऐसे तूफान में तब्‍दील करने की जरूरत है, जिससे दुश्‍मन बौखला उठा, उसका सारा घाघपन, अनुभव, ताकत थरथरा उठे और उसकी जड़ता का खोखलापन भरभरा कर गिर जाए। यही समय है कि हर उस चीज के खिलाफ बगावत कर दी जाए, जो आपके सपनों को कुचलती है, और आपके भीतर के बचे हुए इंसान का रोज़-ब-रोज़ क़त्‍ल करती है।

खैर, अब मुद्दे पर आते हैं, बात यह हो रही थी कि कोई भी क्रांतिकारी संगठन इसी समाज से आए अगुवा तत्‍वों से बनता है। लेकिन वे तत्‍व इस समाज की बुर्जुआ मूल्‍य मान्‍यताएं भी अपने साथ लाते हैं और रोज-रोज समाज के साथ अंतर्क्रिया के दौरान समाज को प्रभावित करने पर भी, खुद बुर्जुआ विचारों से प्रभावित भी होते हैं। राजनीतिक कैरियरवाद, अवसरवाद, समूहवाद, पिछलग्‍गूपना, नौकरशाही, जोड़-तोड़, परिवारवाद ये सब तो इसके लक्षणमात्र है। दरअसल, पहले व्‍यवहार में नजर आने वाली ये समस्‍याएं शुरुआत में केवल राजनीतिक-सांगठनिक समस्‍याएं दिखती हैं, लेकिन धीरे-धीरे ये विचारधारात्‍मक धरातल पर भी दिखाई देने लगती है।

क्रांतिकारी चौकसी ही उन्‍हें पतन से बचा से सकती है! और यह चौकसी समांतर धरातल पर तो काम करती ही है बल्कि नीचे से ऊपर की ओर संगठित करने पर यह नेतृत्‍व को भी पतित होने से बचाती है, जोकि सबसे पहले पतित होता है। यदि नीचे से ऊपर की ओर चौकसी की व्‍यवस्‍था ना हो तो कालांतर में वह संगठन पतन की ओर अग्रसर होता है और कतारें निराशा, अवसाद, भोगवाद और फिर पतन की शिकार होती हैं। अगर संगठन अवसरवादी ढंग से काम करता है तो कतारों के भी बड़े हिस्‍से को इसका अंदाजा नहीं होता, क्‍योंकि नेतृत्‍व आखिर नेतृत्‍व होता है और हर काम में, अनुभव में भी कतारों से काफी आगे होता है। वह विरोध करने वाले तत्‍वों के खिलाफ माहौल बनाता है, नैतिक आचरण पर कीचड़ उछालता है और उन्‍हें एक दूसरे के खिलाफ भड़काता है, और जोड़तोड़ करता है। ऐसे में नीचे से ऊपर की ओर क्रांतिकारी चौकसी और भी जरूरी हो जाती है, और कतारों की राजनीतिक समझदारी, पहलकदमी इसकी पूर्वशर्त होती है। 

इसलिए, ध्‍यान रखिए, यदि कोई संगठन कतारों की पहलकदमी पर अंकुश लगा रहा है और दो लाइनें के संघर्ष या जनवादी केंद्रीयता के नाम पर नौकरशाहाना व्‍यवहार कर रहा है, केवल केंद्रीयता पर जोर दे रहा है तो कालांतर में उसका पतन निश्चित है। 

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि कुछ लक्षण दिखने मात्र से ही किसी संगठन को पतित घोषित कर दिया जाए। आदर्शीकरण किसी भी चीज का बु‍रा होता है, चाहे क्रांति का हो, चाहे नेतृत्‍व का। यदि आप अपने प्रति नरमी की उम्‍मीद करते हैं, तो नेतृत्‍व के प्रति भी तब तक वैसा व्‍यवहार कीजिए, उनकी मानवीय कमजोरियों को समझिये जब‍तक की आपको यकीन ना हो जाए कि अब नेतृत्‍व का कुछ नहीं हो सकता। हालांकि, किसी संगठन, पार्टी के नेतृत्‍व में आस्‍था बनाए रखते हुए, यह सब इतना आसान नहीं होता, लेकिन असंभव भी नहीं होता। बस आपको उन तमाम खतरों से सचेतन तौर पर बचना होता है, जो कोई भी व्‍यवस्‍था, चीजों को बदलने के लिए काम करने वालों के खिलाफ संदेह पैदा करने के मकसद से उत्‍पन्‍न करती है। 

अभी देर नहीं हुई है, देर तब तक नहीं होती, जब तक हम खुद से नहीं हारते। और हारे हुए लोग दुनिया को तो क्‍या, अपनी जिंदगी को भी खूबसूरत नहीं बना सकते।

8.09.2014

सपने में फासिस्‍टों का नाच

संदीप संवाद


Courtesy: The Guardian
मुझे अक्‍सर एक सपना आता है। सपने में, भारत के कुछ चरम-परम-गरम फासिस्‍टों को जनता ने चौराहे पर घेर रखा है। उन्‍हें ना कोई मार रहा है ना पीट रहा है। बस कुछ नौजवान एकठो म्‍यूजिक सिस्‍टम लाए हैं, और उसमें वेंगा ब्‍वॉयज का गाना 'ब्राजील...तारा रा तारा रारा रा' चला देते हैं। उसके बाद वे उन फासिस्‍टों को उस भोंडे गीत पर नाचने के लिए कहते हैं, चाहे उनकी मूंछों का कट कैसा भी हो। कुछेक नाचने वालों ने कच्‍छे पहने हुए हैं।
अचानक भीड़ में से कुछ बच्‍चे आगे निकलते हैं और हिटलर के पड़पोतों की मूंछे मरोड़ देते हैं,  इधर नौजवान उन्‍हें लगातार नाचते रहने को मजबूर कर रहे हैं। जनता ठहाके लगा-लगा कर तालियां पीट रही है, बच्‍चे लगातार उनकी मूंछें खींचते जा रहे हैं और कच्‍छे वालों के कच्‍छे खींच कर उन्‍हें तंग कर रहे हैं।

वैंगा ब्‍वॉयज का बेहूदा प्रलाप 'ब्राजील...' तेज़ आवाज़ में जारी है। जनता से घिरे फासिस्‍ट कोई चारा न देख, नाचते हुए अजीब-अजीब से मुंह बना रहे हैं, और बच्‍चे उनकी मूंछें-कच्‍छे खींचते हुए हंस रहे हैं।

पृष्‍ठभूमि में कभी संसद तो कभी लाल किला नजर आता है.... उधर, खाकी वर्दियों का रंग बदल कर रोटी जैसा होता जा रहा है। हथियार ---  फावड़े, कुदाल, हंसिया, ट्रैक्‍टर बनते जा रहे  हैं।

इस पूरी अवधि के दौरान, फासिस्‍ट बिना थमे वैंगा ब्‍याज के गीत पर नाचे जा रहे हैं। जनता अब भी तंज कसती हुई तालियां पीट रही है, बच्‍चे उनकी नाक के नीचे तराशी गयी मूंछे खींच-खींच कर उखाड़े दे रहे हैं--- ब्राजील.....

अचानक सपना टूट जाता है। देखता हूं कि पंद्रह अगस्‍त को लाल किले पर भाषण देते हुए एक फासिस्‍ट को बार-बार टीवी पर दिखाया जा रहा है। उसके वहां पहुंचने से पहले स्‍कूली बच्‍चों को सजधज कर तरह-तरह के रंगारंग कार्यक्रम पेश करने पड़े। चारों तरफ सुरक्षा का पुख्‍ता बंदोबस्‍त है....


मैं तुरंत टीवी बंद करता हूं, फिर आंखें बंद करके एक नींद लेने के इरादे से लेट जाता हूं।