8.31.2011

मारुति सुज़ुकी, मानेसर के आन्‍दोलनरत मज़दूरों की प्रबुद्ध मीडियाकर्मियों से अपील


आदरणीय मीडियाकर्मियों,

जिस वक्‍त दिल्‍ली में जन लोकपाल के मुद्दे पर आन्‍दोलन की सफलता का जश्‍न मनाया जा रहा था, ठीक उसी वक्‍त राजधानी दिल्‍ली के ऐन बगल में हज़ारों ग़रीब मज़दूरों के लोकतांत्रिक अधिकारों का गला घोंटा जा रहा था। आपको पता ही होगा कि किस तरह से भारत की सबसे बड़ी कार कम्‍पनी मारुति सुज़ुकी इंडिया लिमिटेड के मैनेजमेण्‍ट ने 29 अगस्‍त की सुबह से मानेसर, गुड़गांव स्थित कारख़ाने में जबरन तालाबन्‍दी कर दी है। मैनेजमेण्‍ट ने अनुशासनहीनता और 'काम धीमा करने' का झूठा आरोप लगाकर 11 स्‍थायी मज़दूरों को बर्खास्‍त कर दिया है और 10 को निलम्बित कर दिया है। कम्‍पनी ने एक निहायत तानाशाहीभरा और सरासर ग़ैरक़ानूनी ''उत्तम आचरण शपथपत्र'' (गुड कंडक्‍ट बॉण्‍ड) भी मज़दूरों पर थोप दिया है और यह फ़रमान जारी कर दिया है कि जो मज़दूर इस पर हस्‍ताक्षर नहीं करेगा उसे ''हड़ताल पर'' माना जाएगा और कारख़ाने में दाखिल नहीं होने दिया जाएगा।
इस पत्र के अन्‍त में बॉण्‍ड का पाठ दिया गया है, आप स्‍वयं उसे पढ़कर देख सकते हैं कि यह किस कदर अलोकतांत्रिक और निरंकुश है और भारत के संविधान में उल्लिखित मूलभूत अधिकारों का हनन करता है।
आपने यह भी पढ़ा और देखा ही होगा कि मारुति सुजु़की के हम मज़दूर किन परिस्थितियों में काम करते हैं। राज्‍य द्वारा पारित श्रम क़ानूनों के तहत हमें अपनी स्‍वतंत्र यूनियन बनाने का अधिकार है लेकिन कम्‍पनी के कहने पर हमें ग़ैरक़ानूनी तरीके से इस बुनियादी अधिकार से भी वंचित किया जा रहा है ताकि हम अपने साथ होने वाले अन्‍याय के विरुद्ध आवाज़ न उठा सकें।
आप लोगों ने अण्‍णा जी के आन्‍दोलन को अभूतपूर्व कवरेज और समर्थन दिया है। मीडिया के इस प्रचण्‍ड समर्थन और सहयोग के बिना यह आन्‍दोलन न इतना व्‍यापक हो सकता था और न ही इतना सफल। आप लोग जनता के अधिकारों और न्‍याय तथा लोकतंत्र की बात करते हैं। क्‍या इन घनघोर अलोकतांत्रिक कार्रवाइयों के विरुद्ध मज़दूरों के संघर्ष को आपका समर्थन और सहयोग नहीं मिलेगा? क्‍या मज़दूरों को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित करना भ्रष्‍टाचार नहीं है? क्‍या सरकार और कम्‍पनी मैनेजमेण्‍ट की यह मिलीभगत जनता के प्रतिनिधियों द्वारा जनता से विश्‍वासघात और भ्रष्‍टाचार का मामला नहीं है? क्‍या इस संघर्ष को मात्र इतनी कवरेज मिलेगी कि दिन में एक-दो बार कुछ सेकंड का समाचार दे दिया जाये जिसमें इस बात की चिन्‍ता अधिक हो कि मज़दूरों के आन्‍दोलन के कारण कम्‍पनी को कितना घाटा हो रहा है? हमें ऐसी कोई रिपोर्ट देखने को नहीं मिली जिसमें जन लोकपाल आन्‍दोलन के कारण देश में उत्‍पादन को हुए घाटे का हिसाब लगाया हो। फिर मज़दूरों के साथ ही यह दोहरा रवैया क्‍यों?
साभार : हिंदू बिज़नस लाइन
यह प्रश्‍न केवल मारुति के एक कारखाने के 3000 मज़दूरों का नहीं है। गुड़गांव के लाखों मज़दूरों और देशभर के करोड़ों मज़दूरों के साथ रोज़ यही सलूक होता है। गुड़गांव और उसके आसपास फैले विशाल औद्योगिक क्षेत्र में स्थित सैकड़ों कारख़ानों में कम से कम 20 लाख मज़दूर काम करते हैं। अकेले आटोमोबाइल उद्योग की इकाइयों में करीब 10 लाख मज़दूर काम करते हैं। अत्‍याधुनिक कारखानों में दुनिया भर की कंपनियों के लिए आटो पार्ट्स बनाने वाले ये मज़दूर बहुत बुरी स्थितियों में काम करते हैं। इनमें से 90 प्रतिशत से भी अधिक ठेका मज़दूर हैं जो 4000-5000 रुपये महीने पर 10-10, 12-12 घंटे काम करते हैं, काम की रफ़्तार और बोझ बेहद अधिक होता है और लगातार सुपरवाइज़रों तथा सिक्‍योरिटी वालों की गाली-गलौज और मारपीट तक सहनी पड़ती है।
हम आपसे और सभी मीडिया कर्मियों से अपील करते हैं कि अन्‍याय और निरंकुशता के विरुद्ध मूलभूत  लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए इस संघर्ष में हमारा साथ दें। आप मीडियाकर्मी के साथ ही एक प्रबुद्ध और ज़ि‍म्‍मेदार नागरिक भी हैं। हम चाहते हैं कि मज़दूरों की न्‍यायसंगत मांगों को स्‍वीकार करने के लिए आप सरकार पर भी दबाव डालें। हम आपको कारखाना गेट पर धरना स्‍थल पर भी आमंत्रित करते हैं।
अग्रिम धन्‍यवाद और सादर अभिवादन सहित,

-- बिगुल मज़दूर दस्‍ता तथा मारुति सुज़ुकी एवं गुड़गांव के विभिन्‍न कारख़ानों में काम करने वाले कुछ मज़दूर
संपर्क: सत्‍यम (9910462009), रूपेश (9213639072),  सौरभ (9811841341)
                                                              http://www.petitiononline.com/MSIL298/petition.html
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उत्तम आचरण का शपथपत्र
प्रमाणित स्‍थायी आदेश के अनुच्‍छेद 25(3) की शर्तों के अनुसार
मैं,…………………………………. सुपुत्र, श्री  ................स्‍टाफ संख्‍या.................एतदद्वारा स्‍वेच्छा से और बिना किसी दबाव में आए, प्रमाणित स्‍थायी आदेश के अनुच्‍छेद 25(3) के अनुसार इस उत्तम आचरण शपथपत्र को लागू करता हूं और इस पर हस्‍ताक्षर करता हूं। मैं शपथ लेता हूं कि अपनी ड्यूटी ज्‍वाइन करने पर मैं अनुशासनबद्ध होकर सामान्‍य उत्‍पादन कार्य करूंगा और मैं धीमे काम नहीं करूंगा,  बीच-बीच में काम नहीं रोकूंगा, कारख़ाने के भीतर रुककर हड़ताल नहीं करूंगा, नियमानुसार काम (वर्क टु रूल) नहीं करूंगा, तोड़फोड़ या कारखाने के सामान्‍य उत्‍पादन को प्रभावित करने वाली अन्‍य किसी गतिविधि में भाग नहीं लूंगा। मुझे ज्ञात है कि धीमे काम कम करना, बीच-बीच में काम रोकना, कारख़ाने के भीतर रुककर हड़ताल करना (), या सामान्‍य उत्‍पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली कोई भी गतिविधि प्रमाणित स्‍थायी आदेश के तहत गंभीर दुराचरण की श्रेणी में आती है और ऐसा कोई भी कार्य करने पर प्रमाणित स्‍थायी आदेश के अनुच्‍छेद 30 के तहत दिए जाने वाले दंड में,  बिना नोटिस के काम से निकाला जाना शामिल है। अत:, मैं एतदद्वारा सहमति देता हूं कि यदि, ड्यूटी ज्‍वाइन करने के बाद, मुझे काम धीमा करने, बीच-बीच में काम रोकने, स्‍टे-इन स्‍ट्राइक करने,  वर्क टु रूल करने, तोड़फोड़ या सामान्‍य उत्‍पादन को बाधित करने वाली किसी भी अन्‍य गतिविधि में शामिल पाया जाता है, तो मुझे प्रमाणित स्‍थायी आदेश के तहत सेवा से  बर्खास्‍त किया जा सकता है।

दिनांक :........................                                                      कर्मचारी के हस्‍ताक्षर

8.27.2011

देर रात गये पाश से हुई मुलाकात

देर रात गये पाश से हुई मुलाकात
चारूचंद्र पाठक


अवतार सिंह 'पाश'
कल देर रात न्‍यूज चैनल में छाए भ्रष्‍टाचार-विरोधी अन्‍ना-आंदोलन की खबरों और रामलीला मैदान में गूंज रहे वंदे मातरम और इंकलाब जिंदाबाद के नारों को देखते-सुनते हुए, अचानक मेरी निगाह अपनी बगल में रखे स्‍टूल पर बैठे पाश पर गई। मैं पाश को अपने सामने देखकर चौंक पड़ा। पाश तो 23 मार्च, 1988 को ही ख़लिस्‍तानियों के हाथों शहीद हो गये थे... फिर यहां... इस वक्‍त...
मैं इन्‍हीं खयालों में डूबा और असमंजस में पड़ा हुआ एकटक उन्‍हें देखे जा रहा था, और वे चुपचाप मंद-मंद मुस्‍करा रहे थे। मैं जाने और कितनी देर उन्‍हें यूं ही देखता रहता, अगर उन्‍होंने मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर यह न कहा होता, ''इंसान अपने विचारों के रूप में हमेशा जिंदा रहता है...''



मैं अब भी पशो-पेश में था, दिमाग अचानक ब्‍लैंक हो गया था...

पाश ने टीवी की तरफ इशारा करके कहा, ''तमाशा जारी है?''

मैंने कहा, ''हां, आजकल पूरे मीडिया और देश में बस यही छाया हुआ है...'' मेरा दिमाग़ अभी पूरी तरह शांत नहीं पाया था। मैंने पाश से पूछा, ''आपकी इस पर क्‍या राय है?''

पाश हँसे, ''मेरी राय तो तुमने अपनी किताबों की सेल्‍फ में लगा रखी है!!!''
मैंने पलटकर किताबों के शेल्‍फ पर नजर डाली और पाश का कविता संकलन ''अक्षर-अक्षर'' नज़र आया। मैंने हाथ बढ़ाकर किताब निकाल ली, और पाश की तरफ देखा...

पाश ने मेरे हाथ से किताब ले ली, और कहा, ''इसमें है मेरी राय। फिर भी, अगर कुछ खास सवाल हों, तो बोलो, मैं तुम्‍हें अपने विचार बता दूंगा।''

पाश की मौजूदगी से मैं अब भी चकित था।

मैं : ''यह कहा जा रहा है कि अब हिन्‍दुस्‍तान से भ्रष्‍टाचार खत्‍म हो जाएगा... देश में एक बड़ा परिवर्तन आ जाएगा...''

पाश :
''हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
जिस तरह हमारे बाजुओं में मछलियां हैं,
जिस तरह बैलों की पीठ पर उभरे
सोटियों के निशान हैं,
जिस तरह कर्ज के कागजों में
हमारा सहमा और सिकुड़ा भविष्‍य है
हम जिंदगी, बराबरी या कुछ भी और
इसी तरह सचमुच का चाहते हैं
....
हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
और हम सबकुछ सचमुच का देखना चाहते हैं --
जिंदगी, समाजवाद, या कुछ भी और...।''
(कविता का शीर्षक -- प्रतिबद्धता)

मैंने पूछा, ''एक और नया कानून बनाने की बात चल रही है, जिससे देश में भ्रष्‍टाचार समाप्‍त हो जाएगा। आपको क्‍या लगता है?''

पाश ने किताब के पन्‍ने पलटकर एक कविता की ओर इशारा कर दिया :-

''यह पुस्‍तक मर चुकी है
इसे मत पढ़ो
इसके लफ्जों में मौत की ठण्‍डक है
और एक-एक पन्‍ना
जिंदगी के अंतिम पल जैसा भयानक
यह पुस्‍तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु
और जब मैं जागा
तो मेरे इंसान बनने तक
ये पुस्‍तक मर चुकी थी
अब अगर इस पुस्‍तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोये हुए पशु।''
(कविता का शीर्षक -- संविधान)

मैं : ''शांति और अहिंसा के गाँधीवादी सिद्धांतों से क्‍या कोई नया मानव-केंद्रित सामाजिक परिवर्तन संभव है?''
मेरे सामने एक और कविता आ गई :
हम जिस शान्ति के लिए रेंगते रहे
वो शान्ति बाघों के जबड़ों में
स्‍वाद बनकर टपकती रही।
शान्ति कहीं नहीं होती --
रूहों में छिपे गीदड़ों का हुआना ही सबकुछ है।
शान्ति
घुटनों में सिर देकर जिंदगी को सपने में देखने का यत्‍न है।
शान्ति यूं कुछ नहीं है।
...
शान्ति गलीज विद्वानों के मुंह से टपकती लार है
शान्ति पुरस्‍कार लेते कवियों के बढ़े हुए बाजूओं का टुण्‍ड है
शान्ति वजीरों के पहने हुए खद्दर की चमक है
शान्ति और कुछ नहीं है
या शान्ति गाँधी का जांघिया है
जिसकी तनियों को चालीस करोड़ लोगों को फांसी लगाने के लिए
प्रयुक्‍त किया जा सकता है
(कविता का शीर्षक -- युद्ध और शांति)

मैं : ''यही नहीं इसे आजादी की दूसरी लड़ाई और नई क्रांति भी कहा जा रहा है?''

पाश : (इस बार वे स्‍वयं कविता पढ़ रहे थे...)

''क्रांति कोई दावत नहीं, नुमाइश नहीं
मैदान में बहता दरिया नहीं
वर्गों का, रुचियों का दरिन्‍दाना भिड़ना है
मरना है, मारना है
और मौत को खत्‍म करना है।
(कविता का शीर्षक -- खुला खत)''

मैं : ''इस तरह तो आप इस आंदोलन की सारी बातों की ही खारिज नहीं कर रहे हैं?''

पाश :
''अभी मैं धरती पर छाई
किसी साझी के काले-स्‍याह होंठों जैसी रात की ही बात करूंगा
उस इतिहास की
जो मेरे बाप के धूप से झुलसे कंधों पर उकरा है
या अपनी मां के पैरों में फटी बिवाइयों के भूगोल की बात करूंगा
मुझसे आस मत रखना कि मैं खेतों का पूत होकर
तुम्‍हारे जुगाले हुए स्‍वादों की बात करूंगा''
(कविता का शीर्षक -- इन्‍कार)

मैं : ''पूरा मीडिया मानो इस आंदोलन के समर्थन में जी-जान से जुटा हुआ है!!!''

पाश :
''वे संपादक और उस जैसे हजारों लोग
अपनी भद्दी देह पर सवार होकर आते हैं
तो गांव की पगडंडियों पर
घास में से हरी चमक मर जाती है

यह लोग असल में रोशनी के पतंगों जैसे हैं
जो दीया जलाकर पढ़ रहे बच्‍चों की नासिकाओं में
कचायंध का भभूका बनकर चढ़ते हैं।
मेरे शब्‍द उस दीये में
तेल की जगह जलना चाहते हैं
मुझे कविता का इससे बेहतर इस्‍तेमाल नहीं पता...''
(कविता का शीर्षक -- तुझे नहीं पता)

मैं : ''अन्‍ना के अलावा मानो कोई खबर ही नहीं बची हो!!!''

पाश :
''मैं आजकल अखबारों से बहुत डरता हूं
जरूर उनमें कहीं न कहीं
कुछ न होने की खबर छपी होगी।
शायद तुम नहीं जानते, या जानते भी हों
कि कितना भयानक है कहीं भी कुछ न होना
लगातार नजरों का हांफते रहना
और चीजों का चुपचाप लेटे रहना किसी ठंडी औरत की तरह।''
(कविता का शीर्षक -- लड़े हुए वर्तमान के रूबरू)

मैं : ''मुझे जिस बात ने बेहद परेशान किया वह यह कि इसके समर्थक किसी तर्क, सवाल या संदेह को सुनना ही नहीं चाहते। ऐसा करने वाले को देशद्रोही कह दिया जाता है।''

पाश : यह भी कोई नई बात नहीं है। इसे सुनो :
''अपने लोगों से प्‍यार का अर्थ
'दुश्‍मन देश' की एजेण्‍टी होता है।
और
बड़ी से बड़ी गद्दारी का तमगा
बड़े से बड़े रुतबा हो सकता है
तो --
दो और दो तीन भी हो सकते हैं।
वर्तमान मिथिहास हो सकता है।
मनुष्‍य की शक्‍ल भी चमचे जैसी हो सकती है।''
(कविता का शीर्षक -- दो और दो तीन)

मैं : ''और ये 'इन्‍कलाब जिंदाबाद' के क्‍या अर्थ बताए जा रहे है? मैं तो इसका एक ही अर्थ जानता हूं जिसे भगतसिंह ने बताया था।''

जूते के हिसाब से पैर मत काटिए, वरना यही कहेंगे ''...कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे''

मैं इस कथित भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन और नेतृत्व से सहमत नहीं हूं। फिर भी, मेरा मानना है अन्ना की अगुवाई में चल रहे आंदोलन में आमजन की भागीदारी (चाहे वह जिस हद तक भी हो) दरअसल गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, कदम-कदम पर होने वाला अपमान, असमानता की बढ़ती खाई, ऊंच-नीच, जात-पात, भूमि अधिग्रहण, विस्थापन आदि-आदि के प्रति जनता का रोष है, जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में व्यक्त हुआ है। यह कोई नई परिघटना नहीं है। अतीत में भी ऐसा हुआ, और मौजूदा दौर में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में हो रहा है। ग्रीस, स्पेन, लीबिया, मिस्र, और हाल ही में लंदन के दंगे सब इसका उदाहरण हैं। इन सब जगहों पर किसी हालिया घटना ने सतह के नीचे खदबदाते लावे को बाहर लाने वाले उत्प्रेरक की तरह काम किया। उनका विश्लेषण किसी एक घटना तक सीमित नहीं रखा जा सकता है।

प्रगतिशील ताकतों को सोचना है कि उन्हेंप ऐसे में क्या और कैसे करना चाहिए। हर संगठन-व्यक्ति का अपना-अपना तरीका हो सकता है, लेकिन हम सभी को सबसे पहले वस्तुस्थिति को स्वीकार करना चाहिए। जूते के हिसाब से पैर काटने से केवल आप घायल होंगे। जैसेकि, अब भी कई मित्र जन लोकपाल के आंदोलन को सवर्णों का--मध्यवर्ग का आंदोलन, मीडिया प्रायोजित आंदोलन बता कर खारिज कर रहे हैं। उनसे यही कहना है कि भले ही शुरुआत में केवल मध्यवर्ग रहा हो, और मीडिया का ज्यादा हाइप मिल गया हो। लेकिन हकीकत यही है कि वे लोग इसे एक हद तक मुद्दा बनाने में कामयाब रहे हैं और हम अभी तक केवल यही कह रहे हैं कि केवल कुछेक हजार लोग ही आंदोलन में शामिल हुए हैं।

भले ही इसमें संघ-भाजपा-बजरंग दल का पूरा नेटवर्क जुटा हो, फोर्ड फाउंडेशन से पैसा आ रहा हो, पूरे आंदोलन का तौर-तरीका फासिस्टा तरीका हो, नेतृत्वो फासिस्टे हो लेकिन यह स्वीकार करना होगा कि वे एक हद तक इसे मुद्दा बनाने में कामयाब रहे हैं। हमें ठोस मूल्यांकन करके इसे स्वीकार करना चाहिए और कारणों की पड़ताल करनी चाहिए, आगे के लिए सबक निकालना चाहिए। अपनी कुंठा मिटाने के लिए संख्या कम करके आंकने से कुछ नहीं होगा। सच्चाई का सामना कीजिए, तभी कोई विकल्प खड़ा किया जा सकता है। इससे सबक निकालकर ही जनता के बीच काम किया जा सकता है, सर्वखण्डनवादी तरीके से कुछ नहीं होगा। हम नहीं समझेंगे, तो जनता फासिस्टों के पीछे भी चल सकती है। और तब हम यही कहते रह जाएंगे, ''…कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे''।

8.19.2011

आरक्षण फ़िल्म का विरोध फासीवाद का एक नया संस्करण है

प्रकाश के रे


आरक्षण फ़िल्म पर मौजूदा विवाद ने उन बहसों को ज़िंदा तो कर ही दिया है जो ऐसे मौकों पर होती रहती हैं, लेकिन इससे कुछ नई चिंताएं भी उभरती हैं. उन बहसों में जाने के साथ-साथ इन नई चिंताओं पर बात भी होनी चाहिए. इस मसले पर शुरूआती टिप्पणी के रूप में मैं उन्हीं को रेखांकित करने की कोशिश करूँगा.
मेरी पहली चिंता यह है कि इस फ़िल्म के विरोध की अगुआई कुछ ऐसे लोग कर रहे हैं जो सामाजिक न्याय के संघर्ष में लगातार लगे हुए हैं और जो न्याय और स्वतंत्रता के उच्चतम आदर्शों के झंडाबरदार हैं. फ़िल्म अभी आधिकारिक तौर पर प्रदर्शित नहीं हुई है और कुछ नेताओं को छोड़कर फ़िल्म किसी ने नहीं देखी है. अगर फ़िल्म के आपत्तिजनक होने की उन्हें भनक थी तो मेरे विचार से उन्हें फ़िल्म के रिलीज़ होने का इंतज़ार करना चाहिए था. ख़ैर, एक परेशानी यह भी है कि विरोधों के कई केंद्र हैं और उनमें आपस में कोई तालमेल नहीं है. महाराष्ट्र के वरिष्ठ नेता छगन भुजबल ने पहले फ़िल्म को प्रतिबंधित करने की मांग की थी, लेकिन जब निर्देशक प्रकाश झा ने उन्हें फ़िल्म दिखाई तो वह संतुष्ट दिखे. कुछ ‘असंवेदनशील’ संवादों में फेरबदल की उनकी सलाह निर्देशक द्वारा मान लिये जाने के बाद उन्होंने अपना विरोध वापस ले लिया. लेकिन महाराष्ट्र के ही एक अन्य वरिष्ठ नेता रामदास आठवले फ़िल्म को रोकने की मांग पर अड़े हुए हैं. उन्होंने भी फ़िल्म को देखने की मांग की थी जिसे शायद निर्देशक ने पूरा नहीं किया. फ़िल्म का प्रोमो देखकर ही श्री आठवले को इसके दलित-विरोधी होने का अंदाजा हो गया है. शायद कुछ लोगों में ख़त का मज़मून लिफ़ाफ़ा देखकर भांपने की सलाहियत होती है. उत्तर प्रदेश की सरकार ने फ़िल्म को रोकते हुए ‘आपत्तिजनक’ संवादों को हटाने की मांग की है. सरकार ने यह निर्णय कुछ उच्च पदस्थ अधिकारियों द्वारा फ़िल्म को देखने के बाद लिया है. ठीक यही मांग राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी एल पुनिया ने भी की है और इस आशय से सेंसर बोर्ड को अवगत करा दिया है. श्री पुनिया पिछले कुछ हफ़्तों से फ़िल्म पर आपति जता रहे थे. अब उदित राज ने कल फ़िल्म को रोकने के लिये संसद के सामने प्रदर्शन की घोषणा कर दी है.
Image: IBNlive
श्री पुनिया के सुझाव को सेंसर बोर्ड ने ठुकराते हुए फ़िल्म में किसी बदलाव के लिये निर्माता-निर्देशक को आदेश देने से इंकार कर दिया है और उसके प्रदर्शन के लिये हरी झंडी दे दी है. इस वज़ह से यह आशंका जताई जा रही है कि आयोग और बोर्ड में ठन सकती है. हालाँकि, समाचार-रिपोटों के मुताबिक, श्री पुनिया ने यह भी कहा है कि सेंसर बोर्ड अगर उनकी बात नहीं मानता है तो वह बोर्ड से कोई टकराव नहीं करेंगे. वैसे पुनिया साहब की गंभीरता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि आयोग के वेब साईट पर इस बाबत कोई सूचना नहीं है. मेरी दूसरी चिंता यह है कि यह मसला सेंसर बोर्ड के अलावा अन्य संस्थाओं को भी फ़िल्मों को प्रमाणित करने की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दख़ल देने के लिये उकसा सकता है. एक तो सेंसर बोर्ड अपने आप में बेमानी-सी संस्था है और अब कई और तत्व उसकी भूमिका में आने की कोशिश कर फ़िल्मकारों के लिये और मुसीबत खड़ी कर सकते हैं.

मेरी तीसरी चिंता प्रगतिशीलों और जनवादियों की चुप्पी है. अगर यही हंगामा संघ-गिरोह के पेशेवर दंगाईयों ने किया होता तो यही लोग अबतक उनके ख़िलाफ़ गला फाड़ कर चिल्ल-पों मचा रहे होते. यह चुप्पी खतरनाक है. मुझे समझ में नहीं आता कि जिस तरह से आरक्षण फ़िल्म को रोकने की कोशिशें की जा रही हैं, वे मक़बूल फ़िदा हुसैन, तसलीमा नसरीन, वाटर आदि मुद्दों से अलग कैसे हैं? यह विरोध फासीवाद का नया संस्करण है.
मेरी चौथी चिंता सामाजिक न्याय के कुछ झंडाबरदारों के निरंतर पतन से जुड़ी है. इनका दावा तो आधुनिकता और तार्किकता का है लेकिन वास्तव में अपनी दुकानदारी चमकाने का यह खेल है. आरक्षण फ़िल्म को लेकर खींचातानी की एक वज़ह उत्तर प्रदेश विधान सभा के आगामी चुनाव हैं. श्री पुनिया कॉंग्रेस की तरफ से बल्लेबाजी कर रहे हैं तो उधर बहन जी उन्हें अकेले सारा श्रेय देने को तैयार नहीं. लिहाज़ा तू डाल डाल, मैं पात पात का खेल चल रहा है. श्री उदित राज कुछ और करें न करें, फोटो खिंचाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं. उनका सारा आन्दोलन अखबारबाजी से चलता है. यही हाल महाराष्ट्र का है. भुजबल, आठवले, पाटिल वही कर रहे हैं जो राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे करते हैं. सवाल मुशायरा लूटने का है और फिर वोट.
कुछ बातें में इन नेताओं और उनके समर्थको के विचारार्थ रखना चाहता हूँ. बात बात में पांच हज़ार साल का इतिहास खंगालने वाले इस बात पर क्यों चुप हैं कि बाबा साहेब का बड़े बांधों और तीव्र औद्योगिकीकरण पर क्या राय थी. आज विकास की जिन नीतियों के बुरे परिणाम पिछड़ा वर्ग के लोग, दलित और आदिवासी समुदाय को भुगतना पड़ रहा है, उसका कुछ दोष बाबा साहेब को भी दिया जाना चाहिए. पाकिस्तान के सवाल पर उनके विचारों पर बहस क्यों नहीं की जा रही है? मुझे पूरा यकीन है कि आज अगर बाबा साहेब जीवित होते तो वे न सिर्फ़ अपने उन विचारों पर पुनर्विचार करते, बल्कि इन बहसों का स्वागत भी करते. लेकिन उनके नाम पर मलाई काटने वाले कुछ लोगों को इससे क्या मतलब? कहाँ होते हैं ये लोग जब उन्हीं में से कोई कहता है कि बच्चों का डी एन ए जांचा जाना चाहिए क्योंकि औरत के चरित्र पर भरोसा नहीं किया जा सकता? ऐसे विचार आपको सिर्फ़ फासीवाद में मिलेंगे जो रक्त-शुद्धता की बात करता है. क्या रवैया है इन नेताओं का महिला आरक्षण पर? इन में से कौन हैं जो संघियों के साथ सांठ-गाँठ में नहीं रहा? इनमें से कौन लड़ रहा है ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़? नियाम्गिरी के बारे में इनके बयान भी हों तो मुझे दिखाईये. परमाणु समझौते और परमाणु उर्जा पर क्या कहते हैं आरक्षण फ़िल्म को गलियाने वाले? कश्मीर, उत्तर-पूर्व और ग्रीन हंट को लेकर भुजबल से उदित राज तक की राजनीति क्या है?