5.12.2011

मीडिया के अपने मित्रों का आभार और चंद बातें

मीडिया के अपने मित्रों का आभार और चंद बातें


प्रिय मित्रो,

पिछले 3 मई को गोरखपुर में अंकुर उद्योग के मालिक द्वारा मजदूरों पर गोलियां चलवाने और उसके बाद से मजदूर आंदोलन के दमन के सिलसिले में आपसे ख़तो-किताबत तथा बातचीत होती रही है। हमारी ओर से भेजी गई ईमेल आदि तथा अपने स्रोतों से आपको मालूम ही होगा कि मज़दूरों की एकता तथा देशभर में हुई निंदा और चौतरफा दबाव के बाद 9 तारीख़ की रात को गोरखपुर का प्रशासन व अंकुर उद्योग का मालिक झुकने को मजबूर हो गए। फिलहाल अंकुर उद्योग के मालिक ने कुछ मांगें मानी हैं और 18 मजदूरों को काम पर वापस रखा है तथा फैक्‍ट्री चालू हो गई है।

हालांकि अब भी वी.एन. डायर्स के दो कारखानों में तालाबंदी जारी है, सत्तर-अस्‍सी गुण्‍डों को लेकर मजदूरों पर गोलियां चलाने वाला प्रदीप सिंह अभी तक पकड़ा नहीं गया और ना ही मजदूरों पर से फर्जी मुकदमे वापस लिए गए हैं,न घायल मज़दूरों को मुआवज़ा घोषित हुआ है, न इस बर्बर गोलीकांड के लिए मालिक पर कोई कार्रवाई हुई है और न ही न्‍यायिक जांच के आदेश दिए गए हैं। फिर भी, दमन-उत्‍पीड़न से मज़दूरों को राहत मिली है और मालिकान तथा प्रशासन पीछे हटने पर बाध्‍य हुए हैं, आगे के लिए बातचीत करने पर भी राजी होना पड़ा है।
निश्चित ही, इसके लिए मुख्‍य रूप से बधाई के पात्र गोरखपुर के मजदूर ही हैं जिन्‍होंने दमन का डटकर मुकाबला किया; लेकिन देशभर में हुई निंदा तथा जनदबाव का और मीडिया के आप सभी साथियों के सहयोग और समर्थन का इसमें बहुत बड़ा योगदान है। इसके लिए मैं 'गोरखपुर मजदूर आंदोलन समर्थक नागरिक मोर्चा' की ओर से मीडिया के सभी साथियों का आभार प्रकट करना चाहता हूं (दो वर्ष पहले गोरखपुर के मज़दूर आंदोलन के दमन के समय गठित इस मोर्चे में मैं शामिल रहा हूं)।
मैं लंबे समय तक देश के कई प्रतिष्ठित हिंदी अखबारों से जुड़ा रहा हूं और पिछले तीन साल से स्‍वतंत्र रूप से पत्रकारिता कर रहा हूं। मुझे इस बात का अहसास है कि तमाम ''दबावों'' के बावजूद मीडिया के साथियों ने जिस तरह इस पूरे मामले को अपने पत्र-पत्रिका/चैनल में स्‍थान दिया, वह काफी चुनौतीपूर्ण रहा होगा। चौतरफा निंदा और मीडिया की खबरों से गोरखपुर के मालिकान-प्रशासन पर जो दबाव बना है उसमें आप सभी का योगदान सराहनीय है।
लेकिन, मैं एक बात की ओर ध्‍यान दिलाना चाहूंगा। दो साल पहले भी गोरखपुर में मजदूरों का आंदोलन चला था। उस समय भी जनदबाव और मीडियाकर्मियों के सहयोग के कारण मालिकान-प्रशासन-राजनेता गठजोड़ को झुकना पड़ा था। लेकिन उस समय तीन-चार बार किए गए समझौते आज तक लागू नहीं हुए। अगुआ मजदूरों को चुन-चुन कर प्रताड़ि‍त किया गया तथा समय बीतने के साथ झूठे आरोप लगाकर एक-एक करके उन्‍हें निकाल बाहर किया। और इस बार भी मालिक-प्रशासन ऐसा ही कर सकते हैं। हालत यह है कि चुपचाप सबकुछ सहकर काम करो, तो आप शांत, आज्ञाकारी, मेहनती, विकास को बढ़ावा देने वाले आदि-आदि हैं, वरना आप उकसावेबाज, माओवादी, नक्‍सलवादी करार दिए जाएंगे (वैसे हम मीडियाकर्मियों की स्थिति भी बहुत अच्‍छी नहीं है, और इस बात को आपसे बेहतर कौन जानता होगा?)। उस समय भाजपा के स्‍थानीय सांसद आदित्‍यनाथ ने लगातार मजदूरों और उनके नेताओं के खिलाफ जहर उगला था और पहले तो इसे सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास किया तथा मजदूरों को कामचोर तक कहा। बाद में, थू-थू होने पर उन्‍होंने मजदूरों के नेताओं को निशाना बनाया और अखबारों में बयान जारी करके उन पर नक्‍सलवादी-माओवादी-बाहरी तत्‍व आदि का लेबल चस्‍पां करने लगे। प्रशासन भी मालिकों के सुर में सुर मिलाता रहा। (अभी मोहल्‍ला लाइव पर इस आंदोलन की खबर पर गौरव सोलंकी ने टिप्‍पणी की है कि ''मुझे एक बात याद आई। तहलका में जब मैंने गोरखपुर के मजदूरों की स्टोरी की थी पिछले साल, तब वहाँ के डिप्टी लेबर कमिश्नर को फ़ोन किया था उनकी राय जानने के लिए। उन्होंने कहा कि आपको जो करना है, कर लो। जहाँ श्रम विभाग के अधिकारी ही डॉन के लहजे में बात करते हैं, वहाँ स्थितियाँ कितनी भयावह हो सकती हैं, आप सोचिए।'') मज़दूर नेताओं को बातचीत के बहाने बुलाने के बाद मारा-पीटा गया और फर्जी मुकदमे तक दायर कर दिए। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार उनका एनकाउंटर तक करने की कोशिश की गई। लेकिन उस समय भी जनदबाव और मीडिया में मौजूद साथियों की तत्‍परता के कारण वे इस घृणित कार्य को अंजाम नहीं दे सके।

मजदूरों के जुझारू संघर्ष और देशव्‍यापी जनदबाव से गोरखपुर में मजदूर आंदोलन को मिली आंशिक जीत

पुलिस-प्रशासन के भारी दमन के बावजूद गोरखपुर के मजदूरों के जुझारू संघर्ष और एक सप्ताह से जारी दमन-उत्पीड़न की देशव्यापी निंदा तथा व्यापक जनदबाव ने प्रशासन और मालिकान को कदम पीछे खींचने पर मजबूर कर दिया और वहां मजदूर आंदोलन को आंशिक जीत हासिल हुई है।

कल ‘मजदूर सत्याग्रह’ के लिए शांतिपूर्ण ढंग से आयुक्त कार्यालय पर जा रहे मजदूरों पर शहर में जगह-जगह हुए लाठीचार्ज, गिरफ्तारी, सार्वजनिक वाहनों तक से उतारकर मजदूरों की पिटाई और महिला मजदूरों के साथ पुलिस के दुर्व्‍यवहार की चौतरफा भर्त्सना और सैकड़ों मजदूरों के टाउनहाल पर भूख हड़ताल शुरू कर देने के बाद प्रशासन भारी दबाव में आ गया था। अधिकारियों ने देर शाम हिरासत में लिये गये सभी मजदूर नेताओं और मजदूरों को रिहा कर दिया तथा मालिकों को वार्ता के लिए बुलाया था। कुछ मांगों पर मालिक की सहमति तथा आज औपचारिक वार्ता तय होने के बाद कल रात अधिकांश मजदूरों ने भूख हड़ताल स्थगित कर धरना हटा लिया था लेकिन करीब 25 मजदूरों की भूख हड़ताल जारी थी।
आज उपश्रमायुक्त की मौजूदगी में मालिकों तथा मजदूरों के प्रतिनिधियों के बीच हुई वार्ता के बाद अंकुर उद्योग से निकाले गये सभी 18 मजदूरों को काम पर वापस लेने तथा कारखाना कल से शुरू करने पर मालिक पक्ष सहमत हो गया। हालांकि वीएन डायर्स के दो कारखानों से निकाले गये 18 मजदूरों को बहाल करने के सवाल पर अब भी गतिरोध बना हुआ है।

आंदोलन का संचालन कर रहे संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा के अनुसार गोलीकांड के मुख्य अभियुक्तों की गिरफ्तारी तथा अभियुक्तों को बचाने वाले अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई, घायल मजदूरों को सरकार से मुआवजा दिलाने, मजदूरों पर थोपे गये सभी फर्जी मुकदमे हटाने तथा गोलीकांड और 9 मई को ‘मजदूर सत्याग्रह’ पर हुए बर्बर दमन की न्यायिक जांच की मांग को लेकर आंदोलन जारी रहेगा। अगर ये मांगें नहीं मानी गयीं तो जल्दी ही ‘मजदूर सत्याग्रह’ का दूसरा चरण शुरू किया जाएगा, जो पहले से भी अधिक व्यापक होगा।

कल ‘मजदूर सत्याग्रह’ के बर्बर दमन की देश-विदेश में कठोर भर्त्सना हुई है। देश भर से न्यायविदों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और मजदूर आंदोलन से जुड़े लोगों ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री, राज्यपाल, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों तथा केंद्र सरकार को सैकड़ों की संख्या में फैक्स, ईमेल, फोन तथा ज्ञापन भेजकर अपना विरोध दर्ज कराया है तथा दमन चक्र तत्काल रोकने, घटना की तुरंत न्यायिक जांच कराने, मजदूरों की जायज मांगे मानने और दोषियों की खिलाफ त्वरित कार्रवाई करने की मांग की है। पीयूसीएल एवं पीयूडीआर की ओर से जांच टीमें गोरखपुर भेजने की घोषणा की गयी है और वरिष्ठ पत्रकारों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं की कुछ स्वतंत्र जांच टीमें भी जल्दी ही तथ्यसंग्रह के लिए गोरखपुर जाएंगी।

सरकारी दमन तथा मालिक-प्रशासन-सांप्रदायिक ताकतों के गंठजोड़ द्वारा जारी अंधेरगर्दी के विरुद्ध भारी जन आक्रोश और व्यापक जनदबाव के कारण यह छोटी-सी जीत मिली है लेकिन गोरखपुर के मजदूरों के सामने अभी बहुत कठिन लड़ाई है और देशभर के इंसाफपसंद नागरिकों तथा किसी भी मोर्चे पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को उनका साथ देना होगा। दमन-उत्पीड़न के तात्कालिक मसले पर मजदूरों को थोड़ी राहत मिली है लेकिन जिन बुनियादी मांगों को लेकर गोरखपुर में मजदूरों ने आवाज उठायी थी, वे आज भी यथावत हैं। वहां के किसी भी कारखाने में कोई भी श्रम कानून लागू नहीं होता। न्यूनतम मजदूरी, काम के घंटे, जबरन ओवरटाइम, जॉब कार्ड, ईएसआई जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी मजदूर वंचित हैं। श्रम विभाग सब कुछ जानते हुए भी कुछ नहीं करता। जब तक इन मांगों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा, तब तक बीच-बीच में मजदूर असंतोष का ज्वार फूटता ही रहेगा।

संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा ने यह भी चेतावनी दी है कि अगर मालिकों ने फिर से पहले की तरह वायदाखिलाफी और छलकपट से मजदूरों को उनके अधिकार से वंचित करने की कोशिश की या अगुआ मजदूरों को किसी भी तरह से प्रताड़ित करने की कोशिश की तो इसके नतीजे भुगतने के लिए उन्हें तैयार रहना होगा।

मोर्चा ने मजदूर आंदोलन का भरपूर साथ देने तथा प्रशासन पर दबाव बनाने में मदद करने वाले न्यायविदों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं को धन्यवाद देते हुए गोरखपुर के मजदूरों को न्याय दिलाने के संघर्ष में सभी से आगे भी सहयोग की अपील की है।

कृते,
गोरखपुर मजदूर आंदोलन समर्थक नागरिक मोर्चा
9936650658 (कात्यायनी)
9910462009 (सत्यम, satyamvarma@gmail.com)
8447011935 (संदीप, sandeep.samwad@gmail.com)

5.11.2011

मजदूरों पर हमले के खिलाफ आमरण अनशन का एलान

81 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता कमला पांडेय ने मायावती को लिखी चिट्ठी

प्रति,
सुश्री मायावती जी,
मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश


विषय : गोरखपुर के मजदूरों के बर्बर दमन की अविलंब निष्पक्ष जांच की मांग तथा ऐसा न होने की स्थिति में आमरण अनशन की पूर्व सूचना



प्रिय मायावती जी,

मैं,कमला पांडेय, आयु 81 वर्ष, साठ वर्षों से गरीबों-मजलूमों के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ती रही हूं और उप्र माध्यमिक शिक्षक संघ की स्‍थापना के समय से ही उसमें सक्रिय रही हूं। अब जीवन की सांध्य बेला में, हृदय रोग और शारीरिक अशक्तता के बावजूद अपनी सामाजिक सक्रियता जारी रखते हुए मैं बच्चों की संस्था ‘अनुराग ट्रस्ट’ चलाती हूं।

महोदया, गोरखपुर के मजदूरों पर पिछले दो हफ्तों से पुलिस-प्रशासन और उद्योगपतियों के गुंडों का जो बर्बर आतंकराज जारी है, उसकी खबरें मुझे विचलित करती रही हैं। फर्जी मुकदमे, गिरफ्तारी, लाठीचार्ज आदि की कार्रवाई तो अप्रैल से ही जारी है। 3 मई को ‘अंकुर उद्योग’ के मालिकों के गुंडों द्वारा अंधाधुंध गोलीवर्षा में 19 मजदूर जख्मी हुए, जिनमें से एक अभी भी जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहा है। आपके पुलिस प्रशासन ने गिरफ्तारी का बहाना बनाकर गुंडों को फैक्ट्री परिसर से बाहर निकालने का और मजदूर नेताओं पर नये फर्जी मुकदमे ठोंकने का काम किया। गोरखपुर के कमिश्नर वहां के भाजपा सांसद के सुर में सुर मिलाते हुए मजदूर नेताओं को ”बाहरी तत्व” और ”उग्रवादी” तक की संज्ञा दे रहे हैं। इन कर्मठ युवा नेताओं को मैं जानती हूं। ये मजदूर हितों के लिए संघर्षरत न्यायनिष्ठ लोग हैं।

महोदया, आज 9 मई को हजारों मजदूर दो फैक्ट्रियों की अवैध तालाबंदी समाप्त करने, मजदूरों से फर्जी मुकदमे हटाने और मजदूरों पर गोली चलाने की घटना की निष्पक्ष जांच और दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई की मांग को लेकर जब कमिश्नर कार्यालय की ओर शांतिपूर्ण ‘मजदूर सत्याग्रह’ शुरू करने जा रहे थे, तो उन पर बर्बर लाठीचार्ज और पानी की बौछार की गयी। शहर में कहीं भी उन्हें इकट्ठा होने से रोकने के लिए पुलिस ने आतंक राज कायम कर दिया। कई नेताओं, मजदूरों को हिरासत में ले लिया गया। इसके बावजूद, शाम 4 बजे मुझे सूचना मिलने तक कई सौ मजदूर टाउन हॉल, गांधी प्रतिमा के पास पहुंचकर अनशन की शुरुआत कर चुके थे।

मायावती जी, मजदूरों पर दमन का यह सिलसिला तो वास्तव में पिछले दो वर्षों से जारी है, जबसे वे कम से कम कुछ श्रम कानूनों को लागू करने की मांग कर रहे हैं।
आप स्वयं पता कीजिए कि गोरखपुर के कारखानों में क्या कोई भी श्रम कानून लागू होता है? यदि इनकी मांग उठाने वाले ”उग्रवादी” हैं तो मैं भी स्वयं को गर्व से ”उग्रवादी” कहना चाहूंगी। इस बार दमन और अत्याचार तो सारी सीमाओं को लांघ गया है। सत्ता में बैठे लोगों को यदि जनता निरीह भेड़-बकरी दीखने लगती है और इंसाफ की आवाज उनके कानों तक पहुंचती ही नहीं, तो इतिहास उन्हें कड़ा सबक सिखाता है।

मायावती जी, मैं विनम्रतापूर्वक आपको सूचित करना चाहती हूं कि यदि गोरखपुर के मजदूरों पर बर्बर अत्याचार बंद नहीं किया जाएगा, यदि मजदूरों पर गुंडों द्वारा गोली वर्षा के मामले की निष्पक्ष जांच नहीं होगी, यदि अवैध तालाबंदी खत्म करने के लिए प्रशासन मालिकों को बाध्य नहीं करेगा और यदि मजदूरों की

न्यायसंगत मांगों पर विचार नहीं किया जाएगा, तो मैं स्वयं व्हीलचेयर पर बैठकर मजदूर सत्याग्रह में हिस्सा लेने जाऊंगी। किसी लोकतांत्रिक, शांतिपूर्ण प्रतिरोध के लिए शासन से इजाजत लेना मैं जरूरी नहीं समझती। यदि न्याय की आवाज की अनसुनी की जाती रहेगी, तो आमरण अनशन करके प्राण त्यागना मेरे लिए गौरव की बात होगी। मुझे विश्वास है कि मेरे इस बलिदान से मजदूरों के संघर्ष को शक्ति मिलेगी और लोकतांत्रिक अधिकारों के संघर्ष में उतरने के लिए तथा न्याय की लड़ाई में शोषितों-दलितों का साथ देने के लिए बुद्धिजीवी समुदाय के अंतर्विवेक को भी झकझोरा जा सकेगा।


मायावती जी, मैं आपको धमकी या चेतावनी नहीं दे रही हूं। सत्ता की प्रचंड शक्ति के आगे मुझे जैसे किसी नागरिक की भला क्या बिसात? मैं आपसे अनुरोध कर रही हूं कि आप अपने स्तर से मामले की जांच कराकर न्याय कीजिए और सत्ता मद में चूर अपने निरंकुश अफसरों की नकेल कसिए। मैं इस न्याय संघर्ष में भागीदारी के अपने संकल्प की आपको सूचना दे रही हूं और विनम्रतापूर्वक बस यह याद दिलाना चाहती हूं कि लाठियों-बंदूकों से सच्चाई और इंसाफ की आवाज कुछ देर को चुप करायी जा सकती है, लेकिन हमेशा के लिए कुचली नहीं जा सकती।

साभिवादन,

भवदीया,
कमला पांडेय

दिनांक : 9/10/2011
संपर्क : डी 68, निरालानगर, लखनऊ 226020

गोरखपुर मजदूर गोलीकांड के विरोध में तैयार की गयी ऑनलाइन पिटिशन। कृपया आप भी हस्‍ताक्षर करें...


5.03.2011

गोरखपुर में फैक्‍ट्री मज़दूरों पर हमला - 20 मज़दूर गंभीर रूप से घायल

कृपया तुरंत कार्रवाई करें / बड़े पैमाने पर वितरित करें ...

गोरखपुर में फैक्‍ट्री मज़दूरों पर हमला - 20 मज़दूर गंभीर रूप से घायल

गोरखपुर (उ.प्र.) के बरगदवा औद्योगिक क्षेत्र की अंकुर उद्योग लि. नामक फैक्‍ट्री के मालिक द्वारा बुलाए गए गुण्‍डों ने आज (3 मई) सुबह मज़दूरों पर हमला किया। गुण्‍डों द्वारा की गई गोलीबारी से कम से कम 20 मज़दूर गम्‍भीर रूप से घायल हो गये हैं जिन्‍हें जिला अस्‍पताल में भरती कराया गया है। 

मज़दूरों ने फैक्‍ट्री को घेर रखा है ताकि गुण्‍डे निकल कर भाग न सकें। पुलिस बल घटनास्‍थल पर पहुंच गया है और फैक्‍ट्री गेट पर मौजूद है लेकिन उसने अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की है। उन्‍होंने अब तक प्राथमिकी भी नहीं दर्ज की है। अब तक 17 घायल मज़दूरों को ज़िला अस्‍पताल में भर्ती कराया गया है। उनके नाम हैं: 1. विनोद सिंह पुत्र श्री रामसरूप सिंह; 2. विरेन्‍द्र यादव पुत्र श्री मतिलाल यादव; 3. इन्‍द्रदेव पुत्र श्री बिलास दास; 4. अमित कुमार पुत्र श्री भूरे; 5. रमानन्‍द साहनी पुत्र श्री शीतला प्रसाद; 6. शैलेष कुमार पुत्र श्री रामाश्रय और 7. पप्पू जायसवाल, 8.रामजन्‍म भारत पुत्र श्री गुल्‍लू भारती, 9. विनय श्रीवास्‍तव पुत्र श्री तेज नारायण, 10. देवेंद्र यादव पुत्र श्री विजय नाथ, 11. विनोद दुबे पुत्र श्री केदारनाथ, 12. ध्रुव सिंह पुत्र श्री रामरूप सिंह, 13. श्रीनिवास चौहान पुत्र श्री बच्‍चा चौहान 14. संदीप मेहता पुत्र श्री बाबूलाल सिंह 15. राजेश गुप्‍ता पुत्र श्री लक्ष्‍मीकांत गुप्‍ता, 16. कृष्‍णकुमार पुत्र श्री रामकिशोर,17. शिवकुमार पुत्र श्री गिरजा राय.

साफ तौर पर यह उद्योगपतियों की तरफ से एक सुनियोजित हमला है। कुछ दिन पहले से ही मीडिया में एक दुष्‍प्रचार अभियान शुरू किया गया था जिसमें कहा गया था कि अपने बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्षरत मज़दूरों को बाहर से आये ''माओवादियों'' द्वारा भड़काया गया है। याद रहे कि दो साल पहले जब बरगदवा की 7 फैक्ट्रियों के मज़दूरों ने अपनी मांगों को लेकर एक संगठित आन्‍दोलन शुरू किया था उस समय भी इस प्रकार की अफवाहें फैलाने की कोशिश की गई थी। गोरखपुर के भाजपा सांसद योगी आदित्‍यनाथ फैक्‍ट्री मालिकों का खुले तौर पर समर्थन कर रहे हैं। वे शुरू से ही मज़दूरों के आन्‍दोलन का विरोध करते हुए मज़दूर नेताओं को ''हिंसा भड़काने पर तुले माओवादी'' कहते रहे हैं और पूरे मज़दूर आन्‍दोलन को यह कहकर बदनाम करते रहे हैं कि यह आन्‍दोलन ''चर्च के पैसे से चल रहा'' है।

गोरखपुर का प्रशासन खुलेआम फैक्‍ट्री मालिकों का पक्ष ले रहा है। गोरखपुर के कमिश्‍नर ने 5 दिन पहले ही बयान दिया था कि ''मज़दूरों को भड़काने वाले बाहरी तत्‍वों को बख्‍शा नहीं जायेगा और पुलिस उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई करेगी'' यह बयान गीडा (गोरखपुर औद्योगिक विकास प्राधिकरण) के फैक्‍ट्री मालिकों की एक बैठक के तत्‍काल बाद आया जिसमें मालिकों ने प्रशासन से ऐसा करने के लिए कहा था। यहां तक कि उन्‍होंने तीन प्रमुख मज़दूर कार्यकर्ताओं तपिश मेंडोला, प्रमोद कुमार और प्रशान्‍त को ''माओवादी'' बताया था और उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई करने को कहा था। इन तीन कार्यकर्ताओं को पहले भी 2009 में फर्जी मामला बनाकर गिरफ्तार किया गया था और उन्‍हें तभी छोड़ा गया था जब गोरखपुर के ज़िला मैजिस्‍ट्रेट के कार्यालय पर आयोजित एक जबरदस्‍त जनप्रतिरोध ने प्रशासन को 4 दिन के लिए लगभग पंगु बना दिया।

उल्‍लेखनीय है कि गोरखपुर के उद्योगपति मज़दूर मांगपत्रक आन्‍दोलन के तहत दिल्‍ली में आयोजित मई दिवस की रैली में भाग लेने से मज़दूरों को रोकने के‍ लिए तरह-तरह के हथकण्‍डे इस्‍तेमाल कर रहे थे। झूठे मामलों में लगभग एक दर्जन मज़दूरों की गिरफ्तारी की गई थी और यहां तक कि वी एन डायर्स लिमिटेड नाम की एक फैक्‍ट्री में ताला बंदी कर दी गई थी। लेकिन मज़दूरों ने बड़ी संख्‍या में मई दिवस की रैली में भाग लेकर मालिकों को करारा जवाब दिया। गोरखपुर से लगभग 2000 मज़दूरों ने मज़दूर मांगपत्रक आन्‍दोलन के तहत मई दिवस की रैली में भाग लिया जिसमें देश के अलग-अलग हिस्‍सों से आये हज़ारों मज़दूरों ने भाग लिया था। इससे फैक्‍ट्री मालिकों और उनके राजनीतिक संरक्षक और भी बौखलाये हुए हैं और वे मज़दूरों को ''सबक़ सिखाने'' की कोशिश कर रहे हैं।

मीडिया के हमारे कुछ शुभचिन्‍तकों ने हमें सचेत किया है कि गोरखपुर का ज़िला प्रशासन मज़दूर नेताओं और अगुवा मज़दूरों को हिंसा की इस घटना में फर्जी ढंग से फंसाने और उन पर गम्‍भीर आरोप लगाकर उन्‍हें परिदृश्‍य से हटा देने की योजना बना रहा है ताकि आन्‍दोलन को कुचला जा सके।

हम आप सबसे अपील करते हैं कि फैक्‍ट्री मालिक और उसके गुण्‍डों को गिरफ्तार करने के लिए राज्‍य और ज़िला प्रशासन पर दबाव डालें और मज़दूर नेताओं को फर्जी मामलों में फंसाने से उन्‍हें रोकें। संबंधित अधिकारियों के फोन/फैक्‍स नंबरों और ईमेल आईडी की एक सूची इस मेल के साथ संलग्‍न है।

सत्‍यम
फोन : 9910462009



Commissioner                                     0551 - 2338817 (Fax)
Office of the Commissioner
Collectrate
Gorakhpur - 273001


Gorakhpur (0551)
Divisional Commissioner
2333076, 2335238 (off)
2336022 (Res)
Fax: 2338817

District Magistrate                               0551 - 2334569 (Fax)
Office of the District Magistrate
Collectrate
Gorakhpur - 273001


City Magistrate: Arun - 9450924888



Dy Inspector General of Police          0551 - 2201187 / 2333442
Cantt.
Gorakhpur:

Dy. Labour Commissioner,
Labour Office
Civil Lines
Gorakhpur-273001

DLC, ML Choudhuri - 9838123667



Governor, BL Joshi
Raj Bhavan, Lucknow, 226001
0522-2220331, 2236992, 2220494
Fax: 0522-2223892
Special Secretary to Governor: 0522-2236113







Km. Mayawati,
Chief Minister
Fifth Floor, Secretariat Annexe
Lucknow-226001
0522 - 2235733, 2239234 (Fax)
2236181  2239296
2215501 (Phone: (Pffice)
2236838 2236985
Phone: (Res)


Shri Badshah Singh :                          0522 - 2238925 (Fax)
Labour Minister, 
Department of Labour
Secretariat
Lucknow

Principal Secretary, Labour                0522 - 2237831 (Fax)
Department of Labour
Secretariat
Lucknow - 226001






District & STD Code
Post
Office
Residence
Fax
Gorakhpur (0551)
Divisional Commissioner
2333076, 2335238
2336022
2338817
Gorakhpur (0551) )
D.M.
2336005
2344544, 2336007
2334569
Gorakhpur (0551)
D.I.G.
2333442
2201100
--


Email IDs

covdnhrc@nic.in
National Human rights commission 

cmup@nic.in <cmup@nic.in>           CM, UP

hgovup@up.nic.in <hgovup@up.nic.in>  Governer, UP

digrgkr@up.nic.in                     DIG, Gorakhpur

commgor@up.nic.in                 Commissioner, Gorakhpur   
laborweb@nic.in                      Labour Ministry, Central

cprabhat@ias.nic.in              Sh. P.C. Chaturvedi, Secretary, Labour, Central


uphrclko@yahoo.co.in        
UP human rights commission

sgnhrc@nic.in                  Secretary General
                

secup.labor@up.nic.in           Secretary, Labour, UP

ssecup.labour@up.nic.in      Special Secretary, Labour, UP

5.01.2011

अण्णा हज़ारे जी के नाम कुछ मज़दूर कार्यकर्ताओं की खुली चिट्ठी

मिले, 
श्री अण्णा हज़ारे
ग्राम एवं पोस्ट रालेगाँव सिद्धि
तालुका पारनेर, ज़िला अहमदनगर
महाराष्ट्र

आदरणीय अण्णा हज़ारे जी,

     हम आपके सामाजिक सरोकारों और जनजीवन से जुड़ी चिन्ताओं की इज़्ज़त करते हैं। आपकी भ्रष्टाचार- विरोधी मुहिम से सारा देश परिचित है। राजनेताओं नौकरशाहों- जजों के भ्रष्टाचार पर नियंत्राण के लिए जन लोकपाल क़ानून बनाने की आपकी माँग सरकार मान चुकी है और अब सरकार और ''सिविल सोसायटी'' के प्रतिनिधियों की साझा ड्राफ्टिंग कमेटी विधेयक का मसौदा तैयार करने में जुट गयी है। भ्रष्टाचार के खिलापफ़ अपनी मुहिम को आप देश स्तर पर फैलाने और आगे बढ़ाने की घोषणा कर चुके हैं। चुने हुए जन प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के प्रावधान की भी आपने माँग की है। पढ़े-लिखे लोगों की अच्छी-खासी आबादी आपकी मुहिम को ''एक नयी क्रान्ति'' का आग़ाज़ तक बता रही है। कुछ नेता और बुद्धिजीवी शंकाएँ और विवाद भी उठा रहे हैं। पर हम लोगों के मन में कुछ और सवाल उमड़-घुमड़ रहे हैं। इन सवालों की ज़मीन आम मेहनतकशों की ज़िन्दगी की समस्याएँ हैं। आप लोकतांत्रिक परम्परा और पद्धति के पक्षधर व्यक्ति हैं। हमारा भरोसा है कि हमारे सवालों को यूँ ही दरकिनार नहीं कर देंगे और स्वस्थ और खुले ढंग से इन पर एक देशव्यापी बहस सम्भव हो सकेगी।

     भ्रष्टाचार का सामना हम आम ग़रीब लोग अपनी रोज़-रोज़ की ज़िन्दगी में सबसे अधिक करते हैं। कदम-कदम पर छोटे से छोटे काम के लिए जो रिश्वत हमें देनी पड़ती है, वह रकम खाते-पीते लोगों को तो कम लगती है, मगर हमारा जीना मुहाल कर देती है। भ्रष्टाचार केवल कमीशनखोरी और रिश्वतखोरी ही नहीं है। सबसे बड़ा भ्रष्टाचार तो यह है कि करोड़ों मज़दूरों को जो थोड़े बहुत हक़-हकू़क श्रम क़ानूनों के रूप में मिले हुए हैं, वे भी फाइलों में सीमित रह जाते हैं और अब उन्हें भी ज़्यादा से ज़्यादा बेमतलब बनाया जा रहा है। अदालतों से ग़रीबों को न्याय नहीं मिलता। पूँजी की मार से छोटे किसान जगह-ज़मीन से उजाड़कर तबाह कर दिये जाते हैं और यह सब कुछ एकदम क़ानूनी तरीक़े से होता है! जिस देश में 40 प्रतिशत बच्चे और 70 प्रतिशत माँएँ कुपोषित हों, 40 प्रतिशत लोगों का बाँडी मास इण्डेक्स सामान्य से नीचे हो, 18 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हों और 18 करोड़ बेघर हों, वहाँ सत्ता सँभालने के 64 वर्षों बाद भी सरकार यदि जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी नहीं उठाती (उल्टे उन्हें घोषित तौर पर बाज़ार की शक्तियों के हवाल कर देती हो), तो इससे बड़ा विधिसम्मत सरकारी भ्रष्टाचरण भला और क्या होगा? इससे अधिक अमानवीय ''कानूनी'' भ्रष्टाचरण भला और क्या होगा कि मानव विकास सूचकांक में जो देश दुनिया के निर्धनतम देशों की पंगत में (उप सहारा के देशों, बंगलादेश, पाकिस्तान आदि के साथ) बैठा हो, जहाँ 70 प्रतिशत से अधिक आबादी को शौचालय, साफ पानी, सुचारु परिवहन, स्वास्थ्य सेवा तक नसीब न हो, वहाँ संविधान में ''समाजवादी लोकतांत्रिक गणराज्य'' होने का उल्लेख होने के बावजूद सरकार ने इन सभी ज़िम्मेदारियों से हाथ खींच लिया हो और समाज से उगाही गयी सारी पूँजी का निवेश पूँजीपति 10 फीसदी आबादी के लिए आलीशान महल, कारों बाइकों-फ्रिज-ए.सी. आदि की असंख्य किस्में, लकदक शाँपिंग माँल और मल्टीप्लेक्स आदि बनाने में कर रहे हों तथा करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही हो।

     रिश्वतखोरी, कमीशनखोरी, टैक्स चोरी, मिलावटखोरी, भाई-भतीजावाद भला कौन चाहेगा? यदि ये न होते तो अच्छा ही होता। लेकिन अण्णाजी, माफ़ करें, हमारा सवाल तो यह है कि भ्रष्टाचार मात्र इसी का नाम नहीं है। भ्रष्टाचार और अनैतिकता का फैसला क़ानूनीं-गैरक़ानूनी होने से नहीं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक आचरण के व्यापक जनहित के अनुकूल या प्रतिकूल होने से तय होता है। थोड़ी देर के लिए मान लें कि एकदम विधिसम्मत तरीक़े से एक कारख़ानेदार किसी चीज़ के उत्पादन और आपूर्ति का ठेका लेता है और श्रम क़ानूनों का पालन करते हुए मज़दूर की श्रम शक्ति आठ या दस घण्टे के लिए खरीदता है, उतने मूल्य का उत्पादन तो मज़दूर दो या तीन घण्टे में ही कर देता है, शेष मूल्य जो वह पैदा करता है उसमें से कच्चे माल की क़ीमत, मरम्मत-मेन्टेनेंस आदि का खर्च निकालने के बाद बची रकम पूँजीपति का मुनाफ़ा होता है जिसका निवेश करके वह नये कारख़ाने खोलता है, नयी मशीनें लाता है। मज़दूर जो पैदा करता है, उस पर उसका कोई नियंत्राण नहीं होता। पूँजीपति उसे उतना ही देता है जितने में वह ज़िन्दा रहकर, न्यूनतम ज़रूरतें पूरा करके काम करता रह सके। पूँजीवाद में उत्पादन सामाजिक उपभोग के हिसाब से नहीं बल्कि मुनापफ़े के हिसाब से निर्देशित होता है। पूँजीपति कई होते हैं । मुनाफ़े की प्रतिस्पर्द्धा गलाकाटू होती है। बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को निगलकर डकार भी नहीं लेती। मुनापफ़ा बढ़ाने की होड़ में पूँजीपति मज़दूरों से ज्यादा से ज्यादा काम कराने की तरक़ीबें निकालते हुए मज़दूरों द्वारा हासिल क़ानूनी हक़ों को भी हड़प लेते हैं, जबरिया सिंगल रेट ओवरटाइम कराते हैं। सुरक्षा उपकरण, स्वास्थ्य मुआवज़े आदि मदों के ख़र्चों को मार लेते हैं, फिर टैक्स भी चुरा लेते हैं तथा नेताओं-अपफसरों को रिश्वत भी खिलाते हैं। मतलब यह कि पूँजीवादी लूट-खसोट की होड़ जब क़ानूनी दायरे में होती है तब भी वह आम मेहनक़शों के हक़ मारती है और फिर यह होड़ क़नून की चौहद्दी को लाँघ जाती है तो रिश्वतखोरी कमीशनखोरी के रूप में समाज में काला धन का अम्बार इकट्ठा करने लगती है और विलासी नेताओें-अफसरों-दलालों का बिचौलिया तबका भी चाँदी काटने लगता है। थोड़ा और आगे बढ़ें। मुनाफ़े की रफ्ऱतार बढ़ाने के लिए पूँजीपति फिर उन्नत मशीनें और नयी तकनीकें लाता है, कम मज़दूरों से ज्यादा उत्पादन लेता है, बाक़ी मज़दूरों को बाहर निकाल देता है। मज़दूरों की बेरोजगारी बढ़ने से उनकी मोलतोल की ताकत घट जाती है और वे और अधिक कम मज़दूरी पर काम करने को तैयार हो जाते हैं। ब्लैकमेलिंग का यह काम भी एकदम क़ानूनी तरीक़े से होता है। पूँजी बटोरकर प्रतिस्पर्द्धी को पीछे छोड़ने के लिए पूँजीपति बैंक से जनता की बचत उधार लेते हैं, एक से दस बनाते हैं और उसका एक अत्यंत छोटा हिस्सा ब्याज के रूप में वापस करते हैं। यह धोखाधड़ी भी क़ानूनी ढंग से होती है। फिर वे शेयर बाज़ार से पूँजी बटोरने उतरते हैं, पहले शेयर का का़नूनी खेल होता है फिर वही तर्क नियंत्रण से बाहर जाकर ग़ैरक़ानूनी सट्टेबाज़ी को परवान चढ़ाता है। पूँजी बढ़ाने की यह होड़ ही हवाला कारोबार, ग़ैरक़ानूनी कारख़ानों और तमाम ग़ैरक़ानूनी कारोबारों को जन्म देती है और फिर अपराध को भी एक संगठित कारोबार बना देती है। माल बेचने के लिए अरबों-खरबों खर्च करके विज्ञापनों द्वारा जो भ्रामक प्रचार किये जाते हैं, वह भी क़ानूनी ठगी नहीं तो भला और क्या है?

     पूँजीवाद की समूची कार्यप्रणाली का विवरण न तो यहाँ सम्भव है, न ही हमारा यह उद्देश्य है। पहली बात हम कहना यह चाहते हैं कि जिस पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन सामाजिक उपभोग को केन्द्र में रखकर नहीं बल्कि मुनाफ़े को केन्द्र में रखकर होता है, वह यदि एकदम क़ानूनी ढंग से काम करे तो भी अपने आप में ही वह भ्रष्टाचार और अनाचार है। जो पूँजीवाद अपनी स्वतन्त्र आंतरिक गति से धनी-ग़रीब की खाई बढ़ाता रहता है, जिसमें समाज की समस्त सम्पदा पैदा करने वाली बहुसंख्यक श्रमिक आबादी की न्यूनतम ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पाती, वह स्वयं एक भ्रष्टाचार है। जिस पूँजीवादी लोकतन्त्रा में उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे को चलाने में सामूहिक उत्पादकों की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती और निर्णय की ताकत वस्तुतः उनके हाथों में अंशमात्रा भी नहीं होती, वह एक ‘फ्राँड’  है। जो पूँजीवादी राजनीतिक तन्त्र नागरिकों को काम करने का मूलभूत अधिकार नहीं देता और सम्पत्ति को मूलभूत अधिकार का दर्ज़ा देता है, वह स्वयं में एक भ्रष्टाचार है! हम मेहनक़श अपने अनुभव से जानते हैं कि पूँजीवाद यदि भ्रष्टाचार मुक्त हो जाये, तो भी मज़दूरों को शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति नहीं मिल सकती।

     दूसरी बात जो हम कहना चाहते हैं, वह यह कि भ्रष्टाचार की मात्रा घटती-बढ़ती रह सकती है, लेकिन पूँजीवाद कभी भ्रष्टाचार मुक्त नहीं हो सकता! भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद एक मिथक है, एक मध्यवर्गीय आदर्शवादी यूटोपिया है। यदि किसी सदाचारी पूँजीवाद का अस्तित्व भी होता तो वह आम मेहनक़श जन के लिए, और उसकी निगाहों में,  अनाचारी-अत्याचारी-भ्रष्टाचारी ही होता है। हर पूँजीवादी लोकतन्त्र में सरकारें मूलतः पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेंटी की भूमिका निभाती हैं। संसद बहसबाज़ी का अड्डा होती है जहाँ पूँजीपतियों के हित में और जनदबाव को हल्का बनाकर लोकतन्त्र का नाटक जारी रखने के लिए वही क़ानून बनाये जाते हैं जो (सदन में बहुमत के बूते) सरकार चाहती है और पूँजीवाद के सिद्धांतकार जिनका खाका बनाते हैं। राज्यसत्ता का सैन्यबल हर जन विद्रोह को कुचलने को तैयार रहता है, साथ ही वह वैश्विक-क्षेत्रीय चौध्रराहट के मसलों को युद्ध के जरिए हल करने के लिए भी सन्नद्ध रहता है। न्यायपालिका न्याय की नौटंकी करते हुए पूँजीपतियों के हित में बने क़ानूनों के अमल को सुनिश्चित करती है, मूलतः सम्पत्ति के अधिकार और सम्पत्तिवानों के विशेषाधिकारों की हिफ़ाजत का काम करती है तथा शासक वर्गों के आपसी झगड़ों में मध्यस्थ की भूमिका निभाती है। इन सभी कामों में लगे हुए लोग पूँजीपतियों के वफ़ादार सेवक होते हैं और सेवा के बदले उन्हें ऊँचे वेतनभत्तों और विशेषाधिकारों का मेवा मिलता है। यदि वे सिर्फ़ इस मेवे पर ही निर्भर रहें तो आम लोगों के मुक़ाबले उनका जीवन‘‘स्वर्ग का जीन’ होता है। लेकिन व्यवस्था के भीतर पैठने के बाद वे समझ जाते हैं कि वे लुटेरों के सेवक मात्रा हैं। पूँजीवादी शासन-प्रशासन की विराट मशीनरी में यदि कोई सदाचारी अपफ़सर हो भी तो वह कुछ व्यक्तियों का कल्याण भले कर सकता है, ‘सिस्टम’ को ज़रा भी नहीं बदल सकता। उसकी बिसात महज एक कल-पुर्जे की होती है और यह समझने के साथ ही आदर्शवादियों का आदर्शवाद हवा हो जाता है। वे भी ''रास्ते पर आ जाते हैं''। लुटेरों के सेवकों से नैतिकता, सदाचार और देशभक्ति की उम्मीद नहीं की जा सकती। तमाम सम्पत्तिधारी परजीवियों के हितों की ''कानूनी'' ढंग से रक्षा करते हुए, उन्हें जहाँ भी मौक़ा मिलता है, अपनी भी ज़ेब गर्म कर लेते हैं। समूचे पूँजीपति वर्ग के प्रबंधकों और सेवकों के समूह के कुछ लोग, पूँजीपति घरानों की आपसी होड़ का लाभ उठाकर इस या उस घराने से रिश्वत, दलाली और कमीशन की मोटी रकम ऐंठते ही रहते हैं। पूँजीपतियों की यह आपसी होड़ जब उग्र और अनियंत्रित हो कर पूरी व्यवस्था की पोल खोलने लगती है, और बदहाल जनता का क्रोध फूटने का एक बहाना मिलने लगता है तथा ''लूट के लिए होड़ के खेल'' के नियमों को ताक पर रख दिया जाता है तो व्यवस्था-बहाली और ''डैमेज कंट्रोल'' के लिए पूँजीपतियों की संस्थाएँ (फिक्की, एसोचैम, सी.आई.आई.आदि), पूँजीवादी सिद्धांतकार, समाज सुधारक आदि चिन्तित हो उठते हैं। जो पूँजीपति स्वयं अपने हित के लिए कमीशन देते हैं, वे भी अलग-अलग और समूह में बढ़ते भ्रष्टचार पर चिन्ता जाहिर करते हैं, सरकार की गिरती साख को बहाल करने के लिए सामूहिक तौर पर चिन्ता जाहिर करते हैं और पूँजीवाद को ''भ्रष्टाचार मुक्त'' बनाने की मुहिम में लगी स्वयंसेवी संस्थाओं की उदारतापूर्वक फण्डिंग करते हैं। कभी कोई नेता, कभी कोई अफसर, तो कभी कोई समाजसेवी भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम का मसीहा और‘‘ह्विसल ब्लोअर’ बनकर सामने आता है जो पूँजीवादी शोषण- उत्पीड़न की व्यवस्था का विकल्प सुझाने के बजाय भ्रष्टाचार को ही सारी बुराई की जड़ बताने लगता है और मौजूद ढाँचे में कुछ सुधारमूलक पैबंदसाज़ी की सलाह देते हुए जनता को दिग्भ्रमित कर देता है। इन ‘‘ह्विसल ब्लोअर’ की नीयत यदि एकदम सही भी हो तो वे तरह-तरह के डिटर्जेण्ट लेकर इस व्यवस्था के दामन पर लगे धब्‍बों को धोने की ही भूमिका अदा करते है। वे भ्रम का कुहासा छोड़ने वाली चिमनी, जनाक्रोश के दबाव को कम करने वाले ‘सेफ्टीवाँल्व’ और व्यवस्था के पतन की सरपट ढलान पर बने ‘स्पीड ब्रेकर’ की ही भूमिका निभाते हैं।

     अण्णाजी, हमें आपकी नीयत पर भी शक़ नहीं है। पर व्यवस्था की कार्यप्रणाली, भ्रष्टाचार के मूल कारण और समस्या के समाधान की आपकी समझदारी पर हमारे सवाल हैं। भ्रष्टाचार पूँजीवादी समाज की सार्विक परिघटना है। जहाँ लोभ-लाभ की संस्कृति होगी, वहाँ मुनाफ़ा निचोड़ने की हवस क़ानूनी दायरों को लाँघकर खुली लूटपाट और दलाली को जन्म देती ही रहेगी। जनता को भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद नहीं चाहिए बल्कि पूँजीवाद से ही मुक्ति चाहिए। जहाँ क़ानूनी शोषण और लूट होगी, वहाँ गैरक़ानूनी शोषण और लूट भी होगी ही। काला धन सफ़ेद धन का ही सगा भाई होता है।

     फ्रांसीसी उपन्यासकार बाल्ज़ाक ने यूँ ही नहीं कहा था कि हर सम्पत्ति-साम्राज्य अपराध की बुनियाद पर खड़ा होता है। दूर क्यों जायें? हम जन लोकपाल बिल की ड्राफ्रिटंग कमेटी में शामिल शान्तिभूषण-प्रशान्तभूषण का ही उदाहरण लेते हैं। हम अमर सिंह के आरोपों और उनके द्वारा प्रस्तुत सीडी के असली-फर्जी होने, स्टाँम्पचोरी जैसे आरोपों की चर्चा नहीं कर रहे हैं। पर यह तो सच है कि बसपा विधायकों का दलबदल कराने को लेकर मुलायम सिंह पर चल रहे मुकदमें में शान्तिभूषण उनके वकील थे। यह तो सच है कि एक-एक पेशी के लिए शांतिभूषण 25 लाख रुपये की फीस लेते हैं। प्रशांतभूषण भी लाखों में ही लेते हैं। आपके मंच पर समर्थन देने आये राम जेठमलानी की भी यही स्थिति है। क्या शुचिता मात्रा यही है कि शान्तिभूषण जी अपनी फ़़ीस का पूरा हिसाब रखते हैं और टैक्स देते हैं। सवाल क्या यह नहीं है कि इतने मँहगे वकील कितने ग़रीबों को न्याय दिला सकते हैं ? क्या कुछ राजनीतिक क़ैदियों को ज़मानत दिला देने, कुछ जनहित याचिकाएँ दाखिल कर देने और जन लोकपाल बिल का मसौदा बनाने में भागीदार हो जाने से सारा पाप-प्रक्षालन हो गया? जिस देश में 77.5 फीसदी आबादी 20 रुपये रोज़ से कम पर जीती हो और जीवन की बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित है, वहाँ किसी व्यक्ति के पास 1 अरब 36 करोड़ की दौलत और आठ अचल सम्पत्तियाँ (शांतिभूषण जी की संपत्तिद्ध) क्या आपने आप में अनाचार नहीं है? प्रशांतभूषण जी और रामजेठमलानी जैसों की सम्पत्ति भी करोड़ों में है। शांतिभूषण या रामजेठमलानी जिन काँरपोरेट घरानों के मुकदमों की पैरवी पेशे के नाम पर करते हैं, वे घराने मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़कर और टैक्स चोरी करके ही अकूत धन जुटाते हैं और फिर अपने हितों की क़ानूनी हिफ़ाजत के लिए शांतिभूषण जैसे वकीलों को मोटी फीस देते हैं। बाबा रामदेव भ्रष्टाचार के विरुद्ध ऊँची आवाज़ में बोलते हैं। आपके मंच पर भी आकर समर्थन जता गये। क्या उनके ट्रस्टों द्वारा संचालित प्रतिष्ठानों में जो मज़दूर काम करते हैं, उन्हें श्रम क़ानूनों के अनुसार सारी सुविधाएँ दी जाती है? अभी दिलीप मण्डल के ब्लाँग से यह जानकारी मिली कि अरविन्द केजरीवाल की दो एन.जी.ओ संस्थाओं को टाटा घराने के ट्रस्टों से अनुदान मिलते हैं। भ्रष्टाचार की ही बात करें तो टाटा-राडिया टेप की याद दिलाना मात्र काफ़ी होगा। टाटा की जो भी सम्पदा है वह मज़दूरों से अधिशेष निचोड़कर ही संचित हुई है। जो ''सिविल सोसायटी'' भ्रष्टाचार- विरोध  की मुहिम में सबसे अधिक मुखर है, वह एक कुलीन मध्यवर्गीय सुधारवादी आन्दोलन है जिसके कर्ता-धर्ता एन.जी.ओ हैं, जिनकी फण्डिंग देशी पूँजीपतियों के ट्रस्टों के अतिरिक्त उन्हीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा स्थापित फण्डिंग एजेंसियों से होती है, जो पूरी दुनिया के कच्चे माल को लूटकर, मज़दूरों को निचोड़कर, हथियार से लेकर दवाएँ तक बेचकर अकूत मुनाफ़ा कमाती हैं, तेल के लिए विनाशकारी युद्ध करवाती हैं, सरकारों का तख़्तापलट कराती हैं, और पर्यावरण को तबाह करती हैं। दूसरी ओर यही कम्पनियाँ मुनाफ़े की लूटमार से मचने वाली तबाही को नियंत्रित करने के लिए, जनता को दिग्भ्रमित और शांत करने के लिए, पूँजीवाद के अंतरविरोधों को विस्‍फ़ोटक होने से बचाने के लिए दान देती हैं, सामाजिक आन्दोलनों का मंच संगठित करने में पीछे से पैसा लगाती हैं, सुधारमूलक कार्यवाइयाँ करती हैं और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को समर्थन देती हैं। बिल गेट्स, वारेन बफ़ेट्स, अजीम प्रेमजी, टाटा - सभी चैरिटी करते हैं। यह आज से नहीं हो रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी से ही यही चलन है।

     अब ''सिविल सोसायटी'' यानी ''नागरिक समाज'' के बारे में कुछ और बातें। जाहिर है कि यह ''नागरिक समाज'' समरूपी मानव समाज नहीं है। वैधिक तौर पर नागरिक होते हुए भी हम मेहनतक़शों की बहुसंख्यक आबादी इसमें वस्तुतः शामिल ही नहीं है। यह मध्यवर्गीय कुलीन सुधारवादी बुद्धिजीवियों के मुखर सामाजिक संस्तर से निर्मित हुआ है जो हमारे स्वयंभू प्रतिनिधि बनकर जनहित और समाज-सुधार की बातें करते रहते हैं, पूँजीवादी प्रतिष्ठानों से वित्तपोषित गैरसरकारी संस्थाएँ बनाते हैं और किस्म-किस्म के सामाजिक आन्दोलन करते रहते हैं। ''सिविल सोसायटी'' के लोग पूँजीवाद के अन्तरविरोधें को इसकी चौहद्दी के भीतर ही हल करते रहते हैं। पूँजीवादी शोषण और संचय से पैदा होने वाले अन्तरविरोध उग्र होकर पूरे ढाँचे के लिए और पूँजीवादी लोकतन्त्र के लिए ख़तरा न बन जायें, इसके लिए ''सिविल सोसायटी'' के प्रतिनिधि लगातार सचेष्ट रहते हैं।
     प्रबोधनकाल के दार्शनिकों ने पहली बार जब ''नागरिक समाज'' की अवधारणा प्रस्तुत की तो मध्ययुगीन प्राकृतिक समाज के बरक्स यह एक प्रगतिशील अवधारणा थी। प्रारम्भिक बुर्जुआ समाज में नागरिक समाज चर्च और सामंती बंधनों से मुक्त होकर वैयक्तिक हितों की अभिव्यक्ति का क्षेत्र भी था और साथ ही बुर्जुआ वर्ग-वर्चस्व (सहयोजन के साथ प्रभुत्व) स्थापित करने का खुला क्षेत्रा भी। बुर्जुआ समाज के सुदृढ़ीकरण के साथ ही ''नागरिक समाज'' वर्ग हितों के संगठनों का समुच्चय और बुर्जुआ वर्ग-वर्चस्व का संगठित उपकरण बन चुका था। यूँ कहा जा सकता है कि राज्य या ''राजनीतिक समाज'' (''कानूनी'' सरकार जिसका अंग है) जहाँ बुर्जुआ वर्ग के प्रत्यक्ष प्रभुत्व या नियंत्राण का काम करता है, वहीं ''नागरिक समाज'' के बैनर तले प्रभुत्वशाली वर्गों के ''अधीनस्थ'' बुद्धिजीवी आम जनों पर उसका वैचारिक-सामाजिक वर्जस्व स्थापित करने का काम करते हैं। बुर्जुआ वर्ग को राज्यसत्ता के प्रत्यक्ष प्रभुत्व एवं नियंत्राण के अतिरिक्त अपनी व्यवस्था के लिए जनता की ''सहमति'' हासिल करने की और जनता को यह अहसास दिलाने की भी जरूरत होती है कि चूँकि और कोई विकल्प सम्भव नहीं है, इसलिए वह पूँजीवादी लोकतन्त्र में ही सुधारों की पैबंदसाज़ी करने और बुराइयों को नियंत्रित करने के ''मेकेनिज़्म'' बनाते रहने का काम करती रहे।

     सोचने की बात है कि ''सिविल सोसायटी'' के लोग उचित न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे, दुर्घटनाओं के उचित मुआवज़े और श्रम क़ानूनों के क्रियांन्वयन को लेकर (ये भी तो सुधार के ही मुद्दे हैं) मज़दूरों के ''गाँधीवादी'' तर्ज़ पर जनांदोलन भी क्यों नहीं संगठित करते? इस ''नागरिक समाज'' में दरअसल हम मेहनतक़श आते ही नहीं।

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     अण्णाजी, जन लोकपाल की अवधारणा पर भी हमारी कुछ शंकाएँ हैं। यदि जन लोकपाल पद बन जाये, उसके दायरे में प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट सभी को ला दिया जाये और जन लोकपाल को बहुत बड़ा स्टापफ दे दिया जाये तो भी ऊपर से लेकर नीचे ब्लाँक आँफिस तक व्याप्त भ्रष्टाचार पर वह नियंत्रण कैसे क़ायम कर सकेगा? स्वरूप चाहे जो भी हो, एक स्वायत्त, प्रशासकीय, केन्द्रीकृत नियामक तन्त्र द्वारा भ्रष्टाचार पर रोक एक भ्रम है! स्वायत्तता इस बात की कत्तई गारण्टी नहीं देती कि ऐसा तन्त्र स्वयं भ्रष्ट नहीं होगा या पूँजी के दबाव से मुक्त रह सकेगा। ऐसे किसी तन्त्र द्वारा भ्रष्टाचार पर रोक की सोच कुछ वैसी ही है जैसे किसी ''प्रबद्ध निरंकुश'' शासक द्वारा समाज को प्रगति पथ पर ले जाने की सोच। आप तो गाँधीवादी हैं। स्वयं गाँधी भी विकेन्द्रण के पक्षधर थे। यदि नीचे से ऊपर तक जन पहलकदमी और जननिगरानी का तन्त्र न हो, यदि सभी प्रशासनिक कामों पर भी जनता की चुनी हुई कमेटियों का नियंत्रण न हो, तो भ्रष्टाचार रोका ही नहीं जा सकता। ऐसा केवल तभी सम्भव हो सकता है जब उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर उत्पादन करने वाल सामूहिक तौर पर काबिज हो और फैसले की ताक़त वास्तव में उनके हाथों में हो।

     भ्रष्टाचार केवल रिश्वतखोरी ही नहीं है। ग़रीबों को न्याय नहीं मिलता, विचाराधीन क़ैदी जेलों में बूढ़े हो जाते हैं, सामाजिक जीवन में हर कदम पर हैसियत की ताक़त से चीज़ों का फैसला होता है। भ्रष्टाचार के अनगिनत रूप हैं। बिना सामाजिक ढाँचे में आमूलगामी बदलाव के, मात्र कुछ प्रशासकीय इंतज़ामों से उन्हें समाप्त किया ही नहीं जा सकता। सरकारों और सरकारी विभागों के अतिरिक्त, अन्य जगहों पर जो भ्रष्टाचार है, उसका निराकरण कैसे होगा ?

     जैसी पहले भी चर्चा की जा चुकी है, भ्रष्टाचार पूँजीवाद की सार्विक परिघटना है। यह पश्चिम के समृद्ध देशों में भी है, लेकिन भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों में इसका चरित्र ज्यादा नंगा और फूहड़ है। जिन यूरोपीय देशों में जन लोकपाल (ओम्बड्ट्समैन) जैसी संस्थाएँ मौजूद हैं वहाँ भी भ्रष्टाचार का उन्मूलन नहीं हो सका है। स्वीडन, नार्वे, हालैण्ड आदि जिन देशों में भ्रष्टाचार कम है और आम जनता को भी (धनी-ग़रीब के अंतर के बावजूद) ज्यादा सुविधापूर्ण जीवन हासिल है, वहाँ की हथियार कम्पनियाँ और दवा कम्पनियाँ पूरी दुनिया के बाज़ार से अकूत मुनाफ़ा कूटने, सरकारों को कमीशन देने और ग़रीब देशों की जनता पर गुपचुप दवाओं के जानलेवा प्रयोग करने के लिए कुख्यात हैं। यानी जो पूँजीवादी समाज सापेक्षतः ''भ्रष्टाचार मुक्त'' और ''शरीपफ़ाना'' चेहरे वाले हैं, वहाँ के पूँजीपति तो और अध्कि जघन्य आपराधिक कार्यवाइयों में लिप्त हैं।

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     अब आप यह भी कह रहे हैं कि चुनाव-प्रणाली में सुधार के लिए चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का प्रावधान और मत पत्र पर सभी उम्मीदवारों को खारिज करने का विकल्प भी होना चाहिए। क्षमा करें, हमें तो यह भी एक पैबंदसाज़ी ही लगती है। वास्तविक जनवाद तो तभी होगा जब हर नागरिक को चुनने सहित चुने जाने का भी अवसर मिले। जबतक संसद-विधानसभाओं के बड़े-बड़े निर्वाचक मण्डल होंगे तबतक चुनाव में पैसे की ताकत की भूमिका बनी रहेगी। होना यह चाहिए कि गाँवों और मुहल्लों के स्तर पर प्रतिनिधि सभा पंचायतें चुनी जायें जो अपने स्तर पर प्रशासकीय और न्यायकारी दायित्व भी सम्हालें और ऊपर के पंचायती स्तर के लिए प्रतिनिधि भी चुनें। इस तरह नीचे से ऊपर तक शासन-प्रशासन की एक पिरामिडीय संरचना होगी, चुनावों का खर्चा नाममात्रा का रह जायेगा, विधायी एवं कार्यकारी काम जनप्रतिनिधियों के एक ही निकाय के हाथों में होंगे, जन निगरानी तन्त्र नौकरशाही की निरंकुशता को समाप्त कर देगा तथा सत्ता के केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण में द्वंदात्मक संतुलन स्थापित हो जायेगा, पर केन्द्रीय स्तर पर भी शासन-प्रशासन की व्यवस्था सामूहिक, पारदर्शी और जन निगरानी के मातहत होगी। इतने आमूलगामी बदलाव के बाद ही चुनाव प्रणाली और शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार मिटाया जा सकता है और ऐसा बदलाव स्वामित्व और उत्पादन की पूँजीवादी प्रणाली के मौजूद रहते सम्भव ही नहीं।

     आदरणीय अण्णाजी, स्वामी रामदेव कहते हैं कि विदेशों में मौजूद सारा काला धन देश में वापस आना चाहिए (1948 से 2008 के बीच कुल 213.2 बिलियन डालर काला धन बाहर हस्तांतरित हो चुका है) और मीडिया जोड़ घटाव करके बताता है कि इससे देश की कितनी जबर्दस्त तरक्की हो सकती है? सुप्रीम कोर्ट भी इस दिशा में कडे़ कदम उठाने का निर्देश देता है। पर हमारे मन में तो बहुतेरी शंकाएँ उठती हैं और यह सबकुछ लोकलुभावन वायदों का खेल लगता है। मध्यवर्गीय देशभक्ति के खुमार में डूबे लोगों की झुँझलाहट मोल लेकर भी हम कहना चाहेंगे कि विभिन्न आकलनों के हिसाब से, जितना काला धन देश के बाहर है, उससे अधिक देश के भीतर है। पहले सरकार उसे ही क्यों नहीं जनकल्याण के कामों में लगा देती है! इसके अलावा, पुराने राजे- रजवाड़ों ने खरबों की पारिवारिक सम्पत्ति ट्रस्ट आदि बनाकर बचा ली है। टैक्स चोरी और काले धन को सफेद करने के लिए ही सभी व्यावसायिक घराने ट्रस्ट बनाते हैं और खरबों के वारे-न्यारे हर वर्ष करते हैं। मठों-महन्तों-मन्दिरों के ट्रस्ट-आश्रमों के पास अकूत चल-अचल सम्पत्ति सदियों से पड़ी है और रोज़ बढ़ती जा रही है। क्या इन सबकों नियंत्राण में लेकर सरकार स्कूल, अस्पताल, सड़क, खाद्यान्न सुरक्षा, आवास आदि योजनाओं में लगा सकती है?µकत्तई नहीं। सम्पत्तिधारियों की मैनेजिंग कमेंटी, सम्पत्ति-हरण नहीं कर सकती, वह संचय और पूँजी संचय के खेल में आई अराजकता को नियंत्रित कर सकती है, पर न तो इस खेल को बन्द करा सकती है, न ही उसके नियम बदल सकती है। विदेशों में जो काला धन जमा है, वैसे तो उसे वापस लाने में सैकड़ों अन्तरराष्ट्रीय कानूनी अड़चने हैं और इस प्रक्रिया के लागू होने तक उसके बड़े हिस्से को फिर से छुपा देने के रास्ते भी हैं। चलिए, थोड़ी देर को मान लेते है कि देश के भीतर और देश के बाहर का सारा काला धन जनकल्याण के कामों और विविध निर्माण कायो± में लगा दिया जाये, तो वह सारा काम नौकरशाहों और ठेके लेने वाली बड़ी कम्पनियों से लेकर विदेशी कम्पनियों के नेटवर्क द्वारा ही होगा। काला धन पूँजी बनकर मजदूरों को निचोड़ने के काम आयेगा, ठेकों में कमीशनखोरी होगी, कामों में घपला होगा और विकास कार्यों की प्राथमिकताएँ समाज के शक्तिसम्पन्न तबकों द्वारा ही तय होंगी। यानी कुछ पूँजीवादी विकास हो भी जाये तो शोषण-उत्पीड़न असमानता बढ़ने की प्रक्रिया यथावत जारी रहेगी, कमीशनखोरी-रिश्वतखोरी की नीचे से ऊपर तक बनी श्रृंखला जनलोकपाल की दूरबीनों-खुर्दबीनों के बावजूद कार्यरत रहेगी और काले धन का अम्बार फिर से इकठ्ठा होने लगेगा। पर पहली बात तो यही है कि देश-विदेश में छिपे काले धन को कुछ पूँजीपतियों और सरकार के चाहने पर भी न तो बाहर निकालकर जनहित के कामों में लगाया जा सकता है न ही काले धन की संचय-प्रक्रिया रोकी जा सकती है। सवाल यहाँ कुछ लोगों की नीयत का नहीं है, पूँजीवादी मशीनरी की कार्यविधि का है। इसीलिए, ऊपर हमने विस्तार  से चर्चा की है कि भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद एक मृगमरीचिका है, एक भ्रामक मिथक है और यह कि पूँजीवाद (एकदम विधिसम्भव ढंग से काम करे तो भी) अपने आप में भ्रष्टाचार है, अनाचार है।

     आदरणीय अण्णाजी, हम विनम्रतापूर्वक यह अप्रिय बात कह डालना चाहते हैं कि आपके भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन के चमत्कारी छवि-निर्माण में इलेक्ट्राँनिक मीडिया ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी। मंच से उचित आप सभी लोग मीडिया वालों को बार-बार धन्यवाद  दे रहे थे और ''लोकतन्त्र का सजग प्रहरी'' ''चौथा खम्भा'' आदि बताते नहीं थक रहे थे। यदि स्थानाभाव नहीं रहता तो हम तथ्यों और आँकड़ों सहित बताते कि पूँजी से संचालित इन चैनलों को अपराध, डकैती, सनसनी, गंदे मसाले सबकुछ बेचकर पैसे कमाने हैं। इनमें लगे मीडियाकर्मी केवल बौद्धिक उजरती मज़दूर हैं। उन्हें थोड़ा सामाजिक सरोकार भी दिखाने की इजाज़त है क्योंकि वह भी बिकता है। मीडिया थोथे आदर्श भी बेचता है, छद्म नायकत्व का मिथक गढ़ता है और उसे भी बेचता है क्योंकि मिथ्या आशाओं की तलाश में भटकते मध्यवर्ग में (जो इलेक्ट्राँनिक मीडिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता है और उसमें विज्ञापित सामग्रियों का सबसे बड़ा उपभोक्ता है और उसमें विज्ञापित सामग्रियों का सबसे बड़ा खरीदार) थोथे आदर्श, छद्म नायकत्व और जनविरोधी यूटोपियाओं का जबर्दस्त मार्केट है।

      हम आपके अनशन पर जन्तर-मन्तर गये थे। पहले वहाँ इससे काफी बड़े मजदूरों के प्रदर्शन हो चुके हैं। दस वर्षों से मणिपुर से स्पेशल आम्डZ पफोर्सेज़ ऐक्ट हटाने के लिए अनशन कर रही इरोम शर्मिला भी कुछ दिनों जन्तर-मन्तर पर थीं। मीडिया ने कभी उन्हें तूल नहीं दिया। पर आपके साथ कुछ हज़ार लोगों के बैठने पर उन्हेंने जन्तर-मन्तर को ‘मिस्र का तहरीर चौक तक घोषित’ कर दिया। देश के कई शहरों में सिविल सोसाइटी के कुछ लोग प्रतीकात्मक ध्रर्ने पर दीखे तो आन्दोलन को देशव्यापी बना दिया गया।

     हम पहले भी कह चुके हैं कि आपके आन्दोलन ने पूँजीवाद की जड़ों पर चोट करने के बजाय सेफ्रटीवाँल्व का काम किया है, व्यवस्था की आन्तरिक गति से पैदा हुई अराजकता (काले धन और भ्रष्टाचार का अनियंत्रित हो जाना) को काबू में लाकर ''खेल के नियमो'' को बहाल करने की कोशिश की है। पूँजीपतियों की मैनेfजंग कमेटी के रूप में काम करने वाली सरकार की अपनी विवशता थी, पर अन्ततः वह झुक गयी क्योंकि इससे व्यवस्था की खास बहाल हुई। सभी दूरद्रष्टा पूँजीवादी सिद्धान्तकार भी यही चाहते थे। सरकार चलाने वाली कांग्रेस पार्टी की एक तात्कालिक मजबूरी थी। कई विधानसभाओं के चुनाव सिर पर थे और वोट बैंक के खेल की मजबूरियों को देखते हुए वह कोई जाखिम नहीं मोल लेना चाहते थी। 

     अण्णाजी, आपके आन्दोलन में दिल्ली और निकटवर्ती इलाकों की करीब एक करोड़ मज़दूर आबादी का प्रतिनिfध्त्व तो न के बराबर था (क्या वे ''नागरिक समाज'' से बहिष्कृत अनागरिक हैं?) हाँ, शहरी मध्यवर्ग के सभी संस्तरों के लोगों का समर्थन था और भागीदारी थी। पर ये लोग भी अपने अलग-अलग बोध और अलग-अलग धारणाओं के साथ आपके आन्दोलन के समर्थन में आये थे।

     इनमें सबसे मुखर कुलीन बुद्धिजीवी समुदाय के लोग थे, जो मानते हैं कि चूँकि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए वे एन.जी.ओ. बनाकर सिविल सोसाइटी के नुमाइन्दे बनकर ''सोशल मूवमेण्ट'' चलाकर इसी व्यवस्था को ‘मानवीय चेहरा’ देने में जुटे रहते हैं। पूँजीवाद लोकतन्त्र को वे आर.टी.आई., जनहित याचिका आदि के द्वारा थोड़ा जवाबदेह और प्रभावी बनाना चाहते हैं, इस व्यवस्था के भीतर अपनी बुराइयों को ठीक करते रहने के लिए ‘नियंत्राण-सन्तुलन-भू सुधार’ की एक स्वचालन प्रणाली जोड़ना चाहते हैं। कुल मिलाकर ये लोग पूँजीवाद के अन्तरविरोध को असमाध्य बनाने से रोकने वाले लोग हैं और उसके सबसे दूरंदेश रणनीतिकार हैं। इन भद्र लोकतान्त्रिक जीवों के एजेण्डे में श्रम कानूनों के उल्लंघन, मज़दूरों की नारकीय गुलामी आदि मुद्दे नहीं आते। गरीबों के लिए इनके पास बस कुछ राहतों-रियायतों के टुकड़े हैं। इनकी ''पार्टीसिपेटरी डेमोक्रेसी'' और ''फ्सिविल सोसायटी'' का दायरा 75 करोड़ शहरी-देहाती सर्वहाराओ-अर्द्ध सर्वहाराओं के जीवन को यदि कहीं छूता भी है, तो ‘माइक्रो क्रेडिट’ के जरिए महाजनी करने तक जाता है, या फिर विदेशी पफण्डिंग से कुछ सुधार कार्यक्रम चलाकर ग़रीबों को चायक बनाकर उनकी वर्ग चेतना को भ्रष्ट और कुन्द बनाने तक जाता है। 

     ये ''सिविल सोसायटी'' वाले एक और काम करते हैं। पूँजीवादी राजनीति का विकल्प क्रांतिकारी जन राजनीति के रूप में प्रस्तुत करने के बजाय ये उसे ही राजनीति का एकमात्रा रूप बताते हैं और उससे जनता में नपफ़रत पैदा करते हुए सामाजिक आन्दोलनों के विकेन्द्रित समुच्चय के दबाव को ही हर मर्ज़ का इलाज बताते हैं। इस प्रकार वे जनता की चेतना का ख़तरनाक ढंग से अराजनीतिकीकरण करते हैं और उसे इस ऐतिहासिक सच्चाई की समझ से दूर करते हैं कि क्रांतिकारी ढंग से राजनीतिक ढाँचे पर नियंत्राण करके (यानी पुराने को तोड़कर, नया क्रांतिकारी राजनीतिक ढाँचा बनाकर) ही शोषणकारी अन्यायपूर्ण आर्थिक-सामाजिक सम्बन्धों को बदला जा सकता है। दरसल, ''सिविल सोसायटी'' के स्वयंभू प्रतिनिधि शोषित जनों की मुक्ति की कोई सांगोपांग परियोजना प्रस्तुत करने के बजाय महज इसी ढाँचे के भीतर गति-विमंदकों, तनाव-शैथिल्यकों, सुरक्षा-वाल्वों, निगरानी चौकियों और प्रहार-चूसक कुशनों की एक प्रणाली प्रस्तुत करते हैं क्योंकि पूंजीवादी लोकतन्त्र उनके लिए सार्विक, निरपेक्ष लोकतन्त्र का आदर्श ढाँचा है। क्या आश्चर्य की ऐसे लोगों में करोड़पति वकील, पत्राकार, साधु-संत आदि शामिल हैं और इनका पुरजोर समर्थन टाटा, बजाज, गोदरेज, अजीम प्रेमजी, मैनेजमेण्ट गुरू अरिन्दम सेन और तमाम मुम्बइया करोड़पति अभिनेता आदि करते हैं! 

     आपके आन्दोलन के दूसरे भागीदार वे विचारहीन, अर्धफासिस्ट मानसिकता के चिकने चेहरे वाले युवा (बी.पी.ओ. और कारपोरेट सेक्टर के कर्मी, मैनेजमेण्ट-मीडिया- कम्प्यूटर साइंस-मेडिकल- इंजीनियfरंग आदि के छात्रा) थे जो मँहगी कारों और बाइकों पर तिरंगा लहराते, ‘लगान’ या –स्वदेश’ के देशभक्ति के फिल्मी गाने गाते टी.वी. स्क्रीन पर देखे जा सकते थे। या उदारीकरण-निजीकरण के उन विचारहीन, मज़दूर-विरोधी मध्यवर्गीय युवाओं का मानवद्रोही चेहरा है, जो मानते हैं कि यदि भ्रष्टाचार नहीं होता तो भारत अमेरिका बन जाता और बंगलूर-गुड़गाँव-हैदराबाद-पुणे में कई ‘सिलिकन वैली’ बन जाते। इन लोगों को आम ग़रीब आदमी की बदहाली का न तो कारण पता है, न ही उससे कोई मतलब है। यदि ग़रीब बदहाल हैं तो उसका कारण या तो उनकी काहिली है या भ्रष्टाचार। इनका मानना है कि पूँजीवादी प्रतिस्पर्धा तो प्रगति का मूल है, बस ‘फेयर प्ले’ होना चाहिए भ्रष्टाचार नहीं। इनका मानना है कि सबको बराबरी तो दी ही नहीं जा सकती। ‘सर्वाइवल आँफ दी पिफटेस्ट’ का ही सिद्धान्त चलता है। यह आबादी गाँधी के सादगी के सिद्धान्त, आपकी गाँधी टोपी और रामदेव द्वारा विदेशी उपभोक्ता सामग्री के बहिष्कार के नारे में भी दिलचस्पी नहीं रखती। उसे बस भ्रष्टचार के खात्मे और काले धन की देश वापसी से पैदा होने वाले तरक्की के अवसरों की ललक है। उनकी कल्पना के ''स्वर्गिक गणराज्य'' से ग़रीब मेहनतकश उत्पादक समुदाय उसी तरह बहिष्कृत है जैसे रोमन गणराज्यों के नागरिक समुदाय से दास और किसान। 

     आपके आन्दोलन का तीसरा भागीदार शहरी निम्नवर्ग का एक मासूम, कूपमण्डूक परेशानहाल तबका भी था, जो कम तनख़्वाह, नगण्य बचत, कर्ज़, बेटे की बेरोजगारी, बेटी की शादी, भविष्य की अनिश्चितता आदि को लेकर परेशान रहता है। रोज़मर्रे के जीवन में उसका साबका भ्रष्टाचार से पड़ता है और मीडिया में घपलो-घोटालों-काले धन कमीशन-खोरी की खबरों के घटाटोप को पढ़ता रहता है। मेहनतकशों की ज़िन्दगी से फिर भी उसकी दूरी है, अलगाव है। उसकी मिथ्या चेतना सारी समस्याओं की जड़ राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार में देखती है। उसकी जड़ों की तलाश वह पूरी व्यवस्था की कार्यप्रणाली में नहीं देख पाता। मुक्ति की किसी सांगोपांग परियोजना की उसकी समझ नहीं है। ऐसी बातों का प्रचार उस तक पहुँचता भी कम है। अपनी ज़िन्दगी से परेशान मसीहा की तलाश में वह शिरडी, पुट्टुपार्थी, हरिद्वार जाता है, पराभौतिक शक्तियों की शरण लेने वैष्णो देवी और बालाजी जाता है और उसे लगता है कि जन्तर-मन्तर पर कोई गाँधी प्रकट हुए हैं जिन्होंने भ्रष्टाचारियों को सबक सिखाने का बीड़ा उठा लिया है तो भावविभोर होकर वहाँ भी जा पहुँचता है।

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     अण्णाजी, आप तो गाँधीवादी हैं। आपको सिर्फ़ भ्रष्टाचार मिटाने और जन लोकपाल बनाने के बजाय मुहिम को उस मुकाम से आगे बढ़ाना चाहिए जहाँ गाँधी ने अपने अंतिम दिनों में छोड़ा था। आपको तो सवाल उठाना चाहिए कि (प) किसी करोड़पति को भारत के लोगों का जनप्रतिनिधि होने का अधिकार होना ही नहीं चाहिए, (पप) जनप्रतिनिfध्यों और नौकरशाहों की तनख़्वाहें-सुविधाएँ एक औसत मध्यवर्गीय नागरिक के जीवन स्तर से अध्कि होनी ही नहीं चाहिए, (पपप) मंत्रियों-संसद सदस्यों-विधायको को राजधानियों के आलीशन बँगलों से बाहर आम ग़रीबों की बस्तियाँ में नहीं तो कम से कम मध्यवर्गीय कालोनियों के स्तर के आवास दिये जाने चाहिए और कुछ दिनों तक जनता के बीच उनका रहना और काम करना अनिवार्य होना चाहिए, (पअ) नौकरशाही को हर स्तर पर जन निगरानी कमेटियों के नियंत्रण में काम करना चाहिए तथा टेण्डर-ठेका और प्रशासनिक निर्णय का हर काम सामूहिक, खुले और पारदर्शी तरीक़े से होना चाहिए (अ) आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क आदि सभी काम सरकारी विभागों द्वारा होना चाहिए और इसमें ठेका-पट्टी या निजी क्षेत्रा का कोई स्थान नहीं होना चाहिए और (अप) कारों का उत्पादन बंद करके सार्वजनिक परिवहन को दुरुस्त किया जाना चाहिए, विलासिता की सभी सामग्रियों का उत्पादन, माल, मल्टीप्लेक्स, लग्ज़री रिसाँर्ट का निर्माण तबतक बंद कर देना चाहिए जबतक समूची जनता की बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं हो जातीं। (अपप) ‘समान शिक्षा सबको रोजगार’ अनिवार्यतः लागू होना चाहिए...आदि आदि। 

     अण्णाजी, यहाँ हम कोई समाजवाद का कार्यक्रम अपनाने की राय आपको नहीं दे रहे हैं। पर आज के समय में एक सच्चे गाँधीवादी का भी यही काम बनता है। क्या सरकार ने श्रम क़ानूनों के रूप में (चाहे वे जितने भी लचर हों) मज़दूरों से काग़ज़ों पर जो वायदे-क़रार किये हैं उन्हें लागू करने के लिए जनजागरण करना और सत्याग्रह करना आपके गाँधीवादी-मानवतावादी आदर्शों के सर्वथा अनुकूल नहीं है? दुनिया के सबसे अधिक बेघरों, कुपोषितों, बाल मृत्यु दर और जीवन के बुनियादी सुविधाओं से वंचित लोगों के इस देश के सत्ताधारी इसी जनता से निचोड़े गये धन से इतने हथियार खरीदते हैं कि आज भारत सबसे बड़ा हथियार-आयातक देश बन गया है। एक गाँधीवादी शान्तिवादी को इन मुद्दों पर भी पुरज़ोर आवाज़ उठानी चाहिए। 

     यह स्पष्ट कर दें कि इन सभी मुद्दों पर जनांदोलन संगठित करने से एक बेहतर समाज का विकल्प सामने नहीं आ जाएगा। पर इन अपेक्षतया अधिक बुनियादी मुद्दों पर, ''सिविल सोसायटी'' के भद्रजनों की घेरेबंदी से बाहर आकर कोई भी व्यक्ति (गाँधी अपनी तमाम राजनीतिक-सामाजिक यूटोपिया के बावजूद, भद्रजनों की चौहद्दी से बाहर आम जनों के आन्दोलन संगठित करने में विश्वास रखने वाले एक आन्दोलनधर्मी बुर्जुआ मानवतावादी थे) यदि आप जनता को जागृत और संगठित करेंगे तो व्यवहार उसे सुधारवादी यूटोपिया से बाहर समतामूलक समाज के निर्माण और मानवमुक्ति की ऐतिहासिक तर्कसंगत परियोजना तक पहुँचाने में सहायता करेगा, बशर्ते कि वह स्वयं को शासक वर्गीय पूर्वाग्रहों से मुक्त कर ले।

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     अण्णाजी, हमारी तो स्पष्ट धारणा है कि डालियां काटने के बजाय अन्याय-शोषण-अनाचार भ्रष्टाचार के वटवृक्ष की जड़ों पर चोट होनी चाहिए। गंदी नालियाँ ढँकते रहने के बजाय उनके उद्गम को ही बंद किया जाना चाहिए। यह तबतक नहीं हो सकता जब तक ऐसी जन-प्रातिनिधिक राजनीतिक प्रणाली (नीचे से ऊपर तक पिरामिडीय ढाँचे वाली) नहीं बनेगी, जिसमें केन्द्रीकृत विकेन्द्रण और विकेन्द्रित केन्द्रीकरण हो, जिसमें उत्पाद, राजकाज, समाज-विषयक फैसले लेने की ताक़त व्यापक आम जनता के हाथों में हो, जिसमें नौकरशाही की भूमिका जन समूह के मातहत और अतिसीमित हो, जिसमें चुनावों में पैसे की भूमिका हो ही नहीं। 

     ऐसा राजनीतिक-प्रशासनिक ढाँचा तभी बन सकता है जब सामूहिक उत्पादकों को अधिशेष का सामूहिक हस्तगतकर्ता बनकर पूंजीवादी शोषण का ही खात्मा कर दिया जाये। इसकी शुरुआत सभी देशी-विदेशी पूंजीपतियों की पूंजी और कारख़ानों को ज़ब्त करके, सभी विदेशी कर्जों को मंसूख करके तथा सभी पूंजीवादी फर्मों को सामूहिकीकरण-राजकीयकरण करके ही की जा सकती है। केवाल ऐसे ही समाज में सभी बुनियादी ज़रूरतें पूरी की जा सकती हैं, हर हाथ को काम दिया जा सकता है, सभी उत्पादक नागरिकों की सक्रिय राजनीति की प्रणाली बनायी जा सकती है और पिफर सतत् सांस्कृतिक क्रांति चलाकर सदियों से जाति-जेण्डर-नस्ल- धर्म-राष्ट्रीयता आदि पर क़ायम असमानताओं-उत्पीड़नों का उन्मूलन किया जा सकता है। 

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     अण्णाजी, आप तो एक लोकतांत्रिक प्रकृति के व्यक्ति हैं। हम कहीं भी, खुले मंच पर, अपने दृष्टिकोण को लेकर हफ्तों तक बैठकर खुली बहस करने को तैयार हैं। यदि हमारी समझ में कुछ कमी और खोट है, तो खुले मन से हम उन्हें स्वीकरने को भी तैयार हैं। 

     फुटकल शंकाएँ तो हमारी और भी हैं जो बहुतेरी हैं और गम्भीर भी हैं। चाहे जिस भाषा और जिन परिस्थितियों में भी आपने गुजरात में ''ग्राम विकास'' के कामों के लिए नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा की, वह ''हिन्दुत्व की प्रयोगशाला'' और 2002 के मुस्लिम नरसंहार के फासिस्ट योजनाकर को एक नैतिक मान्यता प्रदान करता है। नरेन्द्र मोदी का पूंजी निवेश का आर्थिक प्रोजेक्ट भी उनके सामाजिक प्रोजेक्ट की ही भाँति एक फासिस्ट प्रोजेक्ट है। इसके लिए हमें इटली, जर्मनी, स्पेन, पुर्तगाल के पफासिस्ट आर्थक प्रयोगों का अध्ययन करना होगा। व्यापारियों, शहरी मध्यवर्ग और वित्तीय महाप्रभुओं का समर्थन हासिल करने के बाद नरेन्द्र मोदी ने ग्राम विकास योजनाओं के जरिए वहां के कुलकों-फार्मरों में उनका सामाजिक आधार मजबूत किया है। गुजरात के गाँव के दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों की दुरवस्था पर कई ज़मीनी रिपोर्टें आ चुकी हैं। इसी तरह बिहार की नीतीश कुमार सरकार के कामों और भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम की भी आपने बड़ाई की। नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जद (एकी)-भाजपा सरकार ने रंगदारी पर नियंत्राण करके, प्राशासनिक तन्त्र भी कुछ झाड़पोंछ करके, बस पूंजी निवेश की कुछ अनुकूल परिस्थितियाँ बनाई हैं। आपकी इन टिप्पणियों से यह शंका पुष्ट होती है कि आप भी बस मौजूदा व्यवस्था की कुछ साफ-सफाई, झाड़पोंछ और रंगरोगन ही चाहते हैं। हमें आश्चर्य तो यह होता है कि गोध्ररा के बाद, गुजरात में जब मुसलमानों का सरकार-प्रायोजित बर्बर नरसंहार हो रहा था तो आपके मन में एक गाँधीवादी होने के नाते (गाँधी की नोआखाली और कलकत्ता यात्रा की तर्ज पर) गुजरात की पदयात्रा तक का विचार भी क्यों नहीं आया। हमारे मन में सवाल उठता है कि जिसतरह देशी-विदशी पूंजीपतियों द्वारा मज़दूरों और कच्चे माल की लूट पर, श्रम कानूनों के माख़ौल पर और सरकार की नवउदारवादी नीतियों पर आपका कोई स्पष्ट स्टैण्ड नहीं आता, उसी प्रकार आर.एस.एस भाजपा की रजनीति पर भी आपका कोई दो टूक स्टैण्ड कभी सुनने को नहीं मिला। ये अलग-अलग बातें नहीं हैं। अर्थनीति और राजनीति के आम एवं व्यापक सवालों पर स्पष्ट नज़रिया अपनाये बिना, टुकड़े-टकड़े में भ्रष्टाचार मुक्ति, ग्राम स्वराज, चुनाव प्रणाली में सुधार जैसी कुछ बातें करना और कुछ ऐसे काम करना जनता को दिग्भ्रमित करता है। क्षमा करें, इस मायने में तो आप एक सुसंगत गाँधीवादी भी नहीं हैं।

     जन्तर-मंतर पर आपके मंच पर ''सिविल सोसायटी'' के प्रबुद्ध भद्रजनों की उपस्थिति के साथ-साथ चाक्षुष धार्मिक प्रतीकों की जितनी भरमार थी, प्रच्छन्न धार्मिक, अंध्रराष्ट्रवादी नारों का जैसा शोर था और आसपास हवन-यज्ञ जैसे जो अनुष्ठान हो रहे थे, उनको देखकर भी किसी सेक्युलर नागरिक या किसी धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के नागरिक के दिलो-दिमाग़ में सवाल उठना और अलगाव महसूस करना स्वाभाविक है। 

     बहरहाल, इस किस्म के सवाल तो कई हैं। कोई भी सुधारवादी यूटोपिया जब अतिशय परम्परावादी और अतीतोन्मुख होता है तो धार्मिक रूढ़िवादियों, कट्टरपंथियों से उसका सहज नैकट्य बनने लगता है और कालांतर में उस यूटोपिया का प्रतिक्रियावादी पहलू तेजी से प्रबल होने लगता है।

     फुटकल शंकाएँ और सवाल तो और भी कई हैं। पर इस पत्र में हमने अपने मूल प्रश्नों, मूल आपत्तियों और मूल विचारों को संक्षेप में रख दिया है। पत्र लम्बा हो गया है, इसके लिए क्षमा करेंगे। कृपया इसे पढ़ने और उत्तर देने का समय अवश्य निकालियेगा। यदि अलग से या किसी खुले मंच पर संवाद या बहस के लिए आप हमें बुलायें या हमारे आमंत्राण पर इसके लिए समय निकालें तो हमें हार्दिक प्रसन्नता होगी। 
     
सादर, साभिवादन, 

     दिल्ली, पंजाब और उत्तर प्रदेश के कुछ मज़दूर कार्यकर्ता
     सम्पर्कः मार्फत ‘मज़दूर बिगुल’ 
     69 ए-1, बाबा का पुरवा
     पेपर मिल रोड, निशातगंज
     लखनउफ-226006