8.19.2011

आरक्षण फ़िल्म का विरोध फासीवाद का एक नया संस्करण है

प्रकाश के रे


आरक्षण फ़िल्म पर मौजूदा विवाद ने उन बहसों को ज़िंदा तो कर ही दिया है जो ऐसे मौकों पर होती रहती हैं, लेकिन इससे कुछ नई चिंताएं भी उभरती हैं. उन बहसों में जाने के साथ-साथ इन नई चिंताओं पर बात भी होनी चाहिए. इस मसले पर शुरूआती टिप्पणी के रूप में मैं उन्हीं को रेखांकित करने की कोशिश करूँगा.
मेरी पहली चिंता यह है कि इस फ़िल्म के विरोध की अगुआई कुछ ऐसे लोग कर रहे हैं जो सामाजिक न्याय के संघर्ष में लगातार लगे हुए हैं और जो न्याय और स्वतंत्रता के उच्चतम आदर्शों के झंडाबरदार हैं. फ़िल्म अभी आधिकारिक तौर पर प्रदर्शित नहीं हुई है और कुछ नेताओं को छोड़कर फ़िल्म किसी ने नहीं देखी है. अगर फ़िल्म के आपत्तिजनक होने की उन्हें भनक थी तो मेरे विचार से उन्हें फ़िल्म के रिलीज़ होने का इंतज़ार करना चाहिए था. ख़ैर, एक परेशानी यह भी है कि विरोधों के कई केंद्र हैं और उनमें आपस में कोई तालमेल नहीं है. महाराष्ट्र के वरिष्ठ नेता छगन भुजबल ने पहले फ़िल्म को प्रतिबंधित करने की मांग की थी, लेकिन जब निर्देशक प्रकाश झा ने उन्हें फ़िल्म दिखाई तो वह संतुष्ट दिखे. कुछ ‘असंवेदनशील’ संवादों में फेरबदल की उनकी सलाह निर्देशक द्वारा मान लिये जाने के बाद उन्होंने अपना विरोध वापस ले लिया. लेकिन महाराष्ट्र के ही एक अन्य वरिष्ठ नेता रामदास आठवले फ़िल्म को रोकने की मांग पर अड़े हुए हैं. उन्होंने भी फ़िल्म को देखने की मांग की थी जिसे शायद निर्देशक ने पूरा नहीं किया. फ़िल्म का प्रोमो देखकर ही श्री आठवले को इसके दलित-विरोधी होने का अंदाजा हो गया है. शायद कुछ लोगों में ख़त का मज़मून लिफ़ाफ़ा देखकर भांपने की सलाहियत होती है. उत्तर प्रदेश की सरकार ने फ़िल्म को रोकते हुए ‘आपत्तिजनक’ संवादों को हटाने की मांग की है. सरकार ने यह निर्णय कुछ उच्च पदस्थ अधिकारियों द्वारा फ़िल्म को देखने के बाद लिया है. ठीक यही मांग राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी एल पुनिया ने भी की है और इस आशय से सेंसर बोर्ड को अवगत करा दिया है. श्री पुनिया पिछले कुछ हफ़्तों से फ़िल्म पर आपति जता रहे थे. अब उदित राज ने कल फ़िल्म को रोकने के लिये संसद के सामने प्रदर्शन की घोषणा कर दी है.
Image: IBNlive
श्री पुनिया के सुझाव को सेंसर बोर्ड ने ठुकराते हुए फ़िल्म में किसी बदलाव के लिये निर्माता-निर्देशक को आदेश देने से इंकार कर दिया है और उसके प्रदर्शन के लिये हरी झंडी दे दी है. इस वज़ह से यह आशंका जताई जा रही है कि आयोग और बोर्ड में ठन सकती है. हालाँकि, समाचार-रिपोटों के मुताबिक, श्री पुनिया ने यह भी कहा है कि सेंसर बोर्ड अगर उनकी बात नहीं मानता है तो वह बोर्ड से कोई टकराव नहीं करेंगे. वैसे पुनिया साहब की गंभीरता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि आयोग के वेब साईट पर इस बाबत कोई सूचना नहीं है. मेरी दूसरी चिंता यह है कि यह मसला सेंसर बोर्ड के अलावा अन्य संस्थाओं को भी फ़िल्मों को प्रमाणित करने की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दख़ल देने के लिये उकसा सकता है. एक तो सेंसर बोर्ड अपने आप में बेमानी-सी संस्था है और अब कई और तत्व उसकी भूमिका में आने की कोशिश कर फ़िल्मकारों के लिये और मुसीबत खड़ी कर सकते हैं.

मेरी तीसरी चिंता प्रगतिशीलों और जनवादियों की चुप्पी है. अगर यही हंगामा संघ-गिरोह के पेशेवर दंगाईयों ने किया होता तो यही लोग अबतक उनके ख़िलाफ़ गला फाड़ कर चिल्ल-पों मचा रहे होते. यह चुप्पी खतरनाक है. मुझे समझ में नहीं आता कि जिस तरह से आरक्षण फ़िल्म को रोकने की कोशिशें की जा रही हैं, वे मक़बूल फ़िदा हुसैन, तसलीमा नसरीन, वाटर आदि मुद्दों से अलग कैसे हैं? यह विरोध फासीवाद का नया संस्करण है.
मेरी चौथी चिंता सामाजिक न्याय के कुछ झंडाबरदारों के निरंतर पतन से जुड़ी है. इनका दावा तो आधुनिकता और तार्किकता का है लेकिन वास्तव में अपनी दुकानदारी चमकाने का यह खेल है. आरक्षण फ़िल्म को लेकर खींचातानी की एक वज़ह उत्तर प्रदेश विधान सभा के आगामी चुनाव हैं. श्री पुनिया कॉंग्रेस की तरफ से बल्लेबाजी कर रहे हैं तो उधर बहन जी उन्हें अकेले सारा श्रेय देने को तैयार नहीं. लिहाज़ा तू डाल डाल, मैं पात पात का खेल चल रहा है. श्री उदित राज कुछ और करें न करें, फोटो खिंचाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं. उनका सारा आन्दोलन अखबारबाजी से चलता है. यही हाल महाराष्ट्र का है. भुजबल, आठवले, पाटिल वही कर रहे हैं जो राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे करते हैं. सवाल मुशायरा लूटने का है और फिर वोट.
कुछ बातें में इन नेताओं और उनके समर्थको के विचारार्थ रखना चाहता हूँ. बात बात में पांच हज़ार साल का इतिहास खंगालने वाले इस बात पर क्यों चुप हैं कि बाबा साहेब का बड़े बांधों और तीव्र औद्योगिकीकरण पर क्या राय थी. आज विकास की जिन नीतियों के बुरे परिणाम पिछड़ा वर्ग के लोग, दलित और आदिवासी समुदाय को भुगतना पड़ रहा है, उसका कुछ दोष बाबा साहेब को भी दिया जाना चाहिए. पाकिस्तान के सवाल पर उनके विचारों पर बहस क्यों नहीं की जा रही है? मुझे पूरा यकीन है कि आज अगर बाबा साहेब जीवित होते तो वे न सिर्फ़ अपने उन विचारों पर पुनर्विचार करते, बल्कि इन बहसों का स्वागत भी करते. लेकिन उनके नाम पर मलाई काटने वाले कुछ लोगों को इससे क्या मतलब? कहाँ होते हैं ये लोग जब उन्हीं में से कोई कहता है कि बच्चों का डी एन ए जांचा जाना चाहिए क्योंकि औरत के चरित्र पर भरोसा नहीं किया जा सकता? ऐसे विचार आपको सिर्फ़ फासीवाद में मिलेंगे जो रक्त-शुद्धता की बात करता है. क्या रवैया है इन नेताओं का महिला आरक्षण पर? इन में से कौन हैं जो संघियों के साथ सांठ-गाँठ में नहीं रहा? इनमें से कौन लड़ रहा है ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़? नियाम्गिरी के बारे में इनके बयान भी हों तो मुझे दिखाईये. परमाणु समझौते और परमाणु उर्जा पर क्या कहते हैं आरक्षण फ़िल्म को गलियाने वाले? कश्मीर, उत्तर-पूर्व और ग्रीन हंट को लेकर भुजबल से उदित राज तक की राजनीति क्या है?

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