10.19.2009

यहाँ सत्य को झुलस रही है संविधान की आँच


एस.ए. हमजा



यह पुस्तक मर चुकी है
इसे न पढ़ें
इसके शब्दों में मौत की ठण्डक है
और एक-एक पृष्ठ
जिन्दगी के आखिरी पल जैसा भयानक है

पंजाब के क्रान्तिकारी कवि ''पाश'' की भारतीय संविधान पर लिखी ये पंक्तियाँ दुनिया का सबसे बड़ा व महान लोकतन्त्र अपनी राज्य मशीनरी द्वारा निर्विवाद रूप में लागू कर रहा है।
भारतीय संविधान चाहे जितने विद्ववतापूर्ण ढंग से लिखा गया हो, उसकी जमीनी हकीकत यह है कि जनता को राज्यसत्ता से अतिसीमित जनवादी अधिकार ही प्राप्त हो रहे हैं। इसके साथ व्यापक आम जनता के लिए संविधान प्रदत्त अधिकारों, कानूनी प्रावधानों और उच्चतम न्यायालय के मानवाधिकारों विषयक दिशा-निर्देशों का कोई खास मतलब नहीं है क्योंकि उनके सभी संविधान प्रदत्त अधिकार तो थाने के दीवानजी की जेब में आकर समा जाते हैं।
क्योंकि व्यवस्था के सामने चुनौती खड़ा करने या थोड़ा-सा खतरा पैदा होने पर भारतीय राज्यसत्ता का चरित्र हमेशा ही दमनकारी तथा स्वयं अपने द्वारा ही बनाए गए कायदे-कानूनों को ताक पर धर देने का होता रहा है। प्रथम आम चुनाव के पहले ही 'तेलंगाना किसान संषर्घ' का बर्बर दमन करके राज्यसत्ता ने अपने वास्तविक चरित्र को उजागर कर दिया था जिसने महान क्रान्तिकारी व विचारक भगतसिंह की इस उक्ति को सही साबित किया कि ''हमें जितनी भी सरकारों के बारे में जानकारी है, वे बल पूर्वक संचालित होती है।''
इसके बाद जनता जहाँ भी अपनी विधि सम्मत न्यायपूर्ण माँगों को लेकर सड़कों पर उतरी वहाँ उसका स्वागत लाठियों व गोलियों की बौछार से किया गया। चाहे वह आपातकाल का विरोध करने वाले लोगों का दमन हो, 1974 की रेल हड़ताल हो या फिर बेलद्दी, बेलाडीला, पन्तनगर, नारायणपुर, शेरपुर, अरवल, स्वदेशी कॉटन मिल कानपुर से लेकर मुजफ्फरनगर और बबराला काण्डों तक सत्ता प्रायोजित नरसंहारो का लम्बा सिलसिला है।
छंटनी-तालाबन्दी को लेकर सड़कों पर उतरने वाले मजदूरों पर बिजली, पानी आदि की दुर्व्‍यवस्था को लेकर आन्दोलित नागरिकों पर तथा रोजगार व सस्ती शिक्षा की माँग कर रहे युवाओं पर लाठियों गोलियों की बरसात आम बात होती है।
इसी कड़ी में एक ताजा उदाहरण है गोरखपुर का मजदूर आन्दोलन। गोरखपुर में चल रहे मजदूर आन्दोलन में उन्हीं विधि सम्मत माँगों को एजेंडे पर रखा गया है जिनको देने का भारतीय संविधान दम भरता है परन्तु सत्ता व पूँजी का गठजोड़ संवैधानिक अधिकारों को ताक पर रखकर मजदूरों व उनके नेताओं पर पुलिसिया कहर बरपाए हुए है।  विगत दो माह से चलने वाले आन्दोलन को कुचलने में पूरा जिला प्रशासन, स्थानीय सांसद व विधायक महोदय काफी दिलचस्पी दिखा रहे हैं तथा उसे (आन्दोलन को) चर्च द्वारा समर्थित व नक्सलवादियों द्वारा संचालित बताया जा रहा है।
पिछले 15 अक्टूबर से गिरफ्तार मजदूर नेताओं को जमानत देने से इंकार करते हुए पुलिस प्रशासन के उच्च अधिकारी उन नेताओं के साथ पुलिसिया शालीनता का परिचय देते हुए उनको बेतहाशा यातनाएँ देने में मशरूफ़ है।
पिछले 2 महीनों से गोरखपुर से लखनऊ तक हर स्तर पर मजदूरों ने अपनी बात पहुँचाई परन्तु सर्वजन हिताय की बात करने वाली सरकार कान में तेल डालकर सो रही है। मानवधिकारों की पैरवी करने वाला मानवाधिकार आयोग, तमाम एन.जी.ओ., कलम घसीट बुद्धिजीवी, असमानता-अन्याय व शोषण की बात करने वाले सामाजिक संगठन खामोश हैं (कुछ अपवादों को छोड़कर)। भारतीय लोकतन्त्र का चैथा स्तम्भ मीडिया जो ऐश्वर्या राय के छींक आने पर खबर को फ्रंट पेज पर छापता है परन्तु इस अन्यायपूर्ण आन्दोलन को छापने व प्रसारित करने की जहमत भी नहीं उठा रहा है तथा ये खबरें गोरखपुर के स्थानीय अखबारों में ही जगह पा रही है। इससे साफ पता चलता है कि सामाजिक शक्तियों की चुप्पी व मीडिया का जनान्दोलन के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया शासक वर्गों को अपनी स्थिति मजबूत करने का आधार प्रदान कर रहा है।
सन 2000 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने गणतन्त्र दिवस के अवसर पर राष्ट्र के नाम अपने सन्देश में कहा था कि लम्बे समय से कष्ट उठा रहे लोगों का धीरज चुक रहा है। उनके गुस्से के विस्फोट से सावधान हो जाएँ। इसीलिए राज्य मशीनरी भी आने वाले जनसंघर्षों से निपटने के लिए व्यापक तैयारी कर रही है। आखिर क्या कारण है कि पिछले एक दशक में यू.पी. पुलिस में ही सबसे ज्यादा भर्तियाँ हुई, अन्य विभागों में क्यों नहीं। अगर तर्क दिया जाए कि अपराधों को रोकने के लिए तो पिछले 10 वर्ष के आंकड़े राज्य में क्राइम की बढ़ोत्तरी का संकेत करते हैं न कि कम होने का।
गोरखपुर आन्दोलन भी उन्हीं जनसंघर्षों की सुगबुगाहट का सन्देश है और गोरखपुर जिला प्रशासन उस पर नक्सलवाद का ठप्पा लगाकर बदनाम करने की कोशिशों में लगा हुआ है क्योंकि आन्दोलन पर एक बार यदि माओवाद की मुहर लग गई तो बाकी सारी चीजों के सन्दर्भ व अर्थ अपने आप बदल जायेंगे। आन्दोलन को माओवादी आन्दोलन साबित करके या उसके नेताओं को माओवादी साबित करने के पीछे एक दृष्टिकोण यह भी है कि बाहरी समुदाय व आन्दोलन के बीच अलगाव की एक मानसिक खाई बन जाए तथा लोग उसे नैतिक समर्थन न दे।

10.17.2009

गरीबों-दलितों की ''मसीहा'' मायावती का आतंकराज, मज़दूर कार्यकर्ताओं पर फर्जी मुकदमे

नक्‍सलवाद के नाम पर पहले भी जनांदलनों को कुचलने और उनके नेताओं को फर्जी मुकदमों में फंसाने की खबरें आती रही हैं, लेकिन अक्‍सर ऐसी खबरें छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्‍ट्र  आदि से मिलती थीं। अब उत्तर प्रदेश का शासन-प्रशासन भी इसी हथकण्‍डे को अपनाने लगा है। परसों देर रात गोरखपुर में तीन मज़दूर कार्यकर्ताओं को फर्जी आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया। सूत्र बता रहे हैं कि जिस फैक्‍ट्री के मजदूर पिछले लगभग ढाई महीने से आन्‍दोलन कर रहे थे, उसके मालिक की शह पर प्रशासन उस आन्‍दोलन की अगुवाई करने वालों को नक्‍सलवादी घोषित करके उन पर राजद्रोह का मामला दायर करने की तैयारी कर रहा है। इस मामलें में बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और छात्रों-पत्रकारों ने एक अपील जारी की है। आप इस अपील को पढ़ें और  जल्‍द से जल्‍द संबंधित नेताओं-अधिकारियों से अपना विरोध दर्ज़ कराएं। फोन और फैक्‍स नंबर इस अपील के अंत में दिए गए हैं।
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मज़दूर संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों के नाम अपील


मज़दूर आन्दोलन को कुचलने के लिए तीन नेतृत्वकारी युवा कार्यकर्ता झूठे 
आरोपों में गिरफ्तार, 9 मजदूरों पर फर्जी मुकदमे कायम



  • मामूली धाराओं में भी  22 अक्टूबर तक ज़मानत देने से इंकार, हिरासत में पिटाई
  • ''नक्सली'' ''आतंकवादी'' होने का आरोप लगाकर लंबे समय तक बंद रखने की तैयारी
  • मालिकों की शह पर पुलिसिया आतंकराज


पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में करीब ढाई महीने से चल रहे मज़दूर आन्दोलन को कुचलने के लिए प्रशासन ने फैक्ट्री मालिकों के इशारे पर एकदम नंगा आतंकराज कायम कर दिया है। गिरफ्तारियां, फर्जी मुकदमे, मीडिया के जरिए दुष्प्रचार व धमकियों के जरिए मालिक-प्रशासन-नेताशाही का गंठजोड़ किसी भी कीमत पर इस न्यायपूर्ण आंदोलन को कुचलने पर आमादा है। 15 अक्टूबर की रात संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा के तीन नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं - प्रशांत, प्रमोद कुमार और तपीश मैंदोला को गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस उन पर शांति भंग जैसी मामूली धाराएं ही लगा पाई लेकिन फिर भी 16 अक्टूबर को सिटी मजिस्ट्रेट ने उन्हें ज़मानत देने से इंकार करके 22 अक्टूबर तक जेल भेज दिया। इससे पहले 15 अक्टूबर की रात ज़िला प्रशासन ने तीनों नेताओं को बातचीत के लिए एडीएम सिटी के कार्यालय में बुलाया जहां काफी देर तक उन्हें जबरन बैठाये रखा गया और उनके मोबाइल फोन बंद कर दिये गये। उन्हें आन्दोलन से अलग हो जाने के लिए धमकियां दी गईं। इसके बाद उन्हें कैंट थाने ले जाया गया जहां उनके साथ मारपीट की गई। इसके अगले दिन मालिकों की ओर से इन तीन नेताओं के अलावा 9 मजदूरों पर जबरन मिल बंद कराने, धमकियां देने जैसे आरोपों में एकदम झूठा मुकदमा दर्ज कर लिया गया। गिरफ्तारी वाले दिन से ही जिला प्र्रशासन के अफसर ऐसे बयान दे रहे हैं कि इन मजदूर नेताओं को ”माओवादी“ होने की आशंका में गिरफ्तार किया गया है और उनके पास से ”आपत्तिजनक“ साहित्य आदि बरामद किया गया है। उल्लेखनीय है कि गोरखपुर के सांसद की अगुवाई में स्थानीय उद्योगपतियों और प्रशासन की ओर से शुरू से ही आन्दोलन को बदनाम करने के लिए इन नेताओं पर ‘‘नक्सली’’ और ‘‘बाहरी’’ होने का आरोप लगाया जा रहा है। कुछ अफसरों ने स्थानीय पत्रकारों को बताया है कि पुलिस इन नेताओं को लंबे समय तक अंदर रखने के लिए मामला तैयार कर रही है।
इससे पहले 15 अक्टूबर को जिलाधिकारी कार्यालय में अनशन और धरने पर बैठे मजदूरों पर हमला बोलकर उन्हें वहां से हटा दिया गया। महिला मजदूरों को घसीट-घसीटकर वहां से हटाया गया। प्रशांत, प्रमोद एवं तपीश को ले जाने का विरोध कर रही महिलाओं के साथ मारपीट की गई। ये मजदूर स्वयं प्रशासन द्वारा पिछले 24 सितम्बर को कराये गये समझौते को लागू कराने की मांग पिछले कई दिनों से प्रशासन से कर रहे थे। 3 अगस्त से जारी आन्दोलन के पक्ष में जबर्दस्त जनदबाव के चलते प्रशासन ने समझौता कराया था लेकिन मिलमालिकों ने उसे लागू ही नहीं किया। समझौते के बाद दो सप्ताह से अधिक समय बीत जाने के बावजूद आधे से अधिक मजदूरों को काम पर नहीं लिया गया है। थक हारकर 14 अक्टूबर से जब वे डीएम कार्यालय पर अनशन पर बैठे तो प्रशासन पूरी ताकत से उन पर टूट पड़ा। मॉडर्न लेमिनेटर्स लि. और मॉडर्न पैकेजिंग लि. के इन मजदूरों की मांगें बेहद मामूली हैं। वे न्यूनतम मजदूरी, जॉब कार्ड, ईएसआई कार्ड देने जैसे बेहद बुनियादी हक मांग रहे हैं, श्रम कानूनों के महज़ कुछ हिस्सों को लागू करने की मांग कर रहे हैं। बिना किसी सुविधा के 12-12 घंटे, बेहद कम मजदूरी पर, अत्यंत असुरक्षित और असहनीय परिस्थितियों में ये मजदूर आधुनिक गुलामों की तरह से काम करते रहे हैं। गोरखपुर के सभी कारखानों में ऐसे ही हालात हैं। किसी कारखाने में यूनियन नहीं है, संगठित होने की किसी भी कोशिश को फौरन कुचल दिया जाता है। पहली बार करीब पांच महीने पहले तीन कारखानों के मजूदरों ने संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा बनाकर न्यूनतम मजदूरी देने और काम के घंटे कम करने की लड़ाई लड़ी और आंशिक कामयाबी पायी। इससे बरसों से नारकीय हालात में खट रहे हजारों अन्य मजदूरों को भी हौसला मिला। इसीलिए यह मजदूर आन्दोलन इन दो कारखानों के ही नहीं बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के तमाम उद्योगपतियों को बुरी तरह खटक रहा है और वे हर कीमत पर इसे कुचलकर मजदूरों को ”सबक सिखा देना“ चाहते हैं। कारखाना मालिक पवन बथवाल दबंग कांगे्रसी नेता है और भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ का उसे खुला समर्थन प्राप्त है। प्रशासन और श्रम विभाग के अफसर बिके हुए हैं। शहर में आम चर्चा है कि मालिकों ने अफसरों को खरीदने के लिए दोनों हाथों से पैसा लुटाया है। मजदूरों ने पिछले दो महीनों के दौरान गोरखपुर से लेकर लखनऊ तक, हर स्तर पर बार-बार अपनी बात पहुंचायी है लेकिन ”सर्वजन हिताय“ की बात करने वाली सरकार कान में तेल डालकर सो रही है। मजदूरों और नेतृत्व के लोगों को डराने-धमकाने, फोड़ने की हर कोशिश नाकाम हो जाने के बाद पिछले महीने से यह सुनियोजित मुहिम छेड़ दी गई कि इस आन्दोलन को ‘‘माओवादी आंतकवादी’’ और ‘‘बाहरी तत्व’’ चला रहे हैं और यह ”पूर्वी उत्तर प्रदेश को अस्थिर करने की साज़िश“ है। इससे बड़ा झूठ कोई नहीं हो सकता।
संघर्ष मोर्चा में सक्रिय ये तीनों ही कार्यकर्ता जनसंगठनों से लंबे समय से जुड़कर काम करते रहे हैं। प्रशांत और प्रमोद विगत कई वर्षों से गोरखपुर के छात्रों और नौजवानों के बीच सामाजिक काम करते रहे हैं। पिछले वर्ष ‘गीडा’ के एक कारखाने के मज़दूरों तथा नगर महापालिका और विश्वविद्यालय के सफाई कर्मचारियों के आन्दोलनों में भी उनकी सक्रियता थी। शहर के अधिकांश प्रबुद्ध नागरिक और मज़दूर उन्हें जानते हैं। तपीश मैंदोला मज़दूर अखबार ‘बिगुल’ से जुड़े हैं और श्रम मामलों के विशेषज्ञ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। कई वर्षों से वे नोएडा, गाज़ियाबाद के सफाई मज़दूरों और फैक्ट्री मज़दूरों के बीच काम करते रहे हैं। इन दिनों उनके नेतृत्व में मऊ, मैनपुरी और इलाहाबाद में नरेगा के मज़दूर अपनी माँगों को लेकर संगठित हो रहे हैं। तपीश के नेतृत्व में दिल्ली और आसपास से मज़दूरों के खोये हुए बच्चों के बारे में प्रस्तुत बहुचर्चित रिपोर्ट पर इन दिनों दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई चल रही है। ये तीनों साथी जन-आधारित राजनीति के पक्षधर हैं और आतंकवाद की राजनीति के विरोधी हैं। किसी भी जनान्दोलन को ‘‘माओवाद’’ का ठप्पा लगाकर कुचलने के नये सरकारी हथकंडे का यह एक नंगा उदाहरण है। इसका पुरज़ोर विरोध किया जाना बेहद ज़रूरी है। यह तमाम इंसाफ़पसंद नागरिकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, छात्र-युवा कार्यकर्ताओं को सत्ता की सीधी चुनौती है! हमारी आपसे अपील है कि हर संभव तरीके से अपना विरोध दर्ज कराए। 
आप क्या कर सकते हैं - मज़दूर आन्दोलन के दमन और मजदूर नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री, प्रमुख सचिव, श्रम और श्रम मंत्री को, तथा गोरखुपर के जिलाधिकारी को फैक्स, ईमेल या स्पीडपोस्ट से विरोधपत्र भेजें। ईमेल की एक प्रति कृपया हमें भी फारवर्ड कर दें। - इस मुद्दे पर बैठकें तथा धरना-विरोध प्रदर्शन आयोजित करें। - अपने संगठनों की ओर से अपनी ओर से इसके विरोध में बयान जारी करें और हस्ताक्षर अभियान चलाकर उपरोक्त पतों पर भेजें। - दिल्ली में 21 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश भवन पर आयोजित विरोध प्रदर्शन में शामिल हों।

गोरखपुर के मजदूर आन्दोलन के समर्थक बुद्धिजीवियों, आम नागरिकों, छात्रों-युवाओं की ओर से,
कात्यायनी, सत्यम, मीनाक्षी, रामबाबू, कमला पाण्डेय, संदीप, संजीव माथुर, जयपुष्प, कपिल स्वामी, अभिनव, सुखविन्दर, डा. दूधनाथ, शिवार्थ पाण्डेय, अजय स्वामी, शिवानी कौल, लता, श्वेता, नेहा, लखविन्दर, राजविन्दर, आशीष, योगेश स्वामी, नमिता, विमला सक्करवाल, चारुचन्द्र पाठक, रूपेश राय, जनार्दन, समीक्षा, राजेन्द्र पासवान...




पतों एवं फ़ोन-फ़ैक्‍स नंबरों की सूची:




Commissioner 0551 - 2338817 (Fax)
Office of the Commissioner
Collectrate
Gorakhpur - 273001

Commissioner: PK Mahanty - 9936581000


District Magistrate 0551 - 2334569 (Fax)
Office of the District Magistrate
Collectrate
Gorakhpur - 273001

DM: AK Shukla - 9454417544

City Magistrate: Akhilesh Tiwari - 9454416211


Dy Inspector General of Police 0551 - 2201187 / 2333442
Cantt.
Gorakhpur:

Dy. Labour Commissioner,
Labour Office
Civil Lines
Gorakhpur-273001

DLC, ML Choudhuri - 9838123667


Governor, BL Joshi
Raj Bhavan, Lucknow, 226001
0522-2220331, 2236992, 2220494
Fax: 0522-2223892
Special Secretary to Governor: 0522-2236113

Km. Mayawati,
Chief Minister
Fifth Floor, Secretariat Annexe
Lucknow-226001
0522 - 2235733, 2239234 (Fax)

2236181  2239296
2215501 (Phone: (Office) 2236838 2236985
Phone: (Res)


Shri Badshah Singh : 0522 - 2238925 (Fax)
Labour Minister,
Department of Labour
Secretariat
Lucknow

Principal Secretary, Labour 0522 - 2237831 (Fax)
Department of Labour
Secretariat
Lucknow - 226001

10.07.2009

फ्रांसिस की नृशंस हत्‍या: यह क्रांति नहीं आतंकवाद है

''माओवादियों'' ने अगवा किए इंस्‍पेक्‍टर फ्रांसिस की गला काट कर नृशंस हत्‍या कर दी, और वे इसे संभवत: रेड टेरर का नाम दे रहे होंगे। लेकिन उनकी इस हरकत की जितनी निंदा की जाए वह कम है। क्रांति का मतलब थाने, चौकियां, रेल प‍टरियां, पुल उड़ाना नहीं होता, न ही एक दो पुलिसवालों की इस तरह हत्‍या करने को क्रांति कहा जा सकता है। सत्ता दमन करती है तो जनता को जागरूक, गोलबंद और संगठित कीजिए, राजसत्ता के दमन का प्रतिरोध कीजिए, यह नहीं कर सकते तो इस तरह एक दो पुलिसवालों की पाशविक हत्‍या को क्रांति का नाम मत दीजिए...
एक तरफ यह बिल्‍कुल सही है कि राज्‍यसत्ता द्वारा जनता के अधिकारों का हनन किए जाने का मुखर विरोध किया जाना चाहिए, नक्‍सलवाद के नाम पर या यह लेबल लगाकर होने वाले नागरिक अधिकारों के हनन का प्रतिरोध होना ही चाहिए। जल-जंगल-जमीन से आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा है, ये कॉरपोरेट घरानों को दोहन के लिए सौंपे जा रहे हैं, तो बेशक उसका विरोध होना चाहिए। लेकिन दूसरी तरफ इसके विरोध के नाम पर किसी की गर्दन काटने को कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता। वैसे तो माओवाद के नाम पर जिस चीज को अमल में लाया जा रहा है, वह माओवाद भी नहीं है, उसे सिर्फ और सिर्फ वामपंथी आतंकवाद ही कहा जा सकता है। दरअसल यह मध्‍यवर्गीय दुस्‍साहसवाद से पैदा हुई निराशा का नतीजा है। संभवत: इनके लिए जंगल और आदिवासी ही पूरा भारत हैं, और आतंकवादी कार्रवाइयां इनका तरीका है। जनता को जागरूक और गोलबंद करने के दीर्घकालिक और मुश्किल कार्य की जगह क्रान्ति का शोर्टकट केवल आतंकवाद को ही पैदा कर सकता है।
शोर्टकट का रास्‍ता पकड़ने वाली सोच के ऐसे कामों की वजह से ही जनसंघर्षों के साथ खड़े मानवाधिकार, नागरिक-अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोगों पर हमला करने का मौका सत्ताधारियों और उसके हिमायतियों को मिल जाता है। लोगों के अधिकारों पर मुंह न खोलने वाले ये झींगुर भी ऐसी घटनाओं पर आम जन के साथ खड़ी राजनीति और सभी लोगों पर हमला बोल देते हैं। इसलिए जरूरी है कि जनसंघर्षों की वास्‍तविक राजनीति को इस आतंकवादी राजनीति से अलग करके हर मुद्दे पर (जैसे कि यह घटना) इसकी सोच के साथ सामने लाया जाए ताकि लोग भी सही और गलत राजनीति को पहचान सकें।

10.03.2009

बर्बरता की ढाल ठाकरे

मुंबई के दंगे हों या उत्तर भारत के लोगों के खिलाफ़ जहर उगलने का मामला हो या शिवाजी के नाम पर बवाल; ठाकरे परिवार हमेशा चर्चा में रहा है, जय महाराष्‍ट्रा के नाम पर शिव सेना और मनसे की गुंडागर्दी भी जगजाहिर है। कल करण जौहर को राज ठाकरे से माफी मांगनी पड़ गयी। दरअसल, उन्‍होंने अपनी नयी फिल्‍म में मुंबई की जगह बाम्‍बे शब्‍द का इस्‍तेमाल किया है, उसी पर राज ठाकरे बिगड़ गये। वैसे, हाल ही में शिव सेना के मुखपत्र सामना में आरोप लगाया गया कि राज ठाकरे विधानसभा चुनाव में जिन्‍ना की भूमिका निभा रहे हैं क्‍योंकि वह मराठी मतों का विभाजन कर रहे हैं। खैर, ठाकरे परिवार की लीला अपरंपरा है, यही वजह थी कि बाबा नागार्जुन ने बाल ठाकरे पर एक कविता ही लिख डाली। फिलहाल आप वह कविता पढ़ि‍ए।


बर्बरता की ढाल ठाकरे


बाल ठाकरे! बाल ठाकरे!
कैसे फासिस्‍टी प्रभुओं की --
गला रहा है दाल ठाकरे!
अबे संभल जा, वो आ पहुंचा बाल ठाकरे !
सबने हां की, कौन ना करे !
छिप जान, मत तू उधर ताक रे!
शिव-सेना की वर्दी डाटे जमा रहा लय-ताल ठाकरे!
सभी डर गए, बजा रहा है गाल ठाकरे !
गूंज रही सह्यद्रि घाटियां, मचा रहा भूचाल ठाकरे!
मन ही मन कहते राजा जी; जिये भला सौ साल ठाकरे!
चुप है कवि, डरता है शायद, खींच नहीं ले खाल ठाकरे !
कौन नहीं फंसता है, देखें, बिछा चुका है जाल ठाकरे !
बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे!
बर्बरता की ढाल ठाकरे !
प्रजातंत्र के काल ठाकरे!
धन-पिशाच के इंगित पाकर ऊंचा करता भाल ठाकरे!
चला पूछने मुसोलिनी से अपने दिल का हाल ठाकरे !
बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे!
नागार्जुन
(जनयुग, 7 जून 1970)





दोनों कार्टून यहां और यहां से साभार लिए गए हैं।