6.19.2007

सामाजिक आवश्‍यकता

केवल विचारों की वेश्‍यावृत्ति से समाज नहीं बदला करते, केवल किताबें पढने से समाज नहीं बदला करते। समाज में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए जरूरी है अपने सिद्धांतों को व्‍यवहार में उतारना। जिस समाज के लिए आप चिंतित हैं उसे बदलने का प्रयास करना, नहीं तो सारे वाद-विवाद व्‍यर्थ हैं। और हर संवेदनशील व्‍यक्ति को इस काम के लिए आगे आना चाहिए। दोब्रोल्‍युबोव का एक बेहद संक्षिप्‍त निबंध पढने के बाद यही विचार मेरे मन में उठे, तो मुझे लगा कि इन्‍हें हिंदी चिट्ठाजगत के साथियों के साथ जरूर साझा किया जाना चाहिए। दोब्रोल्‍युबोव रूस के एक बड़े साहित्‍यकार, दार्शनिक और चिंतक थे और जिंदगी भर उन्‍होंने अपने विचारों पर अमल किया। 1861 में पच्‍चीस वर्ष की अल्‍पायु में इस तरुण साहित्‍यकार का निधन हो गया था। प्रस्‍तुत है यह लेख :


सामाजिक आवश्‍यकता
सूक्ष्‍म सैद्धांतिक स्‍तर पर इस मत से इन्‍कार नहीं किया जा सकता कि समाज में विचार बराबर आन्‍दोलित और परिवर्तित होते रहते हैं, गति और परिवर्तन की प्रक्रिया निरन्‍तर चलती रहती है, और इसलिए ऐसे लोगों की भी बराबर आवश्‍यकता रहती है जो इन विचारों का प्रचार करें। ये सब बिल्‍कुल ठीक है। किन्‍तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि समाज के जीवन का लक्ष्‍य एकमात्र वाद-विवाद नहीं और विचारों का आदान-प्रदान नहीं है, केवल इसी में उसके जीवन की इतिश्री नहीं है। विचारों और उनके क्रमश: वकास का महत्‍व केवल इस बात में है कि प्रस्‍तुत तथ्‍यों से उनका जन्‍म होता है और वे यथार्थ वास्‍तविकता में सदा परिवर्तनों की पेशवाई करते हैं। परिस्थितियां समाज में एक आवश्‍यकता को जन्‍म देती हैं। इस आवश्‍यकता को सब स्‍वीकार करते हैं, इस आवश्‍यकता की आम स्‍वीकृति के बाद यह जरूरी है कि वस्‍तुस्थिति में परिवर्तन हो, ताकि सबके द्वारा स्‍वीकृत इस आवश्‍यकता को पूर्ण किया जा सके। इस प्रकार किन्‍हीं विचारों तथा आकांक्षाओं की समाज द्वारा स्‍वीकृति के बाद ऐसे दौर का आना लाजिमी है जिसमें इन विचारों तथा आकांक्षाओं को अमल में उतारा जा सके। चिन्‍तन-मनन और वाद-विवाद के बाद क्रियाशीलता का श्रीगणेश होना चाहिए। ऐसी दशा में, प्रश्‍न किया जा सकता है : पिछले बीस-तीस वर्षों में हमारे समाज ने क्‍या किया है? अब तक - कुछ नहीं। उसने मनन-अध्‍ययन किया, विकसित हुआ, रूदिनों (रूसी साहित्‍य के नायकों) के प्रवचनों को सुना, अपने विश्‍वासों के लिए संघर्ष के दौर में लगे आघातों पर उनके साथ सहानुभूति प्रकट की, कार्यक्षेत्र में उतरने की तैयारी की, किन्‍तु किया कुछ नहीं! ढेर की ढेर सुन्‍दर भावनाओं-कल्‍पनाओं से लोगों के हृदय-मस्तिष्‍क पट गये; समाज की वर्तमान व्‍यवस्‍था के बेतुकेपन और बेहूदगी का इतना पर्दाफाश किया गया कि पर्दाफाश करने के लिए और कुछ रह ही नहीं गया। प्रतिवर्ष विशिष्‍ट, अपने-आपको ''चारों ओर की वास्‍तविकता से ऊंचा समझनेवाले,'' लोगों की संख्‍या बढने लगी। ऐसा मालूम होता था कि शीघ्र ही हम सब लोग वास्‍तविकता से ऊंचे उठ जायेंगे। ऐसी दशा में, स्‍पष्‍ट ही, भावना कि हम सदा इसी प्रकार विषमता, सन्‍देह, वायवी दुख और हवाई ढारस के दुरूह पथ पर चलते रहेंगे, कोई अर्थ नहीं रखती। अब तक यह स्‍पष्‍ट हो जाना चाहिए कि हमें ऐसे लोगों की आवश्‍यकता नहीं जो ''हमें चारों ओर की वास्‍तविकता से ऊंचा उठाने वाले'' हों। हमें ऐसे लोगों की आवश्‍कता है जो स्‍वयं हमें वास्‍तविकता को ऊंचा उठाना सिखायें, ताकि हम उसे उन संगसत मानों के स्‍तर पर ला सकें जिन्‍हें सब मानते और स्‍वीकार करते हैं।